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बिहार (Bihar) में इस साल विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) होने हैं. लेकिन उससे पहले आरक्षण (Reservation) का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में है. हाल ही में पूर्व उपमुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी ने सड़क से लेकर सदन तक इस मुद्दे को उठाया. तेजस्वी ने नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार पर आरक्षण और नौकरी चोरी करने का आरोप लगाया.
हालांकि, आरक्षण के मुद्दे से प्रदेश की कास्ट पॉलिटिक्स यानी जातिगत राजनीति को हवा मिल गई है. ऐसे में समझने की कोशिश करते हैं कि आगामी विधानसभा चुनावों में जाति फैक्टर कितना अहम होगा. जातिगत समीकरण क्या कहते हैं? इंडिया गठबंधन और एनडीए में किसका पलड़ा भारी है? और आरक्षण की सीमा बढ़ाने को लेकर क्या है कानूनी पेंच?
बिहार की जाति समीकरण को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं. जून 2022 और अगस्त 2023 के बीच नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार ने प्रदेश में जातिगत सर्वेक्षण करवाया था. इस सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में अत्यंत पिछड़ा वर्ग की आबादी 36.01 फीसदी, पिछड़ा वर्ग की आबादी 27.12 फीसदी, अनुसूचित जाति की आबादी 19.65 फीसदी, अनुसूचित जनजाति की आबादी 1.68 फीसदी, वहीं अनारक्षित यानी सवर्ण वर्ग की आबादी 15.52 फीसदी है.
रिपोर्ट के अनुसार, यादव समुदाय सबसे बड़ा उप-समूह है, जो ओबीसी श्रेणी का 14.27 प्रतिशत है. सरकार का दावा था कि सर्वेक्षण सरकारी नीतियों को मजबूत करने के इरादे से किया गया था. सर्वे रिपोर्ट के आंकड़ें जारी होने के बाद प्रदेश में आरक्षण की सीमा बढ़ाने की भी मांग उठने लगी.
ओबीसी, एससी, एसटी और ईबीसी के लिए आरक्षण का कोटा इस तरह से बढ़ाकर 65 प्रतिशत किया गया था:
हालांकि, नवंबर 2023 में आरक्षण की सीमा बढ़ाने के राज्य सरकार के फैसले को पटना हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. 20 जून 2024 को हाईकोर्ट ने दोनों संशोधनों को असंवैधानिक करार दिया.
हाई कोर्ट ने कहा, "चाहे जो भी हो, तथ्य यह है कि पिछड़े समुदायों को आरक्षण और योग्यता के आधार पर सार्वजनिक रोजगार में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त है." इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि "पर्याप्त प्रतिनिधित्व मौजूद होने की वजह से 50 फीसदी नियम के उल्लंघन का कोई वैध आधार नहीं है; और यह किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं है."
बता दें कि इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती.
इस साल सितंबर से अक्टूबर के बीच बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में आरक्षण की मांग एक बार फिर सुनाई दे रही है. दरअसल, बिहार को जातिगत और मंडल राजनीति का केंद्र माना जाता है. राजनीतिक पार्टियां जाति समीकरण के दम पर चुनावी मैदान में उतरती हैं और जाति फैक्टर को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं.
आरक्षण के मुद्दे पर पटना स्थित आरजेडी के प्रदेश कार्यालय में इसी महीने की 9 तारीख को धरना प्रदर्शन हुआ. पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी इसमें शामिल हुए.
राज्य सरकार पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा, "आरक्षण को 9वीं अनुसूची में नहीं डाला गया और कोर्ट-कचहरी जाकर आरक्षण को लटकाने का काम किया गया. मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है और बिहार सरकार के वकील मजबूती से इस मुकदमे को नहीं लड़ रहे हैं. ये चाहते हैं कि जो 16 फीसदी आरक्षण बढ़ाई गई, उसको समाप्त कर दिया जाए. लेकिन हम लोग सुप्रीम कोर्ट में भी अपना वकील खड़ा करके इस लड़ाई को लड़ रहे हैं."
लोकसभा चुनाव 2024 के अपने घोषणा पत्र में आरजेडी ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का ऐलान किया था. कांग्रेस ने भी राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक-समाजिक जाति जनगणना और 50 फीसदी आरक्षण की सीमा हटाने का ऐलान किया था.
एसेंडिया स्ट्रेटेजीज के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ तिवारी कहते हैं कि विधानसभा चुनावों पर इसका कुछ खास असर नहीं होगा,
प्रवीण बागी कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट बहुत पहले कह चुकी है कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता और यहां (बिहार) इसको बढ़ाकर 65 फीसदी किया गया था. लेकिन उम्मीद बहुत कम है कि ऐसा हो पाएगा. चूंकि अभी चुनाव का समय है, ऐसे में पॉलिटिकल माइलेज लेने के लिए और वोटर्स को अपने पक्ष में करने के लिए मांग उठ रही है कि 9वीं अनुसूची में डाल दिया जाए ताकि ये मुद्दा कोर्ट के प्रीव्यू से बाहर हो जाए. लेकिन ऐसा हो पाएगा, इसकी संभावना बहुत कम लगती है."
