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पी स्टॉब्डन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि लेह में 24 सितंबर को हुई हिंसक झड़प ने पुलिस हस्तक्षेप की विफलता उजागर की है. 2022 से बढ़ते विरोधों के बावजूद, नए केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) प्रशासन ने अशांति संबोधित करने में कोई गंभीर प्रयास नहीं किया. अक्टूबर 2019 में जम्मू-कश्मीर से अलग होने के बाद लद्दाख में अशांति चली आ रही है. लेह में शुरूआती स्वागत के विपरीत, करगिल के शिया समुदाय ने यूटी दर्जे को "काला दिन" कहा. 2020 तक उत्साह फीका पड़ गया.
स्टॉब्डन आगे लिखते हैं कि कई लद्दाखी पूर्व जे एंड के शासन को अधिक सुरक्षित मानते हैं. लेह के बौद्ध संवैधानिक गारंटी चाहते हैं, जबकि करगिल के शिया राज्य का दर्जा. इनकी मांगों के लिए केडीए (करगिल) और एपेक्स बॉडी (लेह) बने. 2020 में उच्च स्तरीय समिति (एचपीसी) गठित हुई, जो गृह मंत्रालय (एमएचए) से संवाद करती है.
प्रमुख मांग: 5,000 से ज्यादा नौकरियां भरना है. लेकिन छिटपुट वार्ताएं बेनतीजा रहीं, जिससे विरोध भड़के. भाजपा नेता थुपस्टान छेवांग और त्सेरिंग दोर्जी ने इस्तीफा दिया. असंतोष पार्टियों से परे है. मांगें संविधान की छठी अनुसूची (अनु. 244(2), 275(1)) के तहत स्वायत्तता पर केंद्रित हैं, जो जनजातीय क्षेत्रों को परिषदों से शक्ति देती है.
करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में पूछा है कि क्या ईमानदार भारतीय के लिए पाकिस्तान में घर जैसा महसूस करना अब अस्वीकार्य हो गया है? वे याद दिलाते हैं कि विभाजन से पहले लाखों भारतीय पाकिस्तानी प्रांतों में पैदा हुए. उनके माता-पिता, बहनें और चचेरे भाई लाहौर में जन्मे. उनकी नब्बे वर्षीय मां के "घर जाना" का मतलब लाहौर ही था, न कि दिल्ली के चट्टारपुर का फार्म. पिछले सप्ताह सैम पित्रोदा की निष्कपट टिप्पणी—"पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में मुझे घर जैसा लगता है"—पर टीवी चैनलों ने 15 मिनट का हमला बोला. बीजेपी प्रवक्ता ने उन्हें देशद्रोही ठहराया, लेकिन नेपाल-बांग्लादेश का जिक्र नजरअंदाज किया.
लेखक स्वयं 1980 से पाकिस्तान अक्सर जाते रहे. वहां की पंजाबी संस्कृति—भाषा, भोजन, रीति-रिवाज, रहन-सहन—भारतीय पंजाब से अविभाज्य है. गालियां भी एक जैसी, कभी प्रेम के शब्द बन जातीं. तमिल या कन्नड़ को अजनबी लगे, लेकिन अमृतसर-लुधियाना वालों को घर जैसा. इटानगर से कम समानता, अलीगढ़ से ज्यादा. करन लिखते हैं कि दुबई क्रिकेट विवाद ने दुखी किया. पहलगाम हमले के बाद खेलने का फैसला ठीक, लेकिन हारने वाली पाकिस्तानी टीम से हाथ न मिलाना असभ्य.
डॉ मनन द्विवेदी और डॉ गायत्री दीक्षित ने टाइम्स ऑफ इंडिया में पूछा है कि नाम में क्या है? विलियम शेक्सपियर ने कहा था, "नाम में क्या है?" एक गुलाब गुलाब ही रहता है, जैसे लैब्राडोर कुत्ता. लेकिन जब कोई राष्ट्र या व्यक्ति संध्या क्षेत्र में जीने लगे—न दिन, न रात—तो उसकी नियति विवादित हो जाती है. फिलिस्तीन ऐसी ही भू-राजनीतिक पहेली है, जहां यहूदियों की तरह फिलिस्तीनी दशकों से भटकते, विस्थापित रहे हैं. फिलिस्तीन प्रश्न को इज़राइल-हमास युद्ध की चिंगारी से जोड़ें, तो यह बड़ा विस्फोट बन जाता है. 7 अक्टूबर 2023 को हमास आतंकियों ने इज़राइल के सीमा रिसॉर्ट में घुसकर 1,200 लोगों की हत्या की और 250 बंधकों को गाजा ले गए. तेल अवीव ने जबरदस्त जवाबी कार्रवाई की, जिससे गाजा तबाह हो गया.
