मल्टिनेशनल कंपनी EY India में काम करने वाली अन्ना सेबेस्टियन को कथित वर्क लोड प्रेशर की वजह से अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. बाद में उनकी मोत हो गई.
एक सर्वे के मुताबिक करीब 31 फीसदी कैब ड्राइवर दिन में 14 घंटे से ज्यादा समय तक काम करते हैं.
स्विगी और जोमैटो जैसी एप बेस्ड फूड डिलेवरी प्लेटफॉर्म के डिलेवरी पार्टनर एक हफ्ते में एवरेज 69.3 घंटे काम करते हैं. मतलब संडे भी ऑफ नहीं. (-NCAER के सर्वे)
भले ही इन सबका काम अलग है, लेकिन इन सबमें एक बात कॉमन है... वर्किंग आवर. काम के घंटे. सवाल है कि भारत में एवरेज वर्किंग आवर क्या है? कानून के हिसाब से कितने घंटे काम करना चाहिए? क्या ज्यादा काम यानी ओवर वर्क के बदले सही दाम, सही सैलरी मिल रही है? अगर नहीं तो 90 घंटे और 70 घंटे काम करने की बहस छेड़ने वाले CEO साहब लोगों से पूछिएगा जनाब ऐसे कैसे?
साल 1971 में राजेश खन्ना की एक फिल्म आई थी. हाथी मेरे साथी. उसमें एक गाना था...
दुनिया में रहना है तो काम कर प्यारे
हाथ जोड़ सबको सलाम कर प्यारे...
लेकिन सवाल है कि कितना काम करें. 90 घंटे? 70 घंटे? 60 घंटे...?
अब बात करते हैं कि काम के घंटे की. दरअसल, भारत की सबसे बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी लार्सन एंड टुब्रो (L&T) के चेयरमैन एस.एन. सुब्रमण्यन ने अपने इन हाउस मीटिंग में एक बात कही. जिसकी वीडियो बाहर आ गई. उन्होंने कहा,
"हफ्ते में 90 घंटे काम करना चाहिए. मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं आपसे रविवार को काम नहीं करवा पा रहा हूं. अगर मैं ऐसा करवा सकता हूं तो मुझे ज्यादा खुशी होगी क्योंकि मैं खुद रविवार को काम करता हूं. घर पर बैठकर आप क्या करते हैं, आप अपनी पत्नी को कितनी देर तक देख सकते हैं, पत्नियां कब तक अपने पति को देख सकती हैं. ऑफिस पहुंचे और काम करें."
फिर क्या था. बहस छिड़ गई. महिंद्रा ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा से लेकर फिल्म एक्टर दीपिका पादुकोण ने भी सुब्रमण्यन से अलग नजरिया रखा. महिंद्र ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने कहा कि वो 'क्वांटिटी ऑफ वर्क' की जगह 'क्वालिटी ऑफ वर्क' में विश्वास रखते हैं.
हालांकि इससे पहले इंफोसिस के को-फाउंडर एन.आर नारायण मूर्ति ने हफ्ते में 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी. तब उन्होंने कहा था कि भारत के विकास के लिए ऐसा जरूरी है. तब भी सवाल उठा था कि भारत का विकास या कंपनियों का विकास.. तब भी लोगों ने पूछा था कि भारत के विकास में वर्कर का विकास क्यों नहीं है. चलिए आपको भारत में काम के घंटे से जुड़े कानून से मिलवाते हैं.
भारत में Factories Act, 1948 और Shops and Establishments Acts यानी कारखाना अधिनियम, 1948 और दुकानें एवं प्रतिष्ठान अधिनियम के मुताबिक कर्मचारियों के काम करने के लिए standard working hours 48 घंटे प्रति सप्ताह या 9 घंटे प्रति दिन होने चाहिए. इसमें एक घंटे का लंच ब्रेक भी शामिल है. और अगर कोई कर्मचारी इससे ज़्यादा काम करता है तो उसे ओवरटाइम मिलना चाहिए.
भारत ग्लोबल लेवल पर सबसे लंबे काम के घंटों के मामले में 13वें नंबर पर है. International Labour Organization (ILO) के आंकड़ों के मुताबिक, औसत भारतीय कर्मचारी हफ्ते में 46.7 घंटे काम करता है. आधे से ज्यादा मतलब करीब 51 फीसदी लोग हर हफ्ते 49 घंटे या उससे ज्यादा काम करते हैं.
ILO के मुताबिक, भूटान इस लिस्ट में सबसे ऊपर है. वहां के वर्कर हफ्ते में औसतन 54.4 घंटे काम करते हैं. 61 फीसदी से ज्यादा लोग 49 घंटे या उससे ज्यादा काम करते हैं. इसके बाद UAE (50.9 घंटे), लेसोथो (50.4 घंटे), कांगो (48.6 घंटे) और कतर (48.0 घंटे) का नंबर है.
अगर सिर्फ दूनिया की 5 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था कि बात करें तो इसमें भारत का कर्मचारी हर हफ्ते औसतन 46.7 घंटे काम के साथ सबसे उपर है. वहीं दूसरे नंबर पर चीन के कर्मचारी हैं जो हर हफ्ते औसतन 46.1 घंटे काम करते हैं. अेरिका में 36 घंटे और जर्मनी में हर हफ्ते औसतन 34.2 घंटे करते हैं.
लेकिन, लेकिन , लेकिन... काम के घंटे तो ज्यादा हैं, लेकिन पैसे? अगर भारत में minimum monthly earnings की बात करतें तो यहां ये सिर्फ 222 डॉलर है यानी अभी के हिसाब से 19,177 रुपए. वहीं फ्रांस का केवल 8.8 % वर्कफोर्स हर हफ्ते 49 या उससे अधिक घंटे काम करता है. जबकि वहां पर minimum monthly earnings 2,016 डॉलर है, मतलब 1,74,151 रुपए.
