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राहुल गांधी की बिहार यात्रा: ​​दलित-पिछड़ा राजनीति में कांग्रेस के बढ़ते कदम

​​कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने पिछले चार महीने में बिहार का चार बार दौरा किया है.

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​​कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने पिछले चार महीने में बिहार का चार बार दौरा किया है. जिसमें उन्होंने विशेष रूप से ओबीसी-दलित कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और युवाओं से छोटे-छोटे समूहों में संवाद स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित किया है. लेकिन उनके किसी भी दौरे की दरभंगा यात्रा जैसी चर्चा नहीं हुई. ​​15 मई 2025 को दरभंगा यात्रा के दौरान हुए प्रशासनिक टकराव और राहुल गांधी की अप्रत्याशित पदयात्रा ने राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरीं. तपती दोपहर में गाड़ी से उतरकर पैदल चलने का उनका फैसला — तेज धूप में राहगीरों और छात्रों से उनका सीधा संवाद- बिहार की राजनीति में एक उल्लेखनीय क्षण बन गया.

हालांकि, शाम होते-होते यह कार्यक्रम कानूनी पचड़े में भी पड़ गया और राहुल गांधी समेत बीस कांग्रेसी नेताओं पर नामजद एवं सौ से अधिक अज्ञात पर FIR दर्ज हुई, जो बिना अनुमति कार्यक्रम आयोजित करने और निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने के आरोप में थी.
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इस पर राहुल गांधी की प्रतिक्रिया कि "ये सभी मेरे लिए पदक हैं," और उनके खिलाफ लगभग 30-32 मामलों का जिक्र करना, यह दर्शाता है कि वे किसी दमनकारी शक्ति से नहीं डरते और संघर्ष के लिए पूरी तरह तैयार हैं. यह घटनाक्रम बिहार की दलित-पिछड़ा राजनीति में कांग्रेस की एक नई, जुझारू रणनीति का शुरुआती संकेत है. बिहार में राहुल गांधी की दरभंगा यात्रा के मायने और पार्टी की बदली हुई रणनीति को समझने के लिए पहले इतिहास में झांकना होगा.

​​बिहार में कांग्रेस का बदलता सियासी परिदृश्य: 1989 से अब तक​

​​1989 के बाद से बिहार में कांग्रेस का ग्राफ गिरा है, जब क्षेत्रीय दिग्गजों जैसे ​​लालू प्रसाद यादव (आरजेडी) और नीतीश कुमार (जेडीयू)​​ का उदय हुआ. 1989 से पहले, कांग्रेस बिहार में एक प्रमुख शक्ति थी. ऊंची जातियों (ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ), दलितों, मुसलमानों और कुछ हद तक पिछड़ों के व्यापक सामाजिक आधार के साथ पार्टी ने लगातार चुनाव जीते. ​​जगजीवन राम​​ जैसे दलित नेताओं की उपस्थिति ने पार्टी को दलितों के बीच अपना समर्थन बनाए रखने में मदद की. उस दौर में कांग्रेस के प्रभुत्व का एक बड़ा कारण, कमजोर और बिखरा विपक्ष भी था.

​​लेकिन, 1989 के बाद स्थिति पूरी तरह बदल गई. ​​मंडल आयोग की रिपोर्ट (1990)​​ लागू होने के बाद, लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं ने 'सामाजिक न्याय' के नारे के साथ पिछड़े वर्गों को लामबंद किया, जिससे कांग्रेस का पारंपरिक पिछड़ा और मुस्लिम वोट बैंक तेजी से खिसक गया.

दलितों में भी बिखराव आया, क्योंकि लालू यादव ने उन्हें 'अति-पिछड़ों' के रूप में एक साथ लाने की कोशिश की, जबकि कुछ दलितों ने राम विलास पासवान, जीतन राम मांझी जैसे अपने क्षेत्रीय नेताओं का समर्थन किया. कांग्रेस दलितों के इस बिखराव को भुनाने में असफल रही. साथ ही, मंडल की राजनीति के विरोध में ऊंची जातियों का झुकाव बीजेपी की ओर होने लगा, जिससे कांग्रेस का पारंपरिक गढ़ कमजोर पड़ गया. नेतृत्व का संकट और कमजोर संगठनात्मक ढांचा भी बिहार में कांग्रेस के पतन का कारण बना.

2020 विधानसभा चुनाव में ​​कांग्रेस का निराशाजनक प्रदर्शन

​​2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा था. महागठबंधन के तहत कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और केवल 19 सीटें ही जीत पाई, जो 2015 में जीती 27 सीटों से भी कम था. पार्टी का स्ट्राइक रेट 27% रहा, जबकि आरजेडी का स्ट्राइक रेट 52% था.

विश्लेषकों ने इस लचर प्रदर्शन को महागठबंधन की हार का एक प्रमुख कारण माना. आरजेडी के मजबूत प्रदर्शन (75 सीटें) और सीपीआई (एमएल) लिबरेशन (12 सीटें) के बावजूद, महागठबंधन बहुमत से 10-12 सीटें पीछे रह गया था. महागठबंधन के खाते में कुल 110 सीटें आईं.

