बुधवार, 20 दिसंबर को संसद में पारित नई भारतीय न्याय संहिता (BNS) के अनुसार, अब डॉक्टरों को कथित मेडिकल नेग्लिजेंस के मामलों में "क्रिमिनल प्रॉसिक्यूशन" से छूट दी जाएगी, जब किसी मरीज की मृत्यु हो जाती है.
मेडिकल फ्रटर्निटी इस "क्रिमिनलाइजेशन" की सराहना कर रहा है. लेकिन जो लोग मेडिकल नेग्लिजेंस के शिकार हुए हैं वे इस अमेंडमेंट को लेकर चौराहे पर हैं.
डॉक्टरों और पब्लिक हेल्थ के लिए इसका क्या मतलब है, यह समझने के लिए द क्विंट ने एक्सपर्ट्स से बात की.
Medical Negligence को 'अपराध की श्रेणी से बाहर' किया गया, एक्सपर्ट्स की राय
1. नया कानून क्या कहता है?
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में घोषणा की कि नया क्रिमिनल लॉ बिल उन मामलों में डॉक्टरों को प्रॉसिक्यूशन से छूट देगा जहां कथित मेडिकल नेग्लिजेंस के कारण मरीज की मौत हो जाती है.
“वर्तमान में, अगर किसी डॉक्टर की लापरवाही के कारण कोई मौत होती है, तो इसे भी मेडिकल नेग्लिजेंस माना जाता है, लगभग हत्या के समान. इसलिए, मैं डॉक्टरों को इस मेडिकल नेग्लिजेंस से फ्री करने के लिए एक ऑफिशियल अमेंडमेंट लाऊंगा. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने हमसे इस मामले पर गौर करने का आग्रह किया था."
अमित शाह ने लोकसभा में कहाकानून असल में क्या कहता है?
भारतीय दंड संहिता की धारा 304A, जो पहले लागू थी, कहती थी, "जो कोई भी बिना सोचे-समझे या लापरवाही से कोई ऐसा कार्य करके किसी व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, जो गैर इरादतन हत्या की श्रेणी में नहीं आता है, उसे दो साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा."
लेकिन नए संशोधन के साथ, मेडिकल नेग्लिजेंस अभी भी दंडनीय है "किसी भी अवधि के लिए कारावास जिसे 2 साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है."
हालांकि, इसमें आईपीसी की धारा 304A की तरह हत्या जैसे आपराधिक आरोप नहीं लगेंगे.
पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट डॉ. पूजा त्रिपाठी द क्विंट से कहती हैं, "मेडिकल नेग्लिजेंस की पूरी तरह से जांच की जानी चाहिए. सजा और रिजल्ट होने चाहिए, लेकिन क्रिमिनल चार्जेस नहीं."
नया कानून यही करता है. यह क्रिमिनल नेग्लिजेंस और मेडिकल नेग्लिजेंस में अंतर करता है और केवल डॉक्टरों पर आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट प्रदान करता है.
Expand2. चिकित्सा बिरादरी ने फैसले की सराहना की
30 नवंबर को, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने केंद्र को पत्र लिखकर इसी संशोधन का आग्रह किया था.
आईएमए(IMA), फेडरेशन ऑफ रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन, एसोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकोज और फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया मेडिकल एसोसिएशन जैसे मेडिकल ऑर्गेनाइजेशंस ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर इस फैसले की सराहना की.
Expand3. 'निराश': मेडिकल नेग्लिजेंस के शिकार
लेकिन मुंबई निवासी मालविका दलवी (24) का कहना है कि मेडिकल नेग्लिजेंस का परिणाम भुगतने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए नया अमेंडमेंट "निराशाजनक" है.
इसी साल 20 जून को उनकी मां कविता दलवी का एक निजी अस्पताल में निधन हो गया. 5 जून को कविता को अस्पताल में हार्ट वाल्व बदलने के लिए ओपन हार्ट सर्जरी कराने के लिए भर्ती कराया गया था.
“मेरी मां की ओपन हार्ट सर्जरी हुई थी जहां एक खराब वाल्व डाला गया था. फिर जटिलताएं पैदा होने पर उसी डॉक्टर ने उनका एक और ऑपरेशन किया और उनकी मौत हो गई. मेरी मां युवा थीं और उन्हें कोई दूसरी गंभीर बीमारियां नहीं थीं और जोखिम भी न्यूनतम था, ऐसा डॉक्टर ने खुद हमें बताया था.”