पैसे और काम के घंटे में फर्क की एक एक कहानी देखिए. मार्च 2024 में . PAIGAM (People’s Association in Grassroots Action and Movements) और Indian Federation of App-based Transport Workers ने ओला, ऊबर जैसे एप बेस्ड कैब सर्विस के ड्राइवरों और डिलेवरी पर्सन पर सर्वे किया था. जिसमें पता चला कि 43 फीसदी कैब ड्राइवर हर दिन 500 रुपए से कम कमाते हैं और 72 प्रतिशत ड्राइवर अपने कमाई से महिने के खर्चों को पूरा करने में सक्षम नहीं थे.
सर्वे में शामिल 5,308 कैब ड्राइवरों में से 40.7 प्रतिशत ने कहा कि वे हफ्ते में एक भी दिन की छुट्टी नहीं ली.
पत्रकारों से लेकर डॉक्टर का हाल भी कुछ खास नहीं है. साथ में सेक्यूरिटी थ्रेट, राजनीतिक प्रेशर, जॉब जाने का डर भी.
चलिए लोग ज्यादा घंटे काम कर भी लें, लेकिन ओवर टाइम का क्या? सही सैलरी पैकेज का क्या? कम पैसे में काम करने वाले बेरोजगारों की कमी नहीं है, जिसका फायदा कंपनियां उठाती हैं. International Labour Organization (ILO) and the Institute for Human Development (IHD), की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2012 से 2022 के बीच भारत में regular salaried and self-employed person की "वास्तविक" कमाई में गिरावट आई है.
मनीकंट्रोल में छपे एक आर्टिकल के मुताबिक, भारत की टॉप पांच आईटी कंपनियों के CEO के सैलरी पिछले पांच सालों में 160% से ज्यादा बढ़ी है, जबकि इसी दौरान फ्रेशर की सैलरी में 4% से भी कम की बढ़ोतरी हुई है.
इन सबके बीच एक और बहस छिड़ी हुई है. वर्क लाइफ बैलेंस. कई लोग तो कह रहे हैं कि वर्क-लाइफ बैलेंस किस चिड़िया का नाम है. हाल ही में ओला (Ola) के सीईओ भविष अग्रवाल का एक पुराना वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह शनिवार और रविवार की छुट्टी को वेस्टर्न कल्चर का हिस्सा बता रहे थे. कह रहे थे ये तो भारतीय चीज है नहीं. उन्होंने कहा,
"मुझे नहीं लगता कि वर्क लाइफ बैलेंस सही कॉन्सेप्ट है." लेकिन सर छुट्टी का कॉन्सेप्ट कहीं है या नहीं?
Randstad की वर्क लाइफ बैलेंस इंडेक्स 2024 रिपोर्ट के मुताबिक, वर्क लाइफबैलेंस के मामले में यूरोप सबसे आगे है. भारत इसकी रैंकिग में 43वें नंबर पर है. हां इस बात से आप खुश हो सकते हैं कि अमेरिका 53वें नंबर पर है. इसमें स्कोरिंग minimum wage, sick leave, maternity leave, healthcare availability, public happiness, average working hours से निर्धारित किया जाता है.
द क्विंट के लिए अपने आर्टिकल में लंदन बिजनेस स्कूल से स्लोअन फेलो प्रबल बसु रॉय लिखते हैं कि ग्लोबल लेवल पर सबसे ज्यादा प्रोडक्टिविटी वाले टॉप 10 देशों में स्विट्जरलैंड, आयरलैंड, स्वीडन, नीदरलैंड और जर्मनी शामिल हैं - और ये सभी देश हफ्ते में ज्यादा से ज्यादा 40 घंटे काम करते हैं. प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए टेकनोलॉजी, एजुकेशन,पूंजी और स्किल डेवल्पमेंट पर फोकस करना चाहिए.
एक और अहम बात जिसकी चर्चा भारत में नहीं होती है. वर्क लोड की वजह से बर्नआउट, डिप्रेशन, एल्गजाइटी. साल 2022 में mckinsey health institute ने 15000 इंप्लॉई पर सर्वे किया था.
जिसमें पाया गा कि 40 फीसदी इंप्लॉई ने anxiety, depression की बात कही है. मेडीबडी और सीआईआई सर्वे में पाया गया कि 62% भारतीय कर्मचारी बर्नआउट का अनुभव करते हैं - ग्लोबल ऑसत 20% से तीन गुना ज्यादा.
सैलरीड इंप्लॉई और इनफॉर्मल सेक्टर में काम करने वाले की परेशानी अलग है, लेकिन डर एक ही है. सैलरीड क्लास को नौकरी जाने का डर है तो इनफॉर्मल सेक्टर में काम करने वाले को रोजाना काम न मिल पाने की उलझन. हॉलीडे, सड़क बंद, बाढ़, बारिश, कुछ भी हुआ तो इनफॉर्मल सेक्टर वाले का दिन बर्बाद होगा... वो पैसे की आस में वर्क लाइफ बैलेंस शायद जानता ही नहीं है. लेकिन बड़े-बड़े सीईओ ये जानते हैं.
बेहतर सैलरी, ओवर टाइम का पैसा, मेंटल पीस, हेल्थ सपोर्ट, स्कून वाला वर्क कल्चर देकर देखिए, वर्किंग आवर से ज्यादा क्वालिटी वर्क पर बात कीजिए, फिर भारत की प्रोक्टिविटी को बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा. नहीं तो लोग पूछेंगे जनाब ऐसे कैसे?