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धारा 377 क्या है? कानून और कोर्ट में कब क्या हुआ? 

इस मामले में कोर्ट ने कब, हर जानकारी यहां है

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सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान बेंच ने फैसला दे दिया है अब समलैंगिकता अपराध नहीं है. धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है. लेकिन ये सफलता आसानी से नहीं मिली है. इसके लिए एलजीबीटी समुदाय को लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी है. इस मामले में कई मोड़ आ चुके हैं. आपको बताते हैं ये पूरा मामला है क्या, कौन किस तरह प्रभावित है. आइए बताते हैं क्या है धारा 377

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क्या है धारा 377?

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में समलैंगिकता को अपराध बताया गया है. आईपीसी की धारा 377 के मुताबिक, जो कोई भी किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के खिलाफ सेक्स करता है, तो इस अपराध के लिए उसे 10 वर्ष की सजा या आजीवन कारावास से दण्डित किया जा सकेगा. उस पर जुर्माना भी लगाया जाएगा.

ये भी पढ़ें- धारा-377: समलैंगिक सेक्स अब अपराध नहीं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला

इस केस में कब क्या हुआ?

  • 1860 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने भारतीय दंड संहिता में धारा 377 को शामिल किया और इसे भारत में लागू किया.
  • जुलाई 2009, में दिल्ली हाई कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को गैर-कानूनी करार दिया. ‘नाज फाउंडेशन’ की तरफ से दायर जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट कोर्ट ने धारा 377 को संविधान की धारा 14,15 और 21 का उल्लंघन बताया.
  • 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए समलैंगिक संबंधों को अवैध ठहराया.
  • 2014 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ ‘नाज फाउंडेशन’ की तरफ से पुनर्विचार याचिका दायर की गई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया.
  • 2014 में केंद्र में आई मोदी सरकार ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही वो इस बारे में कोई फैसला करेगी. क्योंकि फिलहाल ये मामला कोर्ट में विचाराधीन है.
  • 2016 में LGBTQ समुदाय की हक के लिए रितु डालमिया, अमन नाथ, एन एस समेत पांच लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में फिर से पुनर्विचार याचिका दायर की. इन लोगों ने कहा कि सहमति से दो बालिगों के बीच बनाए गए सेक्स संबंध के लिए उसे जेल में डालना सही नहीं है. ये प्रावधान असंवैधानिक है.
  • 2017 में कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने धारा 377 में बदलाव के लिए भारतीय दंड संहिता (संशोधन) विधेयक लाया था, लेकिन वो लोकसभा में पास नहीं हो पाया.
  • 8 जनवरी, 2018 को चीफ जस्टिस की नेतृत्व वाली तीन सदस्यीय बेंच ने समलैंगिक सेक्स को अपराध से बाहर रखने के लिए दायर अर्जी संविधान पीठ को सौंप दी. साथ ही केंद्र सरकार से इस मुद्दे पर जवाब देने को कहा.
  • 9 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 377 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 10 जुलाई से सुनवाई करेगा. इस मामले में सुनवाई कुछ समय के लिए स्थगित करने से वाली केंद्र की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया है. बता दें कि केंद्र ने सुनवाई स्थगित करने की मांग की थी और कुछ और समय मांगा था.
  • सुप्रीम कोर्ट में पांज जजों की संविधान पीठ ने 10-17 जुलाई के बीच 4 दिन की सुनवाई करने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया.
  • 6 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान ने पीठ ने सर्वसम्मति से समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से हटा दिया. इस संविधान पीठ में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंग्टन नरीमन, जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस खानविल्कर और जस्टिस इंदु मल्होत्रा हैं.
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सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में क्या संकेत दिए?

अगस्त, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने राइट टू प्राइवेसी पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया था. साथ ही कहा था कि सेक्सुअल ओरिएंटेशन निजता के दायरे में है. किसी के सेक्स संबंधी झुकाव के आधार पर भेदभाव गलत है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-14, 15 और 21 के मूल में निजता का अधिकार है और सेक्स संबंधी पसंद उसी में शामिल है. कोर्ट के इस फैसले के बाद से ही धारा-377 को अवैध करार देने की मांग एक बार से उठ गई थी.

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क्या है LGBTQ समुदाय?

LGBTQ समुदाय के तहत लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंटर और क्वीयर आते हैं. एक अर्से से इस समुदाय की मांग है कि उन्हें उनका हक दिया जाए और धारा 377 को अवैध ठहराया जाए. निजता का अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस समुदाय ने अपनी मांगों को फिर से तेज कर दिया था.

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किन देशों में नहीं है अपराध?

ऑस्ट्रेलिया, माल्टा, जर्मनी, फिनलैंड, कोलंबिया, आयरलैंड, अमेरिका, ग्रीनलैंड, स्कॉटलैंड, लक्जमबर्ग, इंग्लैंड और वेल्स, ब्राजील, फ्रांस, न्यूजीलैंड, उरुग्वे, डेनमार्क, अर्जेंटीना, पुर्तगाल, आइसलैंड, स्वीडन, नॉर्वे, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, कनाडा, बेल्जियम, नीदरलैंड जैसे 26 देशों ने समलैंगिक सेक्स को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है.

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