यूरोपीय देशों की सोच वैश्विक राजनीति में परिवर्तन ला रही है. यरूशलेम की साझा स्थिति और यहूदी बस्तियां भी विवादास्पद हैं. फरवरी 2025 से फिलिस्तीन संप्रभु राष्ट्र माना जाता है. संयुक्त राष्ट्र के 75% देश (147) फिलिस्तीन को मान्यता देते हैं. पीएलओ फिलिस्तीनियों का एकमात्र प्रतिनिधि है. मान्यता फिलिस्तीन को प्रबंधन में मदद करेगी, पर हमास (ईरान समर्थित) का गाजा प्रतिनिधित्व सवाल उठाता है. वाशिंगटन, सऊदी, मिस्र, कतर कूटनीति के केंद्र हैं. इन संधियों-कानूनों ने इज़राइल-फिलिस्तीन को हिंसक बनाया. फिलिस्तीन को प्रभावी बनाना ही शांति का रास्ता है.
अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि दलित क्विट इंडिया पार्टी (DQIP) का संदेश स्पष्ट है: दलितों को और ज्यादा चाहिए. भारत में न मिले तो विदेश जाएं. बुद्धिजीवी चंद्र भान प्रसाद द्वारा स्थापित यह समूह दलित चिंतन को नई दिशा दे रहा है. हालांकि यह संगठन अभी राजनीतिक दल के रूप में पंजीकृत नहीं है. बाबासाहेब आंबेडकर का मूलमंत्र था: ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो.’ वे पहले अछूत थे जिन्होंने पीएचडी की और विदेश में पढ़े.
अदिति लिखती हैं कि कांशीराम की बीएसपी में क्षमता थी. लेकिन, उन्होंने समाज को आंबेडकर की बजाय पेरियार की ओर मोड़ा. दलित दुर्दशा पर फोकस किया. बामसेफ व्यक्ति-केंद्रित हो गया. सर्वजन बदलाव से चंद्रशेखर आजाद जैसे आक्रामक नेता उभरे. विदेश में डिग्री पर्याप्त नहीं. भेदभाव हर जगह है. आधे से अधिक अपनी जाति छिपाते हैं. कनिष्क एलुपुला (हार्वर्ड पीएचडी छात्र) ने कहा, “मैं अछूत के रूप में पहचाना जाना चाहता हूं.”: कोई दलित शीर्ष प्रबंधन में नहीं है. DICCI के नेतृत्व में दलित उद्यम फल-फूल रहे हैं. प्रवासी दलितों का एकजुट होना क्या प्रभावी होगा? कहना मुश्किल है. NRI गतिविधियां मुद्दे उठाती हैं, लेकिन हिंसा बढ़ रही.
संतोष मैथ्यू ने पायोनियर में डाग हैमरश्शोल्ड के हवाले से लिखा है “संयुक्त राष्ट्र का निर्माण मानवजाति को स्वर्ग ले जाने के लिए नहीं, बल्कि नरक से बचाने के लिए किया गया था”. द्वितीय विश्व युद्ध की राख से 1945 में जन्मा यूएनओ “फिर कभी नहीं” की प्रतिज्ञा का प्रतीक था. शांति, संवाद और राष्ट्रों के बीच सहयोग का वादा था. आज संयुक्त राष्ट्र नाजुक चौराहे पर खड़ा है. महाशक्तियों में स्पर्धा और राष्ट्रवाद के दरम्यान बेहद कमजोर हो चुकी है यह वैश्विक संस्था. गाजा में नागरिक पीड़ा और सहायता की आवश्यकता पर टिप्पणियों के बाद महासचिव एंटोनियो गुटेरेस को इजराइल ने गैर वांछित व्यक्ति घोषित किया है. इजराइल ने इन्हें पक्षपाती बताकर स्व-रक्षा अधिकार पर हमला माना.
डोनाल्ड ट्रंप का “सात युद्ध समाप्त” करने का दावा सुरक्षा परिषद को कमजोर करता है. चीन, रूस सभी यूएन का इस्तेमाल कर रहे हैं. परिणाम घातक हैं. फिर भी संयुक्त राष्ट्र को अप्रासंगिक कहना गलत है. युद्ध क्षेत्रों में मानवीय कार्य, शरणार्थी सहायता, जलवायु वार्ताएं, डब्ल्यूएचओ का महामारी समन्वय—ये अपरिहार्य हैं. समस्या सदस्य राष्ट्रों की राजनीतिक इच्छाशक्ति में है. 80 वर्षीय संयुक्त राष्ट्र नवीनीकरण का अवसर भी है. यूएन में सुधार की मांगें पुरानी हैं जिनमें शामिल हैं सुरक्षा परिषद विस्तार. भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसी मध्यम शक्तियां निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं. संयुक्त राष्ट्र दिवस स्मृति न हो, कार्रवाई का आह्वान हो. संघर्ष, अविश्वास, पॉपुलिस्ट बयानबाजी से भरे विश्व में, संयुक्त राष्ट्र मानवता का अपूर्ण लेकिन अपरिहार्य रक्षक है.