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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) पर अपनी निर्भरता और हिंदुत्ववादी विचारधार के बीच फंसी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए 2025 बिहार विधानसभा चुनाव एक निर्णायक परीक्षा साबित होने वाली है. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के बैनर तले नीतीश की जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के साथ बीजेपी का दोबारा हाथ मिलाना एक सुविधाजनक गठबंधन है, जो कि वैचारिक तालमेल की बजाय बिहार की जटिल जातिगत समीकरण पर आधारित है.
सार्वजनिक रूप से बीजेपी ने उनके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है. सम्राट चौधरी जैसे राज्य स्तरीय नेता एकता का परिचय भी दे रहे हैं. इसके बावजूद इस साझेदारी में तनाव दिख रहा है: नीतीश अपने धर्मनिरपेक्ष, विकास-केंद्रित शासन के जरिए बीजेपी की हिंदुत्ववादी महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाते हुए नजर आते हैं. बिहार जैसे राज्य में जहां जाति धर्म से ऊपर है, बीजेपी का भगवा एजेंडा- जो दूसरी जगहों पर प्रभावी है- यहां दरकिनार हो गया है, जिससे पार्टी के कट्टर समर्थकों में बेचैनी फैल गई है.
बीजेपी, गठबंधन की मजबूरियों और बिहार पर स्वतंत्र रूप से शासन करने के अपने दीर्घकालिक लक्ष्य के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रही है. 2025 विधानसभा चुनाव में बीजेपी के सामने अपनी आत्मा खोए बिना नीतीश को काबू में रखने की भी चुनौती होगी.
2025 बिहार विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी द्वारा एनडीए के चेहरे के रूप में नीतीश कुमार को सार्वजनिक रूप से समर्थन देना, गठबंधन में दोबारा संतुलन स्थापित करने पर आधारित है. दरअसल, 2024 लोकसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू ने 12-12 सीटें जीती थी, जिसके बाद गठबंधन की कमजोरियां खुलकर सामने आ गई थी.
यह गिरावट किसी से छिपी नहीं है. बीजेपी, अवसर को भांपते हुए, चुपचाप अपनी लगाम कस रही है. रिपोर्ट्स से पता चलता है कि 2020 में 74 सीटों पर जीत के मुकाबले इस बार पार्टी का लक्ष्य प्रदेश की 243 विधानसभा सीटों में से 100 पर जीत हासिल करना है. यह महज महत्वाकांक्षा नहीं है- यह सत्ता का खेल है. 27 फरवरी को नीतीश के मंत्रिमंडल में बीजेपी के सात नए मंत्रियों को शामिल करना इस इरादे को और भी पुख्ता करता है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि बीजेपी अपने सहयोगियों की कमजोरियों का फायदा उठाने में माहिर है और बिहार में इस तरह की रणनीति अपनाई जा सकती है. जो हो रहा है वह साझेदारी नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे सत्ता पर कब्जा करना है, जिसमें नीतीश दबाव में हैं और बीजेपी के नियंत्रण की कोशिशों के कारण उनका प्रभाव कम होता जा रहा है.
जैसे-जैसे 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहा है, बीजेपी के सामने एक बड़ा सवाल है: क्या राज्य में हिंदुत्व अपनी पैठ बना पाएगा? इतिहास बताता है कि यह एक कठिन लड़ाई है. जातिगत निष्ठाओं में डूबा बिहार का राजनीतिक परिदृश्य बार-बार बीजेपी के हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे को नकारता रहा है, और वैचारिक उत्साह के बजाय व्यावहारिक शासन को तरजीह देता रहा है.
प्रदेश के जातिगत समीकरण- मुख्यतः भगवा अपर कास्ट मतदाता (15 फीसदी), बिखरी हुई अन्य पिछड़ी जाति (ओबसी) और दलित मतदाता (60 प्रतिशत से अधिक)- ने हिंदू एकता के प्रति बीजेपी की भावनात्मक अपील को कमजोर कर दिया है.
