अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे से जुड़े मामले में शुक्रवार, 8 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने फैसला सुनाया है. शीर्ष अदालत ने 4:3 बहुमत से 1967 के फैसले (एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ) को खारिज कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि किसी कानून द्वारा निगमित कोई संस्था अल्पसंख्यक संस्था होने का दावा नहीं कर सकती.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं, अब इसका फैसला एक नियमित बेंच करेगी.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
अजीज बाशा मामले में कोर्ट ने फैसला दिया था कि AMU अल्पसंख्यक दर्जे का दावा नहीं कर सकता क्योंकि इसकी स्थापना एक कानून द्वारा की गई है. CJI डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में बहुमत ने अजीज बाशा के फैसले को खारिज करते हुए कहा कि कोई संस्था अपना अल्पसंख्यक दर्जा सिर्फ इसलिए नहीं खो सकती क्योंकि वह एक कानून द्वारा बनाई गई थी.
बहुमत ने माना कि कोर्ट को यह जांच करनी चाहिए कि विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की और इसके पीछे "दिमाग" किसका था.
"अदालत को संस्थान की उत्पत्ति पर विचार करना होगा और यह भी देखना होगा कि संस्थान की स्थापना के पीछे किसका दिमाग था. यह भी देखना होगा कि जमीन के लिए धन किसने प्राप्त किया और क्या अल्पसंख्यक समुदाय ने इसमें मदद की."
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपने अंतिम कार्य दिवस पर बहुमत (जिसमें उनके साथ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे) की ओर से निर्णय सुनाया.
इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि गैर-अल्पसंख्यक सदस्यों द्वारा संचालित यह प्रशासन किसी संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को खत्म नहीं कर सकता.
बेंच ने अपने फैसले में कहा, "हमने माना है कि अल्पसंख्यक संस्थान होने के लिए उसे अल्पसंख्यक द्वारा ही स्थापित किया जाना चाहिए, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि अल्पसंख्यक सदस्यों द्वारा ही उसका प्रशासन किया जाए. अल्पसंख्यक संस्थान धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर देना चाह सकते हैं, लेकिन इसके लिए प्रशासन में अल्पसंख्यक सदस्यों की आवश्यकता नहीं है."
कोर्ट ने कहा कि सरकार अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को रेगुलेट कर सकती है, बशर्ते वह ऐसे संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र का उल्लंघन न करे.
"किसी भी नागरिक द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थान को अनुच्छेद 19(6) के तहत रेगुलेट किया जा सकता है. इस कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार निरपेक्ष नहीं है. अनुच्छेद 19(6) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान को रेगुलेट करने की अनुमति है, बशर्ते कि यह संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र का उल्लंघन न करे."
कोर्ट ने आगे कहा कि संविधान का अनुच्छेद 30, जो अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उन्हें संचालित करने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है, संविधान के लागू होने से पहले अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित संस्थानों पर भी लागू होता है.
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि, "अगर अनुच्छेद 30 केवल उन संस्थानों पर लागू होता है जो संविधान लागू होने के बाद स्थापित किए गए हैं, तो यह कमजोर हो जाएगा. इस प्रकार, अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थान जो संविधान लागू होने से पहले स्थापित किए गए थे, वे भी अनुच्छेद 30 के तहत शासित होंगे."
मामले में तीन जजों ने जताई असहमति
इस मामले में जस्टिस सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और एससी शर्मा ने असहमति जताई है. जस्टिस सूर्यकांत ने असहमति जताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ द्वारा मामले को सात जजों की बेंच को सौंपा जाना सही नहीं है. जस्टिस दीपांकर दत्ता ने भी इसी तरह की राय व्यक्त करते हुए कहा कि इससे एक "खतरनाक मिसाल" कायम हो सकती है.
जस्टिस कांत ने कहा कि कोई भी संस्थान अल्पसंख्यक दर्जा तभी हासिल कर सकता है, जब उसकी स्थापना और प्रशासन अल्पसंख्यकों द्वारा किया गया हो.
"शैक्षणिक संस्थानों में विश्वविद्यालय भी शामिल हैं. अल्पसंख्यकों के दर्जे के लिए, उसे अनुच्छेद 30 के स्थापना और प्रशासन दोनों पहलुओं को पूरा करना होगा. AMU इस पर खरा उतरता है या नहीं, इस पर निर्णय नियमित पीठ द्वारा किया जाएगा."
वहीं जस्टिस दत्ता ने स्पष्ट रूप से कहा कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है और अनुच्छेद 30 के अंतर्गत नहीं आ सकता.
जस्टिस शर्मा ने कहा, "अनुच्छेद 30 का सार अल्पसंख्यकों के लिए किसी भी तरह के विशेषाधिकार को रोकना और सभी के लिए समान व्यवहार सुनिश्चित करना है. यह मान लेना गलत है कि देश के अल्पसंख्यकों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए सुरक्षित ठिकाने की जरूरत है. अल्पसंख्यक अब मुख्यधारा का हिस्सा बन चुके हैं और उन्हें समान अवसर मिल रहे हैं."
विवाद कैसे शुरू हुआ?
ताजा विवाद 2005 में शुरू हुआ, जब AMU ने एक आरक्षण नीति लागू करते हुए पोस्ट ग्रेजुएशन मेडिकल कोर्स में 50 फीसदी सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए आरक्षित कर दीं. इसे इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. कोर्ट ने उसी साल आरक्षण को पलट दिया और 1981 अधिनियम को रद्द कर दिया.
कोर्ट ने तर्क दिया कि AMU विशेष आरक्षण बरकरार नहीं रख सकता, क्योंकि अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, यह अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में योग्य नहीं था.
इसके बाद साल 2006 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कुल 8 याचिकाएं दाखिल हुईं, जिसमें एक याचिका मनमोहन सिंह नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार की थी.
लेकिन केंद्र में सरकार बदलने के बाद 2016 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह सरकार द्वारा दायर अपील को वापस ले रही है.
सरकार ने दलील दी, 'वह एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना करते हुए नहीं दिख सकती.'
2019 में तत्कालीन CJI रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने मामले को सात जजों की बेंच के पास भेज दिया.
सर्वोच्च न्यायालय ने आठ दिनों की सुनवाई के बाद फरवरी में इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.