मालविका दलवीकविता के पति विकास दलवी ने द क्विंट से कहा, ''हमारे साथ जो हुआ उसे छह महीने बीत चुके हैं. फिर भी कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई.”
मालविका का कहना है कि परिवार अभी भी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट और हॉस्पिटल कमिटी की रिपोर्ट का इंतजार कर रहा है. वह कहती हैं कि उन्हें बताया गया है कि मामले की जांच चल रही है.
लगभग उसी समय जब इस साल जून में कविता का निधन हुआ, हैदराबाद की रहने वाली शिल्पा रेड्डी दुतला ने एक स्त्री रोग विशेषज्ञ के खिलाफ सात साल की कानूनी लड़ाई जीती, जिसे दुतला की मां का इलाज करते समय मेडिकल नेग्लिजेंस का दोषी ठहराया गया था.
दुतला ने डेक्कन क्रॉनिकल को बताया,
"मैं डॉक्टर से केवल उनकी गंभीर गलती को मानने, माफी मंगाने और उसके लिए पश्चाताप का भाव चाहता था. केस जीतने के बाद भी मुझे उनमें ऐसा कुछ नहीं मिला. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं केस जीतना चाहता था. ऐसी लापरवाही के बारे में जागरूकता और लोगों को अपनी आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहता था."
जागरूकता बढ़ाने की इच्छा रखने वाले दुतला भी सही है क्योंकि ये मामले असामान्य नहीं हैं.
राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (National Consumer Disputes Redressal Commission) ने अप्रैल 2023 में, कोलकाता के एक निजी अस्पताल और दो डॉक्टरों को 37 वर्षीय कुंतल चौधरी के परिवार को मुआवजा देने का आदेश दिया, क्योंकि जुलाई 2008 में "जानबूझकर की गई लापरवाही" के कारण उन दो डॉक्टरों की देखरेख में उनकी मृत्यु हो गई थी. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, न्याय पाने से पहले परिवार ने 15 साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, अक्टूबर में, दिल्ली राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (Delhi State Consumer Disputes Redressal Commission) ने भी एक निजी अस्पताल को 9 लाख रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया था, क्योंकि तीन डॉक्टर मरीज को पर्याप्त उपचार प्रदान करने में विफल रहे थे.
“यह सिस्टम डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए है. अगर उसे दंडित नहीं किया गया तो डॉक्टरों को लापरवाही बरतने से कौन रोक रहा है? या फिर उन्हें किस बात के लिए जवाबदेह ठहराया जा रहा है? मेडिकल नेग्लिजेंस होने पर जिम्मेदारी कौन लेगा?”
मालविका दलवी द क्विंट से बात करते हुएExpand4. 'डॉक्टरों को निडर होकर काम करने में मदद मिलेगी, डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा कम हो सकती है'
हालांकि, पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट्स का मानना है कि ऐसा नहीं है क्योंकि अगर कथित मेडिकल नेग्लिजेंस का कोई मामला सामने आता है, तो डॉक्टरों की जांच अभी भी की जाएगी.
द क्विंट से बात करते हुए, छत्तीसगढ़ सरकार में हेल्थ डिपार्टमेंट के पूर्व जॉइंट डायरेक्टर, डॉ. राजेश शर्मा कहते हैं:
“डॉक्टरों पर धारा 304A का आरोप लगाया गया और अगर उनकी देखरेख में किसी मरीज की मृत्यु हो गई तो उन पर हत्या के मामले की तरह मुकदमा चलाया गया. डॉक्टर अब भयमुक्त होकर काम कर सकेंगे और जब डॉक्टर अपनी जान की परवाह किए बिना मरीजों का इलाज कर सकते हैं, तो उन्हें मरीजों का बेहतर इलाज करने और बेहतर देखभाल प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा.''
डॉ. त्रिपाठी, डॉ. शर्मा से सहमत हैं.
वह कहती हैं, “मेडिकल क्षेत्र ही एकमात्र ऐसा पेशा है, जहां जीवन और मृत्यु जितना बड़ा जोखिम है. डॉक्टर का कभी भी हत्या करने का इरादा नहीं होता है, मेडिकल नेग्लिजेंस किसी भी मामले में हो सकती है, भले ही डॉक्टर अपना 100% प्रयास कर रहे हों.''
डॉ. त्रिपाठी आगे कहते हैं कि डॉक्टरों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को देखते हुए यह एक वेलकम मूव कदम है. इस साल 10 मई को, 22 वर्षीय हाउस सर्जन डॉ. वंदना दास पर एक मरीज ने हमला किया, जिससे डॉक्टर की केरल के कोट्टाराक्करा तालुक अस्पताल में मौत हो गई.
