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रामचंद्र गुहा का टेलीग्राफ में यह कॉलम प्रारंभिक रुचियों की स्थायित्व पर चिंतन से शुरू होता है. उन्होंने वन समुदायों के इतिहासकार के रूप में अपना सफर शुरू किया, जो ब्रिटिश औपनिवेशिकता से प्रभावित थे. हाल ही में, उन्होंने युवा विद्वान उमर खालिद की 2018 की डॉक्टरल थीसिस पढ़ी, जो सिंहभूम (झारखंड) में आदिवासी समाज के औपनिवेशिक परिवर्तनों पर केंद्रित है. गुहा इसकी उत्कृष्टता से प्रभावित होकर इसे कॉलम में उजागर करते हैं. थीसिस ईस्ट इंडिया कंपनी के सैन्य-प्रशासनिक नियंत्रण, प्राकृतिक परिदृश्य, कानूनी-आर्थिक संरचनाओं के पुनर्गठन का वर्णन करती है. यह औपनिवेशिक वन नीति के व्यावसायिक पूर्वाग्रह, गांव मुखियाओं की बदलती भूमिका तथा आदिवासियों की प्रतिक्रियाओं पर प्रकाश डालती है.
गुहा इसे भारतीय डॉक्टरल कार्यों में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, जो नंदिनी सुंदर या माहेश रंगराजन की पुस्तकों जैसी हो सकती है. दुखद तथ्य यह है कि थीसिस प्रकाशित नहीं हुई क्योंकि उमर खालिद 2019 से जेल में हैं—बिना जमानत, बिना औपचारिक आरोप के. गुहा 2019 के CAA विरोध में उनकी भागीदारी याद करते हुए नाम के आधार पर भेदभाव पर सवाल उठाते हैं.
मिहिर एस शर्मा ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि सत्ताधारी दल या गठबंधन की ओर से एक करोड़ से अधिक रोजगार का वादा राज्य की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के निर्माण में दीर्घकालिक असफलता का कबूलनामा है. यह कोई साहसिक विजन नहीं है. भारत का सबसे अधिक आबादी वाला आर्थिक रूप से पिछड़ा राज्य है बिहार. दशकों से श्रम का प्रमुख निर्यातक रहा है, जो मुंबई के निर्माण स्थलों से बेंगलुरु के तकनीकी केंद्रों तक अकुशल-कुशल श्रमिकों की आपूर्ति करता है.
मिहिर शर्मा का लेख बिहार से माइग्रेशन की कथा को मार्मिक ढंग से उजागर करता है. लाखों बिहारी परिवारिक इकाइयों या अनौपचारिक नेटवर्क के माध्यम से अन्य राज्यों की अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत करते हैं, लेकिन स्थानीय विकास को पीछे धकेलते हैं. युवा बेरोजगारी दर 18-20% होने से सालाना 2-3 मिलियन प्रवासी बाहर जाते हैं. नीतीश कुमार की राज्य के प्रति समर्पण को लेखक सम्मान देते हैं, किंतु इसे वितरण की कमी से जोड़ते हैं. लेखक चुनावी हाइप से परे राजनीतिक दलों से आत्मनिरीक्षण की मांग करते हैं. रोजगार का वादा बिहार की दोहरी पहचान को मजबूत करता है कि यह राष्ट्रीय विकास का ईंधन है लेकिन स्वयं पिछड़ा है.
पवन के. वर्मा का हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित यह लेख आधुनिक युग में अवकाश की गलतफहमी पर केंद्रित है, जहाँ तात्कालिक कार्य आवश्यक चिंतन को दबा देते हैं. लेखक नए सिविल सेवकों को सलाह देते हैं कि पेशे के अलावा शौक या खेल अपनाएं वरना महत्वाकांक्षा और ईर्ष्या से एकाकी हो जाएँगे. अत्यधिक कार्यरत पेशेवर, नौकरशाह या नेता थकान को दक्षता मानते हैं लेकिन अवकाश मन-आत्मा का निवेश है. ग्रीक 'स्कोले' (स्कूल का मूल) शांतिपूर्ण चिंतन का प्रतीक था. प्रेम की वस्तु के लिए समय हमेशा मिल जाता है.
