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'दवाओं तक पहुंच आसान बनाएं, टीबी से जुड़े स्टिग्मा को खत्म करें': मीरा यादव

दुनिया में ट्यूबर्क्युलोसिस के सबसे ज्यादा मामले भारत में हैं, हालांकि देश का लक्ष्य 2025 तक इसे पूरी तरह खत्म करने का है.

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33 साल की मीरा यादव का केवल एक फेफड़ा काम कर रहा है. उन्होंने एक्सट्रीमली ड्रग-रेजिस्टेंट ट्यूबरक्लोसिस (XDR-TB) के साथ करीब छह साल तक संघर्ष किया, जिस दौरान वे अपने बेटे से अलग रहीं और उनकी बीमारी के कारण उनके साथ भेदभाव किया गया...

लेकिन उनके जैसे ट्यूबरक्लोसिस से जूझ रहे लोगों के लिए इनमें से किसी भी चीज ने उन्हें दवा तक आसान पहुंच के लिए लड़ने से नहीं रोका.

दुनिया भर में ट्यूबरक्लोसिस के मामले सबसे ज्यादा भारत में हैं. देश का लक्ष्य है अगले दो वर्षों में इस बीमारी को पूरी तरह खत्म कर देने का.

दो दवाएं - बेडाक्विलिन और डेलामानिड - जिन्हें भारत में XDR-TB के इलाज के लिए रेजिमेन में जोड़ा गया है और जिनसे मीरा यादव का जीवन बदल गया है. ये भारत में इस बीमारी से निपटने में एक गेम-चेंजर हैं.

मीरा यादव आशा, रेजिलियन्स और कैसे हर किसी को प्रभावी दवाओं तक आसान पहुंच का अधिकार होना चाहिए, की एक कहानी हैं.

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सही दवाओं का अभाव

2013 में, कई महीनों तक बीमार रहने के बाद, डाइग्नोसिस किया गया कि 27 वर्षीय मीरा यादव को मल्टी-ड्रग रेजिस्टेंट ट्यूबरक्लोसिस (MDR-TB) है. उन्होंने एक निजी अस्पताल में इलाज शुरू किया, लेकिन जल्द ही समझ आ गया कि उनका परिवार ज्यादा दिनों तक उनका इलाज वहां पर नहीं कर पाएगा.

"मुझमें डाइग्नोस होने से पहले कई महीनों तक खांसी और बुखार जैसे लक्षण थे. पहले डाइग्नोसिस MDR-TB का था, लेकिन बाद में यह XDR-TB में बदल गया. एक निजी अस्पताल में प्रारंभिक उपचार में न केवल 3 से 4 लाख रुपये का खर्च आया, मैं बेहतर भी नहीं हो रही थी."
मीरा यादव ने फिट को बताया

उन्होंने बताया, "2015 में, जब डॉक्टरों ने मुझे बताया कि मुझे XDR-TB है, तो मुझे नहीं पता था कि इसका क्या मतलब है. मैं DOT केंद्रों का दौरा करती थी, और एक दिन में लगभग 15 गोलियां लेती थी. लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ. मुझे केवल बुरा महसूस होता था. तभी डॉक्टरों ने सुझाव देना शुरू किया कि मैं अपना दाहिना फेफड़ा पूरी तरह से निकलवा दूं."

जब आपको सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया जाता है, तो कोई आपका समर्थन नहीं करता

न केवल मीरा यादव के हेल्थ पर असर पड़ा, बल्कि उन्हें अपने परिवार और दोस्तों से साइको-सोशल और मेंटल हेल्थ सपोर्ट भी नहीं मिला.

यादव बताती हैं,

"जिस समय मुझे पता चला, मेरा बेटा चार महीने का था. मुझे उससे पूरी तरह से अलग कर दिया गया था क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उसे मुझसे टीबी फैले. मैंने उसके जीवन के कई साल गंवा दिए और मुझपर इसका गहरा प्रभाव पड़ा. बेहतर होने के लिए मुझे अपने पिता के घर में शिफ्ट होना पड़ा. जब मुझे डॉक्टर की अपॉइंटमेंट मिलती थी, तो मुझे अकेली ही जाना पड़ता था."

