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संडे व्यू: लद्दाख क्यों है अशांत? संतुष्ट न हों दलित

पढ़ें पी स्टॉब्डन, करन थापर, डॉ मनन द्विवेदी, डॉ गायत्री दीक्षित, अदिति फडणीस और संतोष मैथ्यू के विचारों का सार

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संडे व्यू: लद्दाख क्यों है अशांत? संतुष्ट न हों दलित

(फोटोः फाइल)

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लद्दाख क्यों है अशांत?

पी स्टॉब्डन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि लेह में 24 सितंबर को हुई हिंसक झड़प ने पुलिस हस्तक्षेप की विफलता उजागर की है. 2022 से बढ़ते विरोधों के बावजूद, नए केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) प्रशासन ने अशांति संबोधित करने में कोई गंभीर प्रयास नहीं किया. अक्टूबर 2019 में जम्मू-कश्मीर से अलग होने के बाद लद्दाख में अशांति चली आ रही है. लेह में शुरूआती स्वागत के विपरीत, करगिल के शिया समुदाय ने यूटी दर्जे को "काला दिन" कहा. 2020 तक उत्साह फीका पड़ गया.

राजनीतिक प्रतिनिधित्व, नौकरी सुरक्षा और भूमि संरक्षण की चिंताएं उभरीं. अनुच्छेद 35ए के निरस्तीकरण ने बाहरी शोषण की आशंकाएं बढ़ाईं. मुख्य मुद्दा स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषदों (एलएएचडीसी-लेह और करगिल) की कमजोर शक्तियां हैं. लेफ्टिनेंट गवर्नर के नेतृत्व वाली यूटी ने इन्हें हाशिए पर धकेला, जिससे क्षेत्राधिकार टकराव और बाहरी प्रभुत्व की धारणा बनी.

स्टॉब्डन आगे लिखते हैं कि कई लद्दाखी पूर्व जे एंड के शासन को अधिक सुरक्षित मानते हैं. लेह के बौद्ध संवैधानिक गारंटी चाहते हैं, जबकि करगिल के शिया राज्य का दर्जा. इनकी मांगों के लिए केडीए (करगिल) और एपेक्स बॉडी (लेह) बने. 2020 में उच्च स्तरीय समिति (एचपीसी) गठित हुई, जो गृह मंत्रालय (एमएचए) से संवाद करती है.

प्रमुख मांग: 5,000 से ज्यादा नौकरियां भरना है. लेकिन छिटपुट वार्ताएं बेनतीजा रहीं, जिससे विरोध भड़के. भाजपा नेता थुपस्टान छेवांग और त्सेरिंग दोर्जी ने इस्तीफा दिया. असंतोष पार्टियों से परे है. मांगें संविधान की छठी अनुसूची (अनु. 244(2), 275(1)) के तहत स्वायत्तता पर केंद्रित हैं, जो जनजातीय क्षेत्रों को परिषदों से शक्ति देती है.

2020 एलएएचडीसी चुनावों में बहिष्कार धमकी पर अमित शाह ने छठी अनुसूची जैसी सुरक्षा का वादा किया, जिससे बीजेपी को 15 सीटें मिलीं. जनवरी 2020 में जी किशन रेड्डी समिति बनी, लेकिन कोविड और अतिक्रमणों से ठप. सरकार की निष्क्रियता ने अविश्वास गहराया. एमएचए केवल कुछ आंदोलनकारियों से निपटता है. अनु. 370 अस्वीकार के बाद सुरक्षावादी मांगों का सवाल वैध, लेकिन बदलती अपेक्षाओं को नजरअंदाज करता है. सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी तनाव बढ़ा सकती है.

‘पाकिस्तान घर जैसा लगना’ राष्ट्रविरोधी भावना?

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में पूछा है कि क्या ईमानदार भारतीय के लिए पाकिस्तान में घर जैसा महसूस करना अब अस्वीकार्य हो गया है? वे याद दिलाते हैं कि विभाजन से पहले लाखों भारतीय पाकिस्तानी प्रांतों में पैदा हुए. उनके माता-पिता, बहनें और चचेरे भाई लाहौर में जन्मे. उनकी नब्बे वर्षीय मां के "घर जाना" का मतलब लाहौर ही था, न कि दिल्ली के चट्टारपुर का फार्म. पिछले सप्ताह सैम पित्रोदा की निष्कपट टिप्पणी—"पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में मुझे घर जैसा लगता है"—पर टीवी चैनलों ने 15 मिनट का हमला बोला. बीजेपी प्रवक्ता ने उन्हें देशद्रोही ठहराया, लेकिन नेपाल-बांग्लादेश का जिक्र नजरअंदाज किया.

