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देश के चार राज्यों की पांच विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे उम्मीद के मुताबिक ही रहे, सिवाय एक सीट के. उपचुनाव के नतीजे इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पहलगाम आतंकी हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बाद यह पहला चुनाव था. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार के बाद भी ये पहला चुनाव था, इसलिए ये पार्टी के लिए खास तौर पर मायने रखता है.
नतीजों पर एक नजर:
उपचुनाव के नतीजों के क्या मायने हैं? इसका राष्ट्रीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इस आर्टिकल में हम इन सवालों के जवाब देने की कोशिश करेंगे.
यह उपचुनावों में शायद सबसे महत्वपूर्ण परिणाम है, जिसमें आम आदमी पार्टी के गोपाल इटालिया ने 17,000 से अधिक वोटों से जीत हासिल की है. यह सीट AAP विधायक भूपेंद्रभाई भयानी, जिन्हें भूपत भयानी के नाम से भी जाना जाता है, के इस्तीफे और बीजेपी में शामिल होने के बाद खाली हुई थी.
पिछले कुछ सालों में गुजरात में हुए ज्यादातर उपचुनावों में बीजेपी का दबदबा रहा है और पार्टी को विसावदर में जीत का पूरा भरोसा था. वैसे तो पार्टी ने 2022 के विधानसभा चुनावों में विपक्ष को धूल चटा दी थी, लेकिन विपक्षी विधायकों के पार्टी में शामिल होने से पार्टी की स्थिति और मजबूत हुई.
ये पहलू AAP की जीत और बीजेपी की हार को खास तौर पर महत्वपूर्ण बनाते हैं. यह भी महत्वपूर्ण है कि इटालिया ने 2022 में AAP की तुलना में बड़े अंतर से जीत हासिल की है.
सौराष्ट्र के मध्य में जूनागढ़ जिले की विसावदर गुजरात में एक तरह से असामान्य सीट है. यह उन कुछ सीटों में से एक है, जहां बीजेपी लगातार जीत हासिल करने में विफल रही है. पिछली बार पार्टी ने यह सीट 2007 में जीती थी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना दूसरा कार्यकाल जीता था.
पटेल के बीजेपी में वापस आने के बाद भी यह सीट पार्टी के हाथ से निकल गई क्योंकि उनके इस्तीफे के बाद हुए उपचुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल की. करीब तीन दशक में यह पहली बार था जब कांग्रेस ने यह सीट जीती थी. 2022 में इस सीट पर AAP ने कब्जा जमाया.
मुख्य रूप से विसावदर एक ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र है, जहां पाटीदार समुदाय का वर्चस्व है. इस सीट पर परंपरागत रूप से लेउवा पाटीदार उम्मीदवारों को चुना जाता रहा है, और केशुभाई पटेल दशकों तक इस समुदाय के सबसे प्रभावशाली नेता बने रहे.
गोपाल इटालिया भी एक लेउवा पाटीदार हैं और पाटीदार आरक्षण आंदोलन का हिस्सा रहे हैं.
उनकी जीत और बीजेपी की हार यह संकेत देती है कि ग्रामीण पाटीदारों के बीच बीजेपी के प्रति असंतोष है. यह असंतोष खासकर सौराष्ट्र क्षेत्र में अधिक गंभीर है, जहां कृषि संकट, पानी की कमी और रोजगार के अवसरों की कमी जैसी समस्याएं प्रमुख हैं.
महेसाणा जिले की कडी विधानसभा सीट का परिणाम अपेक्षित ही रहा, जहां बीजेपी के राजेंद्र चावड़ा ने लगभग 39,000 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की है. कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही, जबकि आम आदमी पार्टी (AAP) तीसरे स्थान पर रही.
यह सीट इस साल फरवरी में बीजेपी विधायक कर्षण सोलंकी के निधन के बाद खाली हुई थी.
पूर्व उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल इस सीट का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं, लेकिन बाद में यह सीट अनुसूचित जाति (SC) के लिए आरक्षित कर दी गई.
इस क्षेत्र की जनसांख्यिकी मिश्रित है, जिसमें पाटीदार, दलित और ओबीसी मतदाता बड़ी संख्या में मौजूद हैं. सौराष्ट्र के विपरीत, महेसाणा में पाटीदार मतदाता बीजेपी के साथ बने हुए हैं, और चुनाव परिणाम इस बात को दर्शाते हैं.