​​कई राजनीतिक विश्लेषकों ने कांग्रेस के इस प्रदर्शन के लिए उसकी "ढीली-ढाली" चुनाव प्रचार शैली, कमजोर संगठनात्मक ढांचा और राज्य नेतृत्व की जमीनी हकीकत से दूरी को जिम्मेदार ठहराया. तब कई मीडिया रिपोर्ट में आंतरिक सूत्रों के हवाले से कहा गया था कि बिहार में कांग्रेस की कमजोर संगठनात्मक ताकत को देखते हुए, आरजेडी नेताओं ने कांग्रेस के 70 सीटों पर चुनाव लड़ने की जिद की आलोचना भी की थी.

एक अन्य विश्लेषण में यह भी सामने आया कि कांग्रेस को दी गईं 70 में से लगभग 30-35 सीटें ऐसी थीं जहां कांग्रेस या आरजेडी का कोई मजबूत आधार नहीं था. कुछ पर्यवेक्षकों ने तो यहां तक कहा कि राहुल गांधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने तेजस्वी यादव द्वारा निर्धारित नैरेटिव (नौकरी, अर्थव्यवस्था और विकास) को आगे बढ़ाने में मदद नहीं की, बल्कि चीन और प्रधानमंत्री मोदी पर हमलों जैसे "असंतुलित" मुद्दे उठाए.​

​​बदलती सियासी हवा और नई रणनीति​

2023 में महागठबंधन सरकार (आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस-लेफ्ट) ने प्रदेश में जातिगत सर्वेक्षण करवाया था. सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों ने पुष्टि की है कि बिहार में गरीबी व्याप्त है. राज्य के 34.13% परिवारों को गरीब के रूप में वर्गीकृत किया गया है. गरीब परिवारों की संख्या अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) में सबसे अधिक है, उसके बाद ओबीसी और ईबीसी हैं.

जाति सर्वेक्षण के आंकड़े जारी होने के बाद प्रदेश में लोकसभा के चुनाव हुए. उम्मीद जताई जा रही थी कि पिछड़ी जातियां एकजुट होंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. लोकसभा चुनाव में बिहार में ​​अपर कास्ट से 12 सांसद चुने गए, जो राज्य की कुल 40 लोकसभा सीटों का 30% है. जबकि उनकी आबादी (ऊंची जातियां- भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ) राज्य की कुल आबादी का केवल 10.72% हैं.

एनडीए का दलितों के बीच मजबूत समर्थन आधार है. चिराग पासवान के नेतृत्व वाली एलजेपी (आर) और जीतन राम मांझी की HAM एनडीए के साथ हैं. पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में प्रदेश की छह आरक्षित सीटों में से, बीजेपी की सहयोगी एलजेपी (आर) ने हाजीपुर सहित तीन सीटें जीतीं, जबकि अन्य सहयोगी जेडीयू और HAM ने एक-एक सीट जीती. सासाराम की केवल एक आरक्षित सीट कांग्रेस के खाते में गई. बता दें कि राज्य में करीब 20 फीसदी दलित आबादी है.

आरजेडी ने 2004 के चुनावों के बाद राज्य में कोई भी आरक्षित सीट नहीं जीती है. कुल 40 सीटों में से 20 सांसद (50%) ओबीसी और ईबीसी से चुने गए हैं. ओबीसी (27.2%) और ईबीसी (36.01%) की कुल आबादी 63% है, लेकिन वे अभी भी चुनावी राजनीति में ऊंची जातियों के प्रभुत्व को चुनौती देने में पीछे हैं.

​​2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने देशभर में SC/ST सीटों पर कुछ हद तक वापसी की है. 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने 6 अनुसूचित जाति (SC) आरक्षित सीटें जीती थीं, जबकि 2024 में यह संख्या बढ़कर ​20​ हो गई. इसके अतिरिक्त, कांग्रेस ने 2024 में ​13​ अनुसूचित जनजाति (ST) आरक्षित सीटें भी जीती हैं.

कांग्रेस की दलित-ओबीसी आउटरीच प्लानिंग

इन सभी स्थितियों को देखते हुए कांग्रेस अपने नैरेटिव और आउटरीच कार्यक्रमों के माध्यम से सभी गैर-यादव और गैर-कुर्मी-कुशवाहा ओबीसी और दलितों को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रही है. कांग्रेस ने हाल ही में अखिलेश प्रसाद सिंह की जगह एक दलित नेता, ​​राजेश कुमार​​ को बिहार कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त किया है, और ​​सुशील पासी​​ जैसे दलित नेताओं को सह-प्रभारी बनाया है. पार्टी के इन फैसलों को स्पष्ट रूप से दलित समुदाय के बीच अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है.

इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सीटों के बंटवारे में अपने हिस्से में इस तरह की पिछड़ा-दलित आबादी वाली सीटों की मांग कर सकती है, जहां अभी तक आरजेडी भी बहुत प्रभावी ढंग से प्रदर्शन नहीं कर पाई है. पिछली बार की तरह सिर्फ सीटों की संख्या नहीं बल्कि जीतने की संभावनाओं के आधार पर अपने लिए सीट हासिल कर सके. हालांकि, इसमें उसे मुकेश साहनी की वीआईपी पार्टी के साथ भी संघर्ष करना पड़ सकता है. इसके अलावा, पार्टी के सामने चिराग पासवान और जीतन राम मांझी के परंपरागत वोटर्स के सामने खुद को एक मजबूत विकल्प की तरह पेश करने की चुनौती भी है.

इसके अलावा ने पार्टी ने 'मुस्लिम' शब्द का सीधे तौर पर इस्तेमाल करने के बजाय, सामाजिक न्याय और पसमांदा समुदायों के सशक्तिकरण जैसे व्यापक शब्दों का उपयोग करने का निर्णय लिया है, जो टिकट वितरण में भी परिलक्षित हो सकता है. इसका उद्देश्य बीजेपी के उस प्रचार को नाकाम करना है, जिसमें कांग्रेस और इंडिया गठबंधन पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप लगाए जाते हैं.

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बिहार चुनाव को लेकर कांग्रेस एक्टिव

राहुल गांधी का लगातार बिहार आना कोई सामान्य बात नहीं है, बल्कि कांग्रेस की एक सोची-समझी और सघन रणनीति का हिस्सा है, जिसका सीधा मकसद राज्य में अपनी खोई जमीन तलाशना है. उनकी इन यात्राओं की 'गहराई' इस बात से भी स्पष्ट होती है कि वे अब केवल बड़े सार्वजनिक संबोधनों तक सीमित नहीं हैं. इसके बजाय, वे छोटे समूहों में दलित, अति-पिछड़ा और युवा कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद स्थापित कर रहे हैं. दरभंगा में अंबेडकर छात्रावास का दौरा कर 'शिक्षा न्याय संवाद' करना और पटना में 'फुले' फिल्म देखना इसका प्रमुख उदाहरण है.

राहुल गांधी ने 15 मई को दरभंगा में कहा कि कांग्रेस सरकार बनने पर ​​जातीय जनगणना​​ की दिशा में निर्णायक कदम उठाए जाएंगे, जैसा कि तेलंगाना में किया गया. उन्होंने निजी संस्थानों में दलितों और पिछड़े वर्गों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए ​​आरक्षण​​ को प्रभावी ढंग से लागू करने पर भी जोर दिया. साथ ही, उन्होंने कहा कि उनकी सरकार आने पर ​​50% आरक्षण की सीमा को खत्म कर​​ सामाजिक न्याय की प्रक्रिया को और बढ़ाया जाएगा.

यह रणनीति उन्हें जमीनी स्तर पर संवाद और जुड़ाव बनाने में मदद कर रही है, जो पारंपरिक रैलियों की तुलना में अधिक प्रभावी मानी जा रही है. इस बढ़ती सक्रियता से पता चलता है कि बिहार में पार्टी अपने आपको एक सहयोगी दल के सहारे नहीं छोड़ना चाहती, बल्कि अपनी स्वतंत्र पहचान और जनाधार बनाने की दिशा में गंभीरता से काम कर रही है.

​​इसके अतिरिक्त, कांग्रेस ने पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के अनुभवों से सबक लिया है और इस बार वह अपने स्वयं के एजेंडे पर चुनाव प्रचार का नेतृत्व करने का प्रयास कर रही है. ​​'पलायन रोको-नौकरी दो यात्रा', 'संविधान सुरक्षा सम्मेलन', 'जगलाल चौधरी जयंती समारोह' और हाल ही में 'शिक्षा न्याय संवाद'​​ जैसे कार्यक्रमों की लगातार शुरुआत करके, कांग्रेस चुनाव प्रचार के लिए अपना एजेंडा निर्धारित कर रही है.

कांग्रेस अध्यक्ष ​​मल्लिकार्जुन खड़गे​​ और युवा नेता ​​कन्हैया कुमार​​ की 'बेरोजगारी' पर बिहार भर में लंबी पदयात्राएं भी कांग्रेस की प्राथमिकताएं और इरादे को दिखाती हैं. पार्टी अपने परंपरागत वोट बैंक को और सुदृढ़ कर उसमें दलित और पिछड़े वोटों को जोड़कर अपने लिए नई संभावनाएं देख रही है. बिहार में पार्टी अपनी इन रणनीतियों के दम पर किसी चमत्कार की अपेक्षा कर रही है, जिससे वो आने वाले चुनावों में अपने ऊपर लगे पिछलग्गू का टैग हटाकर एक बड़े प्लेयर के रूप में खुद को पेश कर सके.

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