बिहार में एक बार बीजेपी का खेल आरक्षण की वजह से खराब हो चुका है. बात साल 2015 की है. बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखपत्र 'पांचजन्य' और 'आर्गेनाइजर' को दिए इंटरव्यू में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि आरक्षण की जरूरत और उसकी समय सीमा पर एक समिति बनाई जानी चाहिए.
तब महागठबंधन में शामिल नीतीश कुमार की जेडीयू, लालू प्रसाद की आरजेडी और कांग्रेस ने आरएसएस और बीजेपी पर आरक्षण विरोधी होने का आरोप लगाया. महागठबंधन ने 178 सीटों के साथ बहुमत हासिल किया और नतीशी कुमार मुख्यमंत्री बने. वहीं बीजेपी 53 सीटों पर सिमट गई थी. हालांकि, पार्टी के वोट शेयर में करीब 8 फीसदी का इजाफा हुआ था.
अमिताभ तिवारी कहते हैं, "आखिरकार बिहार में खेल जाति पर ही होना है. बिहार में 68 फीसदी गैर-यादव हिंदू हैं और 32 फीसदी मुस्लिम और यादव हैं. ऐसे में आप कह सकते हैं कि एनडीए का टारगेट वोट बैंक 68 फीसदी है, जबकि इंडिया गठबंधन का 32 फीसदी ही है."
लेकिन इसके बावजूद 2020 बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन को 37-37 फीसदी वोट शेयर मिले थे. बता दें कि बीजेपी और जेडीयू ने साथ में चुनाव लड़ा था.
चिराग पासवान की एलजेपी (आर) का वोट शेयर 5.66 फीसदी था. AIMIM, BSP और RLSP के गठबंधन को साढ़े 4 फीसदी वोट मिले थे. जबकि, निर्दलियों के खाते में 8.64 फीसदी वोट्स आए थे.
पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक, दलित समुदाय में से एक तिहाई रविदास वोट्स महागठबंधन को मिले थे. चिराग पासवान के अलग चुनाव लड़ने से दुसाध/पासवान वोट्स बंटे और एनडीए को नुकसान हुआ. हालांकि, मुसहर समुदाय ने ज्यादातर एनडीए को वोट दिया था.
दूसरी तरफ, AIMIM के आने से मुस्लिम वोट भी बंटे, जिससे महागठबंधन को नुकसान हुआ. 1.24 फीसदी वोट शेयर के साथ AIMIM ने 5 सीटें जीती थी.
2024 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार ने इंडिया गठबंधन का हाथ छोड़कर एनडीए का दामन थाम लिया था. नीतीश के पाला बदलने से एक बार फिर प्रदेश का सियासी समीकरण बदल गया.
दो तरफा मुकाबले में, एनडीए (सत्तारूढ़ गठबंधन) ने लगभग 47% वोट और 75% सीटें (40 में से 30 सीटें) हासिल की. कड़े मुकाबले में एनडीए अपनी जमीन बचाने में कामयाब रहा. हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में एनडीए को वोट शेयर में 6 प्रतिशत की गिरावट के साथ 9 सीट का नुकसान झेलना पड़ा.
दूसरी तरफ विपक्षी दल इंडिया ब्लॉक के वोट शेयर में 6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और वह सिर्फ 8 सीट ही बढ़ा पाई. नतीजतन, चुनाव परिणामों में बहुत बड़ा अंतर बना रहा.
हालांकि, "डबल इंजन" सरकार के नारे के साथ एनडीए अपनी स्थिति बरकरार रखने में कामयाब रही. लेकिन, पांच सालों में अलग-अलग जातियों के बीच उसका वोट शेयर गिरा है. अन्य ओबीसी जातियों के 21%, दुसाध/पासी सहित अन्य एससी जातियों के करीब 20% वोट्स एनडीए से शिफ्ट हुए हैं.
अमिताभ तिवारी कहते हैं, "बिहार में आरजेडी को MY (मुस्लिम-यादव) कंसोलिडेशन और मजबूत करना होगा. इसके साथ ही उसे ईबीसी, महादलित और अपर कास्ट में भी सेंध लगानी होगी और अन्य से कुछ खींचना होगा. क्योंकि NDA 37 फीसदी से नीचे नहीं जा सकती. उसका इतना बेस है."
इसके साथ ही वो कहते हैं,
प्रवीण बागी कहते हैं, "एनडीए के वोट बैंक को तोड़ने के लिए तेजस्वी यादव अपनी ओर से पूरी ताकत झोंके हुए हैं. दूसरी बात ये है कि पिछड़ों की राजनीति और आरक्षण के मुद्दे पर पार्टियां ज्यादा जोर इसलिए भी दे रही हैं, ताकि बीजेपी के हिंदुत्व वोट बैंक- जिसमें अगड़े, पिछड़े और दलित शामिल हैं, उसको तोड़ा जा सके."
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