2015 विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार इसका प्रतीक है. हिंदुत्व की लहर पर सवार बीजेपी ने गोमांस प्रतिबंध जैसे विभाजनकारी मुद्दों को उठाया था. दूसरी तरफ नीतीश की जेडीयू और आरजेडी ने मिलकर जातियों का इंद्रधनुषी गठबंधन बनाया, जिसके सामने बीजेपी टिक नहीं पाई. मजबूरन, बीजेपी ने नीतीश का समर्थन वापस पाने लिए अपनी बयानबाजी को कम कर दिया और अपनी मूल विचारधारा को दरकिनार कर दिया.
आज भी हिंदुत्व एजेंडा बिहार के मानस में पैठ बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है. भागलपुर में आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने महाकुंभ का जिक्र किया, उनका भाषण धार्मिक प्रतीकवाद से ओतप्रोत था, लेकिन ये भाषण उस मतदाता वर्ग के साथ मेल नहीं खाता, जो धर्म से ज्यादा सर्वाइवल को प्राथमिकता देता है.
सर्वे से पता चलता है कि 45 प्रतिशत लोगों ने बेरोजगारी को अपनी 'सर्वोच्च प्राथमिकता' बताया है, जो जमीनी स्तर पर टेंपल पॉलिटिक्स पर भारी पड़ती है. नीतीश की जेडीयू और तेजस्वी यादव की आरजेडी इसका फायदा उठाती रही हैं. वे नौकरियों और जाति-आधारित कोटा की पेशकश कर रहे हैं, जबकि बीजेपी की मतदाताओं तक पहुंच उसकी अपर कास्ट इमेज से सीमित होती दिख रही है. राम मंदिर मुद्दे के बावजूद 2020 के चुनाव में एनडीए को मामूली अंतर से जीत मिली. नतीजों ने हिंदुत्व के कमजोर होते प्रभाव को रेखांकित किया. बिहार में ये जीत, भगवा उत्साह से ज्यादा नीतीश की कास्ट इंजीनियरिंग के कारण थी.
जब तक बीजेपी इस वास्तविकता के अनुरूप अपनी रणनीति में बदलाव नहीं करती, 2025 में एक बार फिर पार्टी का वैचारिक झंडा व्यर्थ ही लहराएगा.
जैसे-जैसे 2025 का बिहार चुनाव नजदीक आ रहा है, नीतीश कुमार बीजेपी के लिए एक महत्वपूर्ण एसेट और बढ़ती हुई लायबिलिटी बने हुए हैं.
नीतीश के साथ रहने से एनडीए को व्यापक जातिगत पहुंच मिलती है, जो बीजेपी का अपर कास्ट आधार अकेले हासिल नहीं कर सकता. हालांकि, नीतीश का 20 साल का शासन अब लड़खड़ाने लगा है. हालिया सर्वेक्षणों में बदलाव के संकेत मिल रहे हैं, जिसमें 41 प्रतिशत मतदाता अब मुख्यमंत्री के रूप में आरजेडी के युवा उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव के पक्ष में हैं. तेजस्वी की लोकप्रियता दर्शाती है कि जनता नीतीश के कार्यकाल और असंगत नीतियों से उब गई है. बार-बार पाला बदलने से उन्हें "पलटू राम" उपनाम भी मिला है.
महाराष्ट्र में बीजेपी ने जीत के बाद सहयोगी एकनाथ शिंदे को किनारे कर अपने नेता को मुख्यमंत्री बनाया. 2025 में बिहार में भी ऐसा कुछ हो सकता है अगर बीजेपी जेडीयू के मुकाबले ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब रहती है.
हालांकि, चुनावी मुद्दे के रूप में हिंदुत्व को धार देने से बीजेपी के कोर वोटर्स में जोश आ सकती है, लेकिन इससे नीतीश के धर्मनिरपेक्ष मतदाताओं के अलग होने का खतरा है, जिससे गठबंधन का नाजुक गणित बिगड़ सकता है.
सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा जैसे नेताओं के माध्यम से अभियान को आगे बढ़ाते हुए और नीतीश के चेहरे को बढ़ावा देते हुए, पार्टी समग्र स्थिरता का लक्ष्य रखती है जबकि अंदर ही अंदर प्रभुत्व पर नजर रखती है. हालांकि, बिहार की जातिगत निष्ठाओं और आर्थिक संकटों के खिलाफ हिंदुत्व की शक्ति का परीक्षण अभी भी काफी हद तक नहीं हुआ है.
