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टेलीग्राफ में आसिम अमला ने लिखा है कि बिहार में एनडीए की भारी जीत के बाद नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि गंगा की तरह यह जीत बंगाल तक पहुंचेगी. बिहार का नतीजा बंगाल पर सीधा असर नहीं डालेगा, पर दोनों पक्षों को महत्वपूर्ण सबक देता है. बिहार-2025 एक “प्रतिमान-मजबूत करने वाला” चुनाव था, ठीक 2010 जैसा. नीतीश कुमार ने सिद्ध कर दिखाया कि औसत शासन-रिकॉर्ड और भ्रष्ट पार्टी-तंत्र के बावजूद अल्पकालिक कल्याण योजनाओं और प्रशासनिक मशीनरी (जीविका दीदियां, नकद हस्तांतरण आदि) के दुरुपयोग से लंबे समय तक सत्ता बरकरार रखी जा सकती है. विपरीत रूप से, बंगाल में भाजपा के लिए यही चुनाव “क्या न करें” का सबक है.
ममता ने 2011 में यही किया था. आज भाजपा बंगाल में ठीक यही कर रही है—मतुआ, राजवंशी, ओबीसी जातियों के असंतोष को हिंदू-बहिष्कार की एक बड़ी मिथकीय कथा में पिरोकर “बंगाली-हिंदू संप्रभुता” का नया प्रतिमान खड़ा कर रही है. वहीं तृणमूल का “फ्रैंचाइजी मॉडल” कमजोर पड़ रहा है. यह मॉडल ममता के व्यक्तित्व पर निर्भर हो चुकी तृणमूल कांग्रेस से जुड़ा है जिसमें कार्यकर्ता पूरी तरह ममता बनर्जी पर निर्भर हैं. लेखक का निष्कर्ष है कि भाजपा संरचनात्मक रूप से ममता-केन्द्रित व्यवस्था को विस्थापित करने की सबसे मजबूत स्थिति में है.
द हिन्दू ने अपने संपादकीय में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट ने 16वीं राष्ट्रपति रेफरेंस पर दिए फैसले में राज्यपालों व राष्ट्रपति पर कोई निश्चित समय-सीमा थोपने, “डीम्ड असेंट” देने या अनुच्छेद 142 के जरिए स्वतः मंजूरी देने से इनकार कर दिया. साथ ही उसने यह भी कहा कि लंबी टालमटोल भी स्वीकार्य नहीं. सतही रूप से यह संतुलन दिखता है, लेकिन वास्तव में यह संघीय ढांचे को भारी क्षति पहुंचाता है. फैसला अप्रैल 2025 के तमिलनाडु मामले के प्रगतिशील निर्णय को पलट देता है, जिसमें तीन माह की समय-सीमा और डीम्ड असेंट दी गई थी. अब कोर्ट ने शक्ति-पृथक्करण का हवाला देकर समय-सीमा, डीम्ड असेंट और अनुच्छेद 142 के प्रयोग को खारिज कर दिया.
सरकारिया आयोग की छह माह की सिफारिश भी नजरअंदाज कर दी गई. सबसे खतरनाक प्रावधान: यह है कि विधेयक पहली या दूसरी बार पारित होने के बाद भी राज्यपाल उसे राष्ट्रपति को भेज सकता है, और वहाँ वह अनिश्चित काल तक लटक सकता है. विधानसभा का दोबारा पारित करना अब बाध्यकारी नहीं रहा. “उचित समय” की कोई परिभाषा नहीं, जिससे हर देरी के लिए राज्यों को अलग-अलग मुकदमेबाजी करनी पड़ेगी. समय-सीमा, स्वतः मंजूरी, न्यायिक समीक्षा—सभी सुरक्षा-कवच हटा लिए गए. विपक्ष-शासित राज्यों में पहले से हो रहे मनमाने विलंब को यह फैसला वैधता देता है. नतीजतन, संविधान की अक्षरशः व्याख्या करके उसकी संघीय भावना को गहरी चोट पहुंचाई गई है.
अदिति फडनीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि इस सप्ताह कर्नाटक कांग्रेस में ढाई साल पुराना “सत्ता-साझेदारी” का समझौता पूरी तरह ध्वस्त हो गया. मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने 17वाँ बजट पेश करने की घोषणा कर स्पष्ट कर दिया कि वे पूरा कार्यकाल (2028 तक) मुख्यमंत्री बने रहेंगे. दूसरी ओर उप-मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने रहस्यमयी अंदाज में कहा कि उनका प्रदेश अध्यक्ष पद “स्थायी नहीं” है और मार्च में 6 साल पूरे हो जाएँगे – यह सत्ता-परिवर्तन की मांग का अप्रत्यक्ष संकेत था. 2023 चुनाव के बाद तय हुआ था कि सिद्धरमैया ढाई साल और उसके बाद शिवकुमार मुख्यमंत्री बनेंगे.
63 वर्षीय वोक्कालिंगा नेता शिवकुमार के लिए दांव जीवन-मरण का है. अगर 2028 में कांग्रेस हारी तो अगला मौका 2033 में आएगा, जब वे 71 साल के होंगे. वोक्कालिंगा मठ भी अब पछता रहे हैं. बिहार में कांग्रेस की हार के बाद शिवकुमार अपने वफादार विधायकों को दिल्ली में सक्रिय कर चुके हैं और संसाधन-जुटाने की अपनी ताकत का बार-बार जिक्र कर रहे हैं. सिद्धरमैया की बजट-घोषणा ने “नवंबर क्रांति” को फुसफुसाहट में बदल दिया, लेकिन सप्ताहांत तक कर्नाटक कांग्रेस में नया राजनीतिक तूफान शुरू हो सकता है.
मनीष सभरवाल ने इंडियन एक्सप्रेस में फणीश्वर नाथ रेणु की 1954 के क्लासिक हिंदी उपन्यास मैला आंचल के हवाले से कहा है कि बिहार की आदर्शवादी राजनीति—समता, न्याय और जन-शक्ति—को लेन-देन की राजनीति व कुलीन हेरफेर से हारते दिखाया था. हालिया बिहार चुनाव बदलाव का संकेत देते हैं. “हर परिवार को सरकारी नौकरी” का वादा जनता ने अव्यावहारिक बताकर खारिज कर दिया . इस पर राज्य बजट का पाँच गुना खर्च होता. लेकिन यह हमें याद दिलाता है कि पिछड़े राज्यों में रोजगार सृजन के लिए नए विचार जरूरी हैं. हाल की श्रम संहिताओं की अधिसूचना मुख्यमंत्रियों को औपचारिक, उच्च-वेतन व उच्च-उत्पादकता वाले निजी नियोक्ताओं के लिए अनुकूल माहौल बनाने की शक्ति देती है. असली समस्या “रोजगारयुक्त गरीबी” (कम वेतन वाली नौकरियां) और अव्यावहारिक स्वरोजगार (स्व-शोषण) है. बिहार में उच्च उत्पादकता वाले नियोक्ताओं की कमी और सेक्टर्स का अभाव है.
चार संहिताएं अपूर्ण हैं; एक ही काफी. लेकिन ये अच्छी नौकरियां पैदा करने के लिए भारत को बेहतर बनाती हैं. ये नियामकीय कोलेस्ट्रॉल को विश्वास-आधारित व्यवस्था से बदलती हैं—जेल को निरोधक मानना छोड़, स्व-पंजीकरण लाना, निरीक्षकों के दुरुपयोग से भ्रष्टाचार रोकना, सब अनुमत मानना. पुरानी व्यवस्था छोटे नियोक्ताओं को चोट पहुँचाती, 50% श्रमशक्ति को स्व-शोषण में धकेलती, कानून पर हास्य पैदा करती. ट्रेड यूनियनों का स्वार्थ बुजुर्ग सदस्यों पर था, लेकिन 65% आबादी 35 से कम उम्र की है. राज्यों को नियम-निर्माण में स्वायत्तता मिली.
अरविंद पनगढ़िया (16वें वित्त आयोग के अध्यक्ष) ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि नई चार श्रम संहिताएं “सभी सुधारों की जननी” हैं. 29 पुराने, स्वतंत्रता-पूर्व के उद्यम-विरोधी श्रम कानूनों को खत्म कर मोदी सरकार ने 25 साल पुरानी माँग पूरी की, जिसे नरसिम्हा राव के बाद हर सरकार सोचती रही लेकिन साहस नहीं जुटा पाई. संहिताओं ने 1,200 से अधिक धाराओं को आधा कर दिया, रजिस्टर-रिटर्न-लाइसेंस की संख्या नाटकीय रूप से घटाई, आपराधिक सजाओं को सिविल जुर्माने में बदला. यह लालफीताशाही से उद्यमियों की मुक्ति है.