यह कोई अकेली घटना नहीं थी. मई में द क्विंट से बात करते हुए, आईएमए केरल के अध्यक्ष डॉ. सल्फी एन ने दावा किया कि पिछले तीन वर्षों में केरल में डॉक्टरों के खिलाफ 200 से अधिक हमले हुए हैं.
एक नोट-फॉर-प्रॉफिट ऑर्गेनाइजेशन इनसिक्योरिटी इनसाइट ने 2021 में बताया था कि 2020 में स्वास्थ्य कर्मियों के खिलाफ 133 हमले हुए, जिस वर्ष भारत COVID-19 महामारी और लॉकडाउन से जूझ रहा था.
डॉ. त्रिपाठी के मुताबिक, लेकिन इसके दूसरे कारण भी हैं. वह कहती हैं, एक तो यह कि डॉक्टरों और उनकी प्रतिष्ठा को गलत तरीके से धूमिल किया जा सकता है. लेकिन असल में आईपीसी में भी ऐसा नहीं था.
पुराने कानून के मुताबिक, मेडिकल नेग्लिजेंस के मामलों में सबूत देने का भार मरीज पर होता था।
इस साल की शुरुआत में लखनऊ के एक वकील अरीब उद्दीन अहमद ने द क्विंट को बताया कि एक मरीज या उनके परिजनों को यह साबित करना होगा कि डॉक्टर-रोगी का रिश्ता मौजूद है, कि डॉक्टर का "देखभाल का कर्तव्य है", कि उन्होंने उस कर्तव्य का उल्लंघन किया है और रोगी को "चोट या हानि" पहुंचाई गई थी.
हालांकि, ऐसे मामलों में जहां मेडिकल नेग्लिजेंस स्पष्ट होती है, रेस इप्सा लोकिटुर(Res Ipsa Loquitur) यानी बात खुद ही बोलती है, का सिद्धांत आकर्षित होता है.
हालांकि, अब जब कानून में संशोधन किया गया है, तो डॉ. त्रिपाठी का कहना है कि इससे मेडिकल पेशेवरों के लिए चीजें बेहतर हो सकती हैं. वह यह भी कहती हैं कि, कई बार, डॉक्टरों के पास अपने डिस्पोजल के लिए रिर्सोसेस नहीं होते हैं, जैसे कि जब एक डॉक्टर को छोटे गांवों या जिला अस्पतालों में तैनात किया जाता है.
“क्या पब्लिक हेल्थ सिस्टम में मेडिकल नेग्लिजेंस एक डॉक्टर की गलती हो सकती है? क्या उन्हें अपराधी करार दिया जाना चाहिए?”
डॉ. पूजा त्रिपाठीExpand
नया कानून क्या कहता है?
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में घोषणा की कि नया क्रिमिनल लॉ बिल उन मामलों में डॉक्टरों को प्रॉसिक्यूशन से छूट देगा जहां कथित मेडिकल नेग्लिजेंस के कारण मरीज की मौत हो जाती है.
“वर्तमान में, अगर किसी डॉक्टर की लापरवाही के कारण कोई मौत होती है, तो इसे भी मेडिकल नेग्लिजेंस माना जाता है, लगभग हत्या के समान. इसलिए, मैं डॉक्टरों को इस मेडिकल नेग्लिजेंस से फ्री करने के लिए एक ऑफिशियल अमेंडमेंट लाऊंगा. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने हमसे इस मामले पर गौर करने का आग्रह किया था."अमित शाह ने लोकसभा में कहा
कानून असल में क्या कहता है?
भारतीय दंड संहिता की धारा 304A, जो पहले लागू थी, कहती थी, "जो कोई भी बिना सोचे-समझे या लापरवाही से कोई ऐसा कार्य करके किसी व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, जो गैर इरादतन हत्या की श्रेणी में नहीं आता है, उसे दो साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा."
लेकिन नए संशोधन के साथ, मेडिकल नेग्लिजेंस अभी भी दंडनीय है "किसी भी अवधि के लिए कारावास जिसे 2 साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है."
हालांकि, इसमें आईपीसी की धारा 304A की तरह हत्या जैसे आपराधिक आरोप नहीं लगेंगे.
पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट डॉ. पूजा त्रिपाठी द क्विंट से कहती हैं, "मेडिकल नेग्लिजेंस की पूरी तरह से जांच की जानी चाहिए. सजा और रिजल्ट होने चाहिए, लेकिन क्रिमिनल चार्जेस नहीं."