थापर लिखते हैं कि सच्चाई यह है कि एल.के. आडवाणी के लिए भी पाकिस्तान "घर" था. कराची में जन्मे आडवाणी 2005 में खुरशीद कसूरी के निमंत्रण पर परिवार संग गए. रवानगी से पहले उन्होंने कहा, "यह मेरी जड़ों की ओर वापसी है. ईश्वर दोनों देशों को शांति का मार्ग दिखाए." लाहौर में उन्होंने जोड़ा, "हर भारतीय में थोड़ा पाकिस्तान और हर पाकिस्तानी में थोड़ा भारत है." पंजाबी-बंगाली के लिए यह निर्विवाद सत्य है, लेकिन आज के राष्ट्रवादी चैनल इसे राजद्रोह मानते.

लेखक स्वयं 1980 से पाकिस्तान अक्सर जाते रहे. वहां की पंजाबी संस्कृति—भाषा, भोजन, रीति-रिवाज, रहन-सहन—भारतीय पंजाब से अविभाज्य है. गालियां भी एक जैसी, कभी प्रेम के शब्द बन जातीं. तमिल या कन्नड़ को अजनबी लगे, लेकिन अमृतसर-लुधियाना वालों को घर जैसा. इटानगर से कम समानता, अलीगढ़ से ज्यादा. करन लिखते हैं कि दुबई क्रिकेट विवाद ने दुखी किया. पहलगाम हमले के बाद खेलने का फैसला ठीक, लेकिन हारने वाली पाकिस्तानी टीम से हाथ न मिलाना असभ्य.

फिलीस्तान को प्रभावी बनाना ही शांति का मार्ग

डॉ मनन द्विवेदी और डॉ गायत्री दीक्षित ने टाइम्स ऑफ इंडिया में पूछा है कि नाम में क्या है? विलियम शेक्सपियर ने कहा था, "नाम में क्या है?" एक गुलाब गुलाब ही रहता है, जैसे लैब्राडोर कुत्ता. लेकिन जब कोई राष्ट्र या व्यक्ति संध्या क्षेत्र में जीने लगे—न दिन, न रात—तो उसकी नियति विवादित हो जाती है. फिलिस्तीन ऐसी ही भू-राजनीतिक पहेली है, जहां यहूदियों की तरह फिलिस्तीनी दशकों से भटकते, विस्थापित रहे हैं. फिलिस्तीन प्रश्न को इज़राइल-हमास युद्ध की चिंगारी से जोड़ें, तो यह बड़ा विस्फोट बन जाता है. 7 अक्टूबर 2023 को हमास आतंकियों ने इज़राइल के सीमा रिसॉर्ट में घुसकर 1,200 लोगों की हत्या की और 250 बंधकों को गाजा ले गए. तेल अवीव ने जबरदस्त जवाबी कार्रवाई की, जिससे गाजा तबाह हो गया.

डॉ द्विवेदी और डॉ गायत्री आगे लिखते हैं कि ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद फिलिस्तीन उभर सकता था, लेकिन इज़राइल-यहूदी विवाद सभी संघर्षों की जननी बन गई. पश्चिम एशिया में हूती, हमास, आईएस, लेबनान का हिजबुल्लाह, सीरिया के गुट शांति की राह में बाधा हैं. इतिहास को नजरअंदाज करने से वर्तमान विट्रियोल बढ़ता है. नेटन्याहू फिलिस्तीन को मान्यता नहीं देते; हमास इज़राइल को नहीं. फ्रांस, कनाडा, ब्रिटेन ने फिलिस्तीन को मान्यता देने का ऐलान किया है.

यूरोपीय देशों की सोच वैश्विक राजनीति में परिवर्तन ला रही है. यरूशलेम की साझा स्थिति और यहूदी बस्तियां भी विवादास्पद हैं. फरवरी 2025 से फिलिस्तीन संप्रभु राष्ट्र माना जाता है. संयुक्त राष्ट्र के 75% देश (147) फिलिस्तीन को मान्यता देते हैं. पीएलओ फिलिस्तीनियों का एकमात्र प्रतिनिधि है. मान्यता फिलिस्तीन को प्रबंधन में मदद करेगी, पर हमास (ईरान समर्थित) का गाजा प्रतिनिधित्व सवाल उठाता है. वाशिंगटन, सऊदी, मिस्र, कतर कूटनीति के केंद्र हैं. इन संधियों-कानूनों ने इज़राइल-फिलिस्तीन को हिंसक बनाया. फिलिस्तीन को प्रभावी बनाना ही शांति का रास्ता है.

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संतुष्ट न हों दलित

अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि दलित क्विट इंडिया पार्टी (DQIP) का संदेश स्पष्ट है: दलितों को और ज्यादा चाहिए. भारत में न मिले तो विदेश जाएं. बुद्धिजीवी चंद्र भान प्रसाद द्वारा स्थापित यह समूह दलित चिंतन को नई दिशा दे रहा है. हालांकि यह संगठन अभी राजनीतिक दल के रूप में पंजीकृत नहीं है. बाबासाहेब आंबेडकर का मूलमंत्र था: ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो.’ वे पहले अछूत थे जिन्होंने पीएचडी की और विदेश में पढ़े.

