Members Only
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Hindi Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019उमर खालिद: बर्बाद हुई होनहार जिंदगी, बिहार में रोजगार के वादे असफलता का कबूलनामा

उमर खालिद: बर्बाद हुई होनहार जिंदगी, बिहार में रोजगार के वादे असफलता का कबूलनामा

पढ़ें इस रविवार रामचंद्र गुहा, मिहिर एस शर्मा, पवन के वर्मा, अर्जुन भारद्वाज और प्रताप भानु मेहता के विचारों का सार.

द क्विंट
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू: लद्दाख क्यों है अशांत? संतुष्ट न हों दलित</p></div>
i

संडे व्यू: लद्दाख क्यों है अशांत? संतुष्ट न हों दलित

(फोटोः फाइल)

advertisement

उमर खालिद: बर्बाद हुई होनहार जिन्दगी

रामचंद्र गुहा का टेलीग्राफ में यह कॉलम प्रारंभिक रुचियों की स्थायित्व पर चिंतन से शुरू होता है. उन्होंने वन समुदायों के इतिहासकार के रूप में अपना सफर शुरू किया, जो ब्रिटिश औपनिवेशिकता से प्रभावित थे. हाल ही में, उन्होंने युवा विद्वान उमर खालिद की 2018 की डॉक्टरल थीसिस पढ़ी, जो सिंहभूम (झारखंड) में आदिवासी समाज के औपनिवेशिक परिवर्तनों पर केंद्रित है. गुहा इसकी उत्कृष्टता से प्रभावित होकर इसे कॉलम में उजागर करते हैं. थीसिस ईस्ट इंडिया कंपनी के सैन्य-प्रशासनिक नियंत्रण, प्राकृतिक परिदृश्य, कानूनी-आर्थिक संरचनाओं के पुनर्गठन का वर्णन करती है. यह औपनिवेशिक वन नीति के व्यावसायिक पूर्वाग्रह, गांव मुखियाओं की बदलती भूमिका तथा आदिवासियों की प्रतिक्रियाओं पर प्रकाश डालती है.

गुहा थीसिस की छह प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करते हैं: आदिवासी साहित्य का गहन ज्ञान; प्राथमिक स्रोतों का व्यापक उपयोग; क्षेत्रीय फील्डवर्क; जीवंत उद्धरण; स्पष्ट, आकर्षक गद्य; तथा सूक्ष्म तर्क जो आदिवासी जीवन के रूढ़िवादी चित्रणों से बचते हैं. यह दिखाता है कि आदिवासी न केवल प्रतिरोध करते हैं, बल्कि सहयोग या बातचीत भी करते हैं.

गुहा इसे भारतीय डॉक्टरल कार्यों में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, जो नंदिनी सुंदर या माहेश रंगराजन की पुस्तकों जैसी हो सकती है. दुखद तथ्य यह है कि थीसिस प्रकाशित नहीं हुई क्योंकि उमर खालिद 2019 से जेल में हैं—बिना जमानत, बिना औपचारिक आरोप के. गुहा 2019 के CAA विरोध में उनकी भागीदारी याद करते हुए नाम के आधार पर भेदभाव पर सवाल उठाते हैं.

असफलता का कबूलनामा है बिहार में 1 करोड़ नौकरी का वायदा

मिहिर एस शर्मा ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि सत्ताधारी दल या गठबंधन की ओर से एक करोड़ से अधिक रोजगार का वादा राज्य की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के निर्माण में दीर्घकालिक असफलता का कबूलनामा है. यह कोई साहसिक विजन नहीं है. भारत का सबसे अधिक आबादी वाला आर्थिक रूप से पिछड़ा राज्य है बिहार. दशकों से श्रम का प्रमुख निर्यातक रहा है, जो मुंबई के निर्माण स्थलों से बेंगलुरु के तकनीकी केंद्रों तक अकुशल-कुशल श्रमिकों की आपूर्ति करता है.

लेखक ने 2020 के बीजेपी घोषणापत्र के 1.9 मिलियन नौकरियों के वादे से तुलना करते हुए, वर्तमान पांच गुना वृद्धि को राजनीतिक हताशा का प्रतीक बताया है. उनका तर्क है कि सच्चे रोजगार सृजन के लिए बुनियादी ढांचा, शिक्षा और औद्योगिक निवेश जैसी 'शर्तें' आवश्यक हैं, जो वर्तमान शासन में अनुपस्थित हैं. '10 मिलियन नौकरियां' का निहितार्थ यही है कि बिहार में ये आधार अभी भी नहीं बने.