भारतीय संदर्भ में नेहरू की 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' राजनीति से ऊपर सभ्यता दृष्टि देती है तो गांधी का चरखा ध्यानपूर्ण शौक था. राजगोपालाचारी ने महाकाव्यों का अनुवाद किया, नरसिम्हा राव भाषा-उस्ताद रहे, अटलजी रसिक कवि थे. फिर हम कार्य-दलदल को पाप मानने वाले 'यंत्रों' को आदर्श क्यों बनाते हैं? लेखक रसेल को उद्धृत करते हैं, “आनंदपूर्ण व्यर्थ समय व्यर्थ नहीं.“ कार्य से अलगाव निष्ठुरता रोकता है, जीवन को बड़ा दृष्टिकोण देता है. व्यक्तिगत उदाहरण भी हैं. रतन टाटा उड़ान से चिंतन पाते. अरस्तू की 'यूडेमोनिया'—आत्मा का फलना—केवल सम्मान करने वाले ही नेतृत्व कर सकते. अवकाश थकान नहीं, समृद्धि है.
अर्जुन भारद्वाज ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि भारत की दो प्रमुख यूनेस्को के धरोहर—बोधगया और नालंदा—अपने ही देशवासियों की उपेक्षा के शिकार रहे हैं. ये स्थल बौद्ध धर्म के उद्गम और प्राचीन शिक्षा का केंद्र रहे हैं. भारत के लोग ताजमहल या गोवा को वरीयता देते हैं, बोधगया-नालंदा को नजरअंदाज कर देते हैं. विदेशी तीर्थयात्री (थाई, जापानी) इन्हें शांति की खोज में पसंद करते हैं, लेकिन भारतीय इन्हें बनारस मार्ग का 'पड़ाव' मानते हैं.
अर्जुन लिखते हैं कि बिहार की खराब सड़कें, सीमित उड़ानें, कम होटल चिंताजनक हैं. नालंदा पटना से 90 किमी दूर है. मगर, स्थानीय लोग इसकी उपेक्षा करते हैं. लोगों को इंस्टाग्राम योग्य छुट्टियां पसंद हैं, विदेशी चिंतन पसंद हैं. महामारी के बाद घरेलू यात्राएं भी आर्थिक दबाव से प्रभावित दिखती हैं. बेहतर प्रचार से केरल जैसा पर्यटन संभव है बिहार में भी. लेखक स्कूल यात्राएं, बॉलीवुड कथाएं, बौद्ध ट्रेल (विश्व बैंक वित्त) की वकालत करते हैं. घर पर ज्ञान इंतजार कर रहा है विदेशी मृगतृष्णा क्यों?
प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि डोनाल्ड ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन को ‘धोखा’ बताया और बिल गेट्स के मेमो का हवाला देकर अपनी जीत घोषित की. यह ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को कम करके आंकता है. भारत-चीन जैसे देश अमेरिकी निषेधवाद से बचे हैं, लेकिन गेट्स का तर्क अधिक घातक है—यह खतरों को को कम आंकता है और प्राथमिकताओं को पुनर्निर्देशित करता है. वे मानते हैं कि 1.5-2°C लक्ष्य चूकने पर भी 3°C पर मानवता बचेगी. यह मार्टिन वेट्ज़मैन की चेतावनी को नजरअंदाज करता है कि विनाशकारी जोखिम नगण्य नहीं है. भयावहता थकान पैदा करती है, लेकिन निष्क्रियता का कारण तटस्थता रही है जिसे गेट्स दोहरा रहे हैं. तकनीकी-समाधानवाद मनोवैज्ञानिक राहत देता है, लेकिन यह खतरनाक है.
गेट्स का मेमो पश्चिमी U-आकार मॉडल को दोहराता है, लेकिन देर से आने वाले भारत के लिए यह समय विरुद्ध है. 3°C पर मानसून, मौसम, जंगल, बाढ़, हिमनद बदलेंगे. उनका फलना-फूलना कठिन है. अभिजात राय राजनीतिक बदलावों से घूमती है; ट्रंपवाद बहाने बन रहा. यह वैश्विक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करेगा. उत्सर्जन घट रहे हैं क्योंकि जलवायु को गंभीर लिया गया; अब तटस्थता निवेश रोकेगी.
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