आम आदमी पार्टी को दो प्रतिशत से भी कम वोट मिलना यह दर्शाता है कि गुजरात में पार्टी का उभार समान रूप से नहीं हुआ है. पार्टी की पकड़ मुख्य रूप से ग्रामीण पाटीदार और आदिवासी वोटरों पर ही आधारित रही है.
कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के उम्मीदवार आर्यदान शौकत ने वाम डेमोक्रेटिक फ्रंट के प्रतिद्वंद्वी एम स्वराज को लगभग 11,000 वोटों के अंतर से हराकर यह सीट जीती है.
LDF समर्थित निर्दलीय पीवी अनवर के सीपीआई-एम के नेतृत्व वाले गठबंधन से अलग होने और विधायक पद से इस्तीफा देने के बाद यह सीट खाली हुई थी. अनवर ने तृणमूल कांग्रेस के समर्थन से निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा, लेकिन 20,000 से कुछ कम वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे.
शौकत और अनवर दोनों ही विचारधारा के आधार पर कांग्रेस समर्थक परिवारों से हैं. नीलांबुर केरल के उन कुछ इलाकों में से एक है, जहां कांग्रेस और उसकी सहयोगी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के बीच जमीनी स्तर पर मतभेद हैं. आर्यदम मोहम्मद की IUML विरोधी विरासत के बावजूद, शौकत और लीग इस चुनाव में अपने मतभेदों को भुलाने में कामयाब रहे.
IUML ने पहले पीवी अनवर को UDF में शामिल करने का समर्थन किया था और कांग्रेस नेतृत्व के एक वर्ग पर बातचीत को गलत तरीके से चलाने का आरोप लगाया था. यह जीत 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले UDF के लिए उत्साह बढ़ाने के रूप में देखी जा रही है.
यहां सबसे बड़ा झटका LDF को नहीं बल्कि पीवी अनवर को लगा है, जो आर्यदान शौकत के समान विचारधारा वाले उम्मीदवार हैं. यह स्पष्ट है कि UDF को इस सीट पर हराने का एकमात्र तरीका यह है कि अनवर और LDF साथ आएं और गैर-कांग्रेसी वोटों को एकजुट करें.
हालांकि, LDF सरकार के खिलाफ अनवर के आरोपों से सुलह की संभावना मुश्किल हो सकती है. अनवर के पास दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि वे UDF में शामिल हों और किसी अन्य सीट से चुनाव लड़ने पर विचार करें.
AAP के संजीव अरोड़ा ने कांग्रेस के भारत भूषण आशु को 10,000 से ज़्यादा वोटों से हराकर इस सीट पर कब्जा जमाया है. अरोड़ा एक प्रमुख उद्योगपति हैं और वे राज्यसभा में AAP के सांसद थे. इस साल जनवरी में AAP विधायक गुरप्रीत बस्सी गोगी के निधन के बाद यह सीट खाली हुई थी.
AAP की जीत कोई आश्चर्य की बात नहीं है. पंजाब में, उपचुनावों में सत्ताधारी पार्टी के जीतने का इतिहास रहा है. 2022 का संगरूर लोकसभा उपचुनाव एक अपवाद था क्योंकि यह सिद्धू मूसेवाला की हत्या के बाद हुआ था.
हालांकि, लुधियाना पश्चिम जैसी शहरी सीटों पर उपचुनावों में हमेशा राज्य में सत्ताधारी पार्टी को वोट देने का ट्रेंड रहा है.
हालांकि इस हार से कांग्रेस को निराशा हो सकती है, लेकिन पार्टी इस बात से संतोष कर सकती है कि वह 2022 के विधानसभा चुनावों में अपना वोट शेयर बरकरार रखने में सफल रही है. हालांकि, हार के बाद पार्टी में हलचल मच गई. नतीजों के तुरंत बाद आशु ने पंजाब कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. इससे यह अटकलें लगाई जा रही हैं कि क्या यह पंजाब कांग्रेस प्रमुख अमरिंदर सिंह राजा वारिंग के इस्तीफे के लिए दबाव बनाने की कोशिश है या फिर आशु बीजेपी में शामिल हो सकते हैं.
लोकसभा चुनाव में इस सीट पर बढ़त बनाने के बावजूद बीजेपी तीसरे स्थान पर रही. पार्टी जमानत बचाने में कामयाब रही और उसे 22 प्रतिशत वोट मिले.
भले ही SAD ने अपनी जमानत खो दी हो, लेकिन 2022 में मिला अपना वोट शेयर बरकरार रखने में कामयाब रही है. यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है क्योंकि पार्टी एक बड़े संगठनात्मक संकट से गुजरी है. लुधियाना के भीतर भी सुखबीर बादल और मनप्रीत अयाली के बीच मतभेदों के कारण इसे नुकसान हुआ है. कम से कम, यह परिणाम इस बात का संकेत जरूर देता है कि पार्टी किसी तरह के तेज पतन या संकट में नहीं है.
पश्चिम बंगाल के नादिया जिले की कालीगंज विधानसभा सीट से तृणमूल कांग्रेस की उम्मीदवार अलीफा अहमद ने जीत दर्ज की है. उन्होंने अपने बीजेपी प्रतिद्वंद्वी को 50,000 वोटों से हराया. यह सीट इस साल फरवरी में टीएमसी विधायक नसीरुद्दीन अहमद के निधन के कारण खाली हुई थी. अलीफा उनकी बेटी हैं.
नतीजे उम्मीद के मुताबिक ही हैं, क्योंकि पश्चिम बंगाल में भी सत्तारूढ़ दलों को उपचुनावों में बढ़त हासिल होती रही है.
नतीजे सिर्फ एक वजह से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि मुर्शिदाबाद सांप्रदायिक हिंसा के बाद यह पहली चुनावी लड़ाई थी. ऐसा लगता है कि हिंसा का मतदान पर कोई खास असर नहीं पड़ा है.
ये उपचुनाव मुख्यतः तीन कारणों से महत्वपूर्ण थे.
1. पहलगाम हमला और ऑपरेशन सिंदूर
ये चुनावी मुकाबले कई महत्वपूर्ण घटनाओं—जैसे पहलगाम आतंकी हमला, ऑपरेशन सिंदूर, मुर्शिदाबाद हिंसा और अहमदाबाद विमान हादसे—के बाद हुए. बीजेपी को ऑपरेशन सिंदूर के कारण जिस समर्थन में उछाल की उम्मीद रही होगी, वैसा असर दिखाई नहीं दिया. वास्तव में, सभी सीटों से मिले जमीनी संकेतों के अनुसार, मतदान मुख्य रूप से स्थानीय मुद्दों से ही प्रभावित रहा.
2. AAP की संभावनाएं और केजरीवाल की संसद में संभावित एंट्री
लुधियाना वेस्ट और विशेष रूप से विसावदर में मिली जीत आम आदमी पार्टी (AAP) के लिए काफी अहम मानी जा रही है. ये पार्टी की पहली बड़ी चुनावी परीक्षा थी, जो इस साल की शुरुआत में दिल्ली विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद सामने आई. इन दोनों सीटों पर पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने सक्रिय रूप से प्रचार किया था, और इन चुनावों में पार्टी की साख दांव पर लगी हुई थी.
इन जीतों से AAP अपने समर्थकों को यह भरोसा दिला सकेगी कि दिल्ली में मिली हार के बावजूद उसकी राष्ट्रीय विस्तार योजना जारी रहेगी. अगर अरविंद केजरीवाल संसद जाते हैं, तो यह और भी अधिक महत्वपूर्ण साबित होगा.
3. विधानसभा चुनाव
कालीगंज और नीलांबुर क्रमशः पश्चिम बंगाल और केरल की दो सीटें हैं, जहां अभी उपचुनाव हुए हैं. इन राज्यों में 2026 में विधानसभा चुनाव होने हैं. इन नतीजों के आधार पर विधानसभा चुनावों के बारे में अनुमान लगाने की अपनी सीमाएं हैं. मुख्य दलों ने उपचुनाव में अपने-अपने आधार के अनुसार वोट हासिल किए हैं.
कालीगंज और नीलांबुर दोनों ही ऐसी सीटें हैं जहां मुसलमानों की अच्छी खासी तादाद है. नतीजों से पश्चिम बंगाल में TMC और केरल में UDF के प्रति रुझान का संकेत मिलता है, जबकि वाम दल कुछ खास बढ़त बनाते नहीं दिख रहे हैं.
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