उन्होंने आगे कहा, "दवाओं के कारण मेरी त्वचा का रंग इस तरह खराब हो गया कि मेरी त्वचा पर लाल और काले धब्बे पड़ गए. हर कोई मुझसे पूछता था कि मैं ऐसी क्यों दिख रही हूं, या मुझे कौन सी बीमारी है. कोई मेरे पास नहीं आना चाहता था. मैंने भी इन कारणों से खुद को अलग करना शुरू कर दिया और केवल मेडेसिन्स सैन्स फ्रंटियर्स जैसे मानवतावादी (humanitarian) संगठन ही थे जो मेरे साथ खड़े थे."

फेफड़े का ऑपरेशन भी उम्मीद के मुताबिक नहीं हुआ. हर 15 दिन में, उन्हें इंटरकोस्टल ड्रेनेज ट्यूब बदलनी पड़ती थी, जो उसके फेफड़ों में जमा लिक्विड को निकालने के लिए डाली गई थी.

बेडाक्विलिन और डेलामानिड के बाद जीवन कैसे बदल गया

कई वर्षों के संघर्ष के बाद, मीरा यादव मानवीय संगठनों की मदद से विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्राधिकरण (FDA) द्वारा अप्रूव्ड बेडाक्विलिन और डेलामानिड तक पहुंचने में सक्षम हुईं.

यादव ने फिट को बताया, "इससे मेरी बीमारी और जिंदगी दोनों बदल गए. इन दवाओं ने मेरी जान बचाई."

2020 में, महामारी के दौरान, मीरा यादव और NGO जन स्वास्थ्य अभियान ने बॉम्बे हाई कोर्ट में एक पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन फाइल की, जिसमें सरकार को बेडाक्विलिन और डेलामानिड के नॉन-कमर्शियल प्रोडक्ट को अनुमति देने के लिए मांग की गई, जो MDR-TB के इलाज के लिए आवश्यक हैं.

उनकी पेटिशन महत्वपूर्ण क्यों है?

PIL फाइल होने के बाद, भारत में दो अलग-अलग दवा कंपनियों ने दवाओं के निर्माण का काम शुरू किया. फिर इन दवाओं को सरकार को दान के रूप में दिया गया और मरीजों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया गया.

"लेकिन रोगियों की संख्या अधिक होने के कारण, दवाएं नियमित रूप से उपलब्ध नहीं होती थीं, जिसके कारण इलाज में देरी होती थी. इसलिए अगर केंद्र दूसरे निर्माताओं को पेटेंट देकर ऑथराइज करता है, तो कमी को पूरा किया जा सकेगा," यादव कहती हैं.

लेकिन एक और टीबी दवा भी है, जिसे बाजार में लाया जा रहा है. टीबी एलायंस, एक नॉन-प्रॉफिट संगठन, द्वारा विकसित, प्रीटोमेनिड, जिसे BPaL रेजिमेन में प्रिस्क्राइब किया गया है, में दो दवाएं शामिल हैं - बेडाक्विलिन और लाइनजोलिड.

इस दवा से ट्रीटमेंट की अवधि आधे से भी अधिक कम होने की संभावना है. अनुमानित 18-24 महीने से कम होकर लगभग छह महीने. हर दिन आवश्यक गोलियों की संख्या में भी काफी कटौती होने की संभावना है.

इससे न केवल प्रभावी इलाज में मदद मिलेगी, बल्कि यह कमी को दूर करने का भी एक साधन है. इस साल मार्च से, भारत को टीबी दवाओं की कमी का सामना करना पड़ रहा है. यह मामला हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स, रोगियों और कार्यकर्ताओं द्वारा बार-बार उठाया जा रहा है. मीरा यादव भी उनमें से एक रही हैं.

"टीबी एक इलाज योग्य बीमारी है. जितने अधिक लोगों की बेहतर और अधिक प्रभावी दवाओं तक पहुंच होगी, उतना ही यह स्टिग्मा को खत्म करने और लोगों को जल्दी बेहतर होने में मदद करेगा."
मीरा यादव ने फिट को बताया
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