प्रसाद कहते हैं, अब दलित बच्चे सामान्य यूनिवर्सिटी से संतुष्ट न हों. महत्वाकांक्षी बनें. हार्वर्ड, कोलंबिया, एलएसई जैसे संस्थानों में पढ़ें, फर्राटेदार अंग्रेजी सीखें, STEM कौशल विकसित करें, विदेशी फैकल्टी बनें. महत्वाकांक्षाएं असीम रखें.

अदिति लिखती हैं कि कांशीराम की बीएसपी में क्षमता थी. लेकिन, उन्होंने समाज को आंबेडकर की बजाय पेरियार की ओर मोड़ा. दलित दुर्दशा पर फोकस किया. बामसेफ व्यक्ति-केंद्रित हो गया. सर्वजन बदलाव से चंद्रशेखर आजाद जैसे आक्रामक नेता उभरे. विदेश में डिग्री पर्याप्त नहीं. भेदभाव हर जगह है. आधे से अधिक अपनी जाति छिपाते हैं. कनिष्क एलुपुला (हार्वर्ड पीएचडी छात्र) ने कहा, “मैं अछूत के रूप में पहचाना जाना चाहता हूं.”: कोई दलित शीर्ष प्रबंधन में नहीं है. DICCI के नेतृत्व में दलित उद्यम फल-फूल रहे हैं. प्रवासी दलितों का एकजुट होना क्या प्रभावी होगा? कहना मुश्किल है. NRI गतिविधियां मुद्दे उठाती हैं, लेकिन हिंसा बढ़ रही.

नाजुक चौराहे पर 80 वर्षीय संयुक्त राष्ट्र

संतोष मैथ्यू ने पायोनियर में डाग हैमरश्शोल्ड के हवाले से लिखा है “संयुक्त राष्ट्र का निर्माण मानवजाति को स्वर्ग ले जाने के लिए नहीं, बल्कि नरक से बचाने के लिए किया गया था”. द्वितीय विश्व युद्ध की राख से 1945 में जन्मा यूएनओ “फिर कभी नहीं” की प्रतिज्ञा का प्रतीक था. शांति, संवाद और राष्ट्रों के बीच सहयोग का वादा था. आज संयुक्त राष्ट्र नाजुक चौराहे पर खड़ा है. महाशक्तियों में स्पर्धा और राष्ट्रवाद के दरम्यान बेहद कमजोर हो चुकी है यह वैश्विक संस्था. गाजा में नागरिक पीड़ा और सहायता की आवश्यकता पर टिप्पणियों के बाद महासचिव एंटोनियो गुटेरेस को इजराइल ने गैर वांछित व्यक्ति घोषित किया है. इजराइल ने इन्हें पक्षपाती बताकर स्व-रक्षा अधिकार पर हमला माना.

गुटेरेस से दूरी संयुक्त राष्ट्र को निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में हाशिए पर धकेलना है. यह घटना गहन चिंतन कराती है: क्या संयुक्त राष्ट्र अभी भी वह वैश्विक मेज है जहां शत्रु मिलें? या यह राष्ट्रीय शिकायतों का एक और मंच बन गया? उत्तर मुख्यतः शक्तिशाली राष्ट्रों के रवैये पर निर्भर है. दुर्भाग्य से दृष्टिकोण चिंताजनक है. वाशिंगटन में ट्रंप का दूसरा कार्यकाल संयुक्त राष्ट्र संशय को बढ़ाता है. पहले कार्यकाल (2017–21) ने इसे अप्रभावी बनाया. अब “अमेरिका फर्स्ट” इसे संसाधनों की बर्बादी दिखाता है.

डोनाल्ड ट्रंप का “सात युद्ध समाप्त” करने का दावा सुरक्षा परिषद को कमजोर करता है. चीन, रूस सभी यूएन का इस्तेमाल कर रहे हैं. परिणाम घातक हैं. फिर भी संयुक्त राष्ट्र को अप्रासंगिक कहना गलत है. युद्ध क्षेत्रों में मानवीय कार्य, शरणार्थी सहायता, जलवायु वार्ताएं, डब्ल्यूएचओ का महामारी समन्वय—ये अपरिहार्य हैं. समस्या सदस्य राष्ट्रों की राजनीतिक इच्छाशक्ति में है. 80 वर्षीय संयुक्त राष्ट्र नवीनीकरण का अवसर भी है. यूएन में सुधार की मांगें पुरानी हैं जिनमें शामिल हैं सुरक्षा परिषद विस्तार. भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसी मध्यम शक्तियां निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं. संयुक्त राष्ट्र दिवस स्मृति न हो, कार्रवाई का आह्वान हो. संघर्ष, अविश्वास, पॉपुलिस्ट बयानबाजी से भरे विश्व में, संयुक्त राष्ट्र मानवता का अपूर्ण लेकिन अपरिहार्य रक्षक है.

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