मिहिर शर्मा का लेख बिहार से माइग्रेशन की कथा को मार्मिक ढंग से उजागर करता है. लाखों बिहारी परिवारिक इकाइयों या अनौपचारिक नेटवर्क के माध्यम से अन्य राज्यों की अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत करते हैं, लेकिन स्थानीय विकास को पीछे धकेलते हैं. युवा बेरोजगारी दर 18-20% होने से सालाना 2-3 मिलियन प्रवासी बाहर जाते हैं. नीतीश कुमार की राज्य के प्रति समर्पण को लेखक सम्मान देते हैं, किंतु इसे वितरण की कमी से जोड़ते हैं. लेखक चुनावी हाइप से परे राजनीतिक दलों से आत्मनिरीक्षण की मांग करते हैं. रोजगार का वादा बिहार की दोहरी पहचान को मजबूत करता है कि यह राष्ट्रीय विकास का ईंधन है लेकिन स्वयं पिछड़ा है.

थकान नहीं समृद्धि है अवकाश

पवन के. वर्मा का हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित यह लेख आधुनिक युग में अवकाश की गलतफहमी पर केंद्रित है, जहाँ तात्कालिक कार्य आवश्यक चिंतन को दबा देते हैं. लेखक नए सिविल सेवकों को सलाह देते हैं कि पेशे के अलावा शौक या खेल अपनाएं वरना महत्वाकांक्षा और ईर्ष्या से एकाकी हो जाएँगे. अत्यधिक कार्यरत पेशेवर, नौकरशाह या नेता थकान को दक्षता मानते हैं लेकिन अवकाश मन-आत्मा का निवेश है. ग्रीक 'स्कोले' (स्कूल का मूल) शांतिपूर्ण चिंतन का प्रतीक था. प्रेम की वस्तु के लिए समय हमेशा मिल जाता है.

लेखक ऐतिहासिक उदाहरण रखते हैं. समुद्रगुप्त संगीतकार थे, राजा भोजा ने 84 ग्रंथ रचे, अकबर चित्रकार रहे. किंतु आज के भारतीय नेता 24/7 कार्य पर गर्व करते हैं, बिना छुट्टियों या रुचियों के. बिना तरोताजगी, मन बासी और कल्पना यांत्रिक हो जाती है. आधुनिक नेताओं के भी उदाहरण हैं. चर्चिल युद्धकाल में चित्रकारी करते, आइजनहावर ने 800 गोल्फ राउंड खेले—इसे 'मस्तिष्क के जाल साफ' करने वाला माना गाया. ओबामा बास्केटबॉल से 'खुद जैसा' महसूस करते, मर्केल आल्प्स में सैरों से गहन चिंतन करतीं. पुतिन का जूडो, मैक्रॉन का टेनिस—कार्य-बाहरी रुचि नवीनीकरण है.

भारतीय संदर्भ में नेहरू की 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' राजनीति से ऊपर सभ्यता दृष्टि देती है तो गांधी का चरखा ध्यानपूर्ण शौक था. राजगोपालाचारी ने महाकाव्यों का अनुवाद किया, नरसिम्हा राव भाषा-उस्ताद रहे, अटलजी रसिक कवि थे. फिर हम कार्य-दलदल को पाप मानने वाले 'यंत्रों' को आदर्श क्यों बनाते हैं? लेखक रसेल को उद्धृत करते हैं, “आनंदपूर्ण व्यर्थ समय व्यर्थ नहीं.“ कार्य से अलगाव निष्ठुरता रोकता है, जीवन को बड़ा दृष्टिकोण देता है. व्यक्तिगत उदाहरण भी हैं. रतन टाटा उड़ान से चिंतन पाते. अरस्तू की 'यूडेमोनिया'—आत्मा का फलना—केवल सम्मान करने वाले ही नेतृत्व कर सकते. अवकाश थकान नहीं, समृद्धि है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

भूले-बिसरे स्मारक: भारतीय क्यों छोड़ देते हैं बोधगया, नालंदा?