अगर यह फ्लॉप साबित होता है (जैसा कि 2015 में हुआ था) तो आरजेडी और प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी इसका फायदा उठा सकती है.
एनडीए की सफलता नीतीश की अपील और बीजेपी की संगठनात्मक ताकत के मिश्रण पर निर्भर करती है. 2025 में बिहार एक चुनौतीपूर्ण स्थिति पेश कर रहा है, जहां विचारधारा और वास्तविकता टकराती दिख रही है, जिससे संभावित रूप से बीजेपी के भगवा दांव को सफलता या विफलता मिल सकती है. हालांकि, सिर्फ हिंदुत्व एजेंडे के दम पर पार्टी आगे नहीं बढ़ सकती.
जैसे-जैसे 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहा है, बीजेपी और नीतीश कुमार के गठबंधन को दो युवा, गतिशील नेताओं: तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर से अभूतपूर्व चुनौती मिलती दिख रही है.
बीजेपी और जेडीयू की जोड़ी लंबे समय से जातिगत अंकगणित और नीतीश की शासन संबंधी साख पर निर्भर रही है. अब इस जोड़ी को एक बदलते परिदृश्य का सामना करना पड़ रहा है, जहां उसके प्रभुत्व को युवा आकर्षण और व्यक्तिगत लोकप्रियता से खतरा है.
35 वर्षीय तेजस्वी का फोकस रोजगार पर है. हालिया सर्वेक्षण के अनुसार, 45 प्रतिशत मतदाता बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा मानते हैं, जो बिहार के युवाओं के साथ गहराई से जुड़ता है. 2020 में उन्होंने 10 लाख नौकरियों का वादा किया था और एनडीए को लगभग पछाड़ दिया था. और आज, एक सर्वे में मुख्यमंत्री के तौर पर 41 फीसदी लोगों ने तेजस्वी को पहली पसंद बताया है, जबकि सिर्फ 18 फीसदी लोग चाहते हैं कि नीतीश कुमार दोबारा मुख्यमंत्री बनें.
लालू यादव की जातिगत विरासत और आधुनिक, व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ तेजस्वी यादव ने मुस्लिम, यादव और महत्वाकांक्षी युवा मतदाताओं का एक गठबंधन तैयार किया है, जिससे वह बीजेपी-जेडीयू वोट बैंक के लिए खतरा बन गए हैं.
रणनीतिकार से राजनेता बने प्रशांत किशोर एक अलग चुनौती लेकर आ सकते हैं. 28 अगस्त 2023 को लॉन्च की गई उनकी जन सुराज पार्टी, गवर्नेंस-फर्स्ट एजेंडे के साथ बिहार के निराश मध्यम वर्ग और ईबीसी को टारगेट कर रही है.
नीतीश के "नौकरशाही जंगल राज" की आलोचना और शराबबंदी को खत्म करने के वादों से 47 वर्षीय किशोर की अपील और मजबूत हुई है. वो मुख्यमंत्री के रूप में 15 प्रतिशत लोगों की पसंद हैं. उनकी 3,000 किलोमीटर की पदयात्रा और जाति-संतुलित टिकट रणनीति पारंपरिक राजनीति से अलग हटकर शहरी पेशेवरों और सुधार चाहने वालों को आकर्षित कर रही है.
संगठनात्मक ताकत और ईबीसी-कुर्मी आधार पर भरोसा करने वाली बीजेपी-नीतीश की जोड़ी को अब कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.
नीतीश की थकान और मौन हिंदुत्व के बीच, 2025 में बिहार में पीढ़ीगत बदलाव या खंडित जनादेश देखने को मिल सकता है. जहां युवा जोश और अनुभव आमने-सामने होंगे.
(सायंतन घोष एक रिसर्च स्कॉलर हैं और कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्त) में पत्रकारिता पढ़ाते हैं. सोशल मीडिया प्लेट फॉर्म X पर आप उनसे @sayantan_gh के जरिए जुड़ सकते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. व्यक्त किए गए सभी विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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