नया कानून यही करता है. यह क्रिमिनल नेग्लिजेंस और मेडिकल नेग्लिजेंस में अंतर करता है और केवल डॉक्टरों पर आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट प्रदान करता है.
चिकित्सा बिरादरी ने फैसले की सराहना की
30 नवंबर को, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने केंद्र को पत्र लिखकर इसी संशोधन का आग्रह किया था.
आईएमए(IMA), फेडरेशन ऑफ रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन, एसोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकोज और फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया मेडिकल एसोसिएशन जैसे मेडिकल ऑर्गेनाइजेशंस ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर इस फैसले की सराहना की.
'निराश': मेडिकल नेग्लिजेंस के शिकार
लेकिन मुंबई निवासी मालविका दलवी (24) का कहना है कि मेडिकल नेग्लिजेंस का परिणाम भुगतने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए नया अमेंडमेंट "निराशाजनक" है.
इसी साल 20 जून को उनकी मां कविता दलवी का एक निजी अस्पताल में निधन हो गया. 5 जून को कविता को अस्पताल में हार्ट वाल्व बदलने के लिए ओपन हार्ट सर्जरी कराने के लिए भर्ती कराया गया था.
“मेरी मां की ओपन हार्ट सर्जरी हुई थी जहां एक खराब वाल्व डाला गया था. फिर जटिलताएं पैदा होने पर उसी डॉक्टर ने उनका एक और ऑपरेशन किया और उनकी मौत हो गई. मेरी मां युवा थीं और उन्हें कोई दूसरी गंभीर बीमारियां नहीं थीं और जोखिम भी न्यूनतम था, ऐसा डॉक्टर ने खुद हमें बताया था.”मालविका दलवी
कविता के पति विकास दलवी ने द क्विंट से कहा, ''हमारे साथ जो हुआ उसे छह महीने बीत चुके हैं. फिर भी कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई.”
मालविका का कहना है कि परिवार अभी भी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट और हॉस्पिटल कमिटी की रिपोर्ट का इंतजार कर रहा है. वह कहती हैं कि उन्हें बताया गया है कि मामले की जांच चल रही है.
लगभग उसी समय जब इस साल जून में कविता का निधन हुआ, हैदराबाद की रहने वाली शिल्पा रेड्डी दुतला ने एक स्त्री रोग विशेषज्ञ के खिलाफ सात साल की कानूनी लड़ाई जीती, जिसे दुतला की मां का इलाज करते समय मेडिकल नेग्लिजेंस का दोषी ठहराया गया था.
दुतला ने डेक्कन क्रॉनिकल को बताया,
"मैं डॉक्टर से केवल उनकी गंभीर गलती को मानने, माफी मंगाने और उसके लिए पश्चाताप का भाव चाहता था. केस जीतने के बाद भी मुझे उनमें ऐसा कुछ नहीं मिला. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं केस जीतना चाहता था. ऐसी लापरवाही के बारे में जागरूकता और लोगों को अपनी आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहता था."
जागरूकता बढ़ाने की इच्छा रखने वाले दुतला भी सही है क्योंकि ये मामले असामान्य नहीं हैं.
राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (National Consumer Disputes Redressal Commission) ने अप्रैल 2023 में, कोलकाता के एक निजी अस्पताल और दो डॉक्टरों को 37 वर्षीय कुंतल चौधरी के परिवार को मुआवजा देने का आदेश दिया, क्योंकि जुलाई 2008 में "जानबूझकर की गई लापरवाही" के कारण उन दो डॉक्टरों की देखरेख में उनकी मृत्यु हो गई थी. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, न्याय पाने से पहले परिवार ने 15 साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, अक्टूबर में, दिल्ली राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (Delhi State Consumer Disputes Redressal Commission) ने भी एक निजी अस्पताल को 9 लाख रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया था, क्योंकि तीन डॉक्टर मरीज को पर्याप्त उपचार प्रदान करने में विफल रहे थे.
“यह सिस्टम डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए है. अगर उसे दंडित नहीं किया गया तो डॉक्टरों को लापरवाही बरतने से कौन रोक रहा है? या फिर उन्हें किस बात के लिए जवाबदेह ठहराया जा रहा है? मेडिकल नेग्लिजेंस होने पर जिम्मेदारी कौन लेगा?”मालविका दलवी द क्विंट से बात करते हुए
'डॉक्टरों को निडर होकर काम करने में मदद मिलेगी, डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा कम हो सकती है'
हालांकि, पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट्स का मानना है कि ऐसा नहीं है क्योंकि अगर कथित मेडिकल नेग्लिजेंस का कोई मामला सामने आता है, तो डॉक्टरों की जांच अभी भी की जाएगी.
द क्विंट से बात करते हुए, छत्तीसगढ़ सरकार में हेल्थ डिपार्टमेंट के पूर्व जॉइंट डायरेक्टर, डॉ. राजेश शर्मा कहते हैं:
“डॉक्टरों पर धारा 304A का आरोप लगाया गया और अगर उनकी देखरेख में किसी मरीज की मृत्यु हो गई तो उन पर हत्या के मामले की तरह मुकदमा चलाया गया. डॉक्टर अब भयमुक्त होकर काम कर सकेंगे और जब डॉक्टर अपनी जान की परवाह किए बिना मरीजों का इलाज कर सकते हैं, तो उन्हें मरीजों का बेहतर इलाज करने और बेहतर देखभाल प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा.''
डॉ. त्रिपाठी, डॉ. शर्मा से सहमत हैं.
वह कहती हैं, “मेडिकल क्षेत्र ही एकमात्र ऐसा पेशा है, जहां जीवन और मृत्यु जितना बड़ा जोखिम है. डॉक्टर का कभी भी हत्या करने का इरादा नहीं होता है, मेडिकल नेग्लिजेंस किसी भी मामले में हो सकती है, भले ही डॉक्टर अपना 100% प्रयास कर रहे हों.''
डॉ. त्रिपाठी आगे कहते हैं कि डॉक्टरों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को देखते हुए यह एक वेलकम मूव कदम है. इस साल 10 मई को, 22 वर्षीय हाउस सर्जन डॉ. वंदना दास पर एक मरीज ने हमला किया, जिससे डॉक्टर की केरल के कोट्टाराक्करा तालुक अस्पताल में मौत हो गई.
यह कोई अकेली घटना नहीं थी. मई में द क्विंट से बात करते हुए, आईएमए केरल के अध्यक्ष डॉ. सल्फी एन ने दावा किया कि पिछले तीन वर्षों में केरल में डॉक्टरों के खिलाफ 200 से अधिक हमले हुए हैं.
एक नोट-फॉर-प्रॉफिट ऑर्गेनाइजेशन इनसिक्योरिटी इनसाइट ने 2021 में बताया था कि 2020 में स्वास्थ्य कर्मियों के खिलाफ 133 हमले हुए, जिस वर्ष भारत COVID-19 महामारी और लॉकडाउन से जूझ रहा था.
डॉ. त्रिपाठी के मुताबिक, लेकिन इसके दूसरे कारण भी हैं. वह कहती हैं, एक तो यह कि डॉक्टरों और उनकी प्रतिष्ठा को गलत तरीके से धूमिल किया जा सकता है. लेकिन असल में आईपीसी में भी ऐसा नहीं था.
पुराने कानून के मुताबिक, मेडिकल नेग्लिजेंस के मामलों में सबूत देने का भार मरीज पर होता था।
इस साल की शुरुआत में लखनऊ के एक वकील अरीब उद्दीन अहमद ने द क्विंट को बताया कि एक मरीज या उनके परिजनों को यह साबित करना होगा कि डॉक्टर-रोगी का रिश्ता मौजूद है, कि डॉक्टर का "देखभाल का कर्तव्य है", कि उन्होंने उस कर्तव्य का उल्लंघन किया है और रोगी को "चोट या हानि" पहुंचाई गई थी.
हालांकि, ऐसे मामलों में जहां मेडिकल नेग्लिजेंस स्पष्ट होती है, रेस इप्सा लोकिटुर(Res Ipsa Loquitur) यानी बात खुद ही बोलती है, का सिद्धांत आकर्षित होता है.
हालांकि, अब जब कानून में संशोधन किया गया है, तो डॉ. त्रिपाठी का कहना है कि इससे मेडिकल पेशेवरों के लिए चीजें बेहतर हो सकती हैं. वह यह भी कहती हैं कि, कई बार, डॉक्टरों के पास अपने डिस्पोजल के लिए रिर्सोसेस नहीं होते हैं, जैसे कि जब एक डॉक्टर को छोटे गांवों या जिला अस्पतालों में तैनात किया जाता है.
“क्या पब्लिक हेल्थ सिस्टम में मेडिकल नेग्लिजेंस एक डॉक्टर की गलती हो सकती है? क्या उन्हें अपराधी करार दिया जाना चाहिए?”डॉ. पूजा त्रिपाठी