अर्जुन भारद्वाज ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि भारत की दो प्रमुख यूनेस्को के धरोहर—बोधगया और नालंदा—अपने ही देशवासियों की उपेक्षा के शिकार रहे हैं. ये स्थल बौद्ध धर्म के उद्गम और प्राचीन शिक्षा का केंद्र रहे हैं. भारत के लोग ताजमहल या गोवा को वरीयता देते हैं, बोधगया-नालंदा को नजरअंदाज कर देते हैं. विदेशी तीर्थयात्री (थाई, जापानी) इन्हें शांति की खोज में पसंद करते हैं, लेकिन भारतीय इन्हें बनारस मार्ग का 'पड़ाव' मानते हैं.

यह ऐतिहासिक विडंबना है कि सदियों तक दफन ये स्मारक 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश पुरातत्वविदों (जैसे कनिंघम) द्वारा खोजे गए, न कि स्वदेशी विद्वानों ने इसे खोजा. 12वीं शताब्दी के आक्रमणों के बाद भुला दिए गये भारतीय धरोहर को पुनर्जीवित करने का श्रेय भी संयुक्त राष्ट्र और बौद्ध अनुयायियों को है.

अर्जुन लिखते हैं कि बिहार की खराब सड़कें, सीमित उड़ानें, कम होटल चिंताजनक हैं. नालंदा पटना से 90 किमी दूर है. मगर, स्थानीय लोग इसकी उपेक्षा करते हैं. लोगों को इंस्टाग्राम योग्य छुट्टियां पसंद हैं, विदेशी चिंतन पसंद हैं. महामारी के बाद घरेलू यात्राएं भी आर्थिक दबाव से प्रभावित दिखती हैं. बेहतर प्रचार से केरल जैसा पर्यटन संभव है बिहार में भी. लेखक स्कूल यात्राएं, बॉलीवुड कथाएं, बौद्ध ट्रेल (विश्व बैंक वित्त) की वकालत करते हैं. घर पर ज्ञान इंतजार कर रहा है विदेशी मृगतृष्णा क्यों?

खतरनाक है गेट्स का जलवायु मेमो

प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि डोनाल्ड ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन को ‘धोखा’ बताया और बिल गेट्स के मेमो का हवाला देकर अपनी जीत घोषित की. यह ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को कम करके आंकता है. भारत-चीन जैसे देश अमेरिकी निषेधवाद से बचे हैं, लेकिन गेट्स का तर्क अधिक घातक है—यह खतरों को को कम आंकता है और प्राथमिकताओं को पुनर्निर्देशित करता है. वे मानते हैं कि 1.5-2°C लक्ष्य चूकने पर भी 3°C पर मानवता बचेगी. यह मार्टिन वेट्ज़मैन की चेतावनी को नजरअंदाज करता है कि विनाशकारी जोखिम नगण्य नहीं है. भयावहता थकान पैदा करती है, लेकिन निष्क्रियता का कारण तटस्थता रही है जिसे गेट्स दोहरा रहे हैं. तकनीकी-समाधानवाद मनोवैज्ञानिक राहत देता है, लेकिन यह खतरनाक है.

मेहता लिखते हैं कि चीन की प्रगति उल्लेखनीय है, फिर भी 3°C दुनिया स्वास्थ्य, गरीबी, असमानता को कठिन बनाएगी. नवाचार जरूरी, लेकिन पर्याप्त नहीं. गरीबी-स्वास्थ्य के लिए तकनीक सदी पुरानी है, लेकिन संस्थागत बाधाएं बनी हैं. गेट्स का व्यापार-बंदी का तर्क बेतुका है. जलवायु हर समस्या को जटिल बनाती है, न कि संसाधन छीनती.

गेट्स का मेमो पश्चिमी U-आकार मॉडल को दोहराता है, लेकिन देर से आने वाले भारत के लिए यह समय विरुद्ध है. 3°C पर मानसून, मौसम, जंगल, बाढ़, हिमनद बदलेंगे. उनका फलना-फूलना कठिन है. अभिजात राय राजनीतिक बदलावों से घूमती है; ट्रंपवाद बहाने बन रहा. यह वैश्विक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करेगा. उत्सर्जन घट रहे हैं क्योंकि जलवायु को गंभीर लिया गया; अब तटस्थता निवेश रोकेगी.

Become a Member to unlock
  • Access to all paywalled content on site
  • Ad-free experience across The Quint
  • Early previews of our Special Projects
Continue

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT