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संडे व्यू: कैसे पूरा होगा विकसित भारत का सपना? अतीत की परछाई में बिहार की कथा

पढ़ें इस रविवार अदिति फडनीस, अभिषेक अस्थाना, रामचंद्र गुहा, नीरज कौशल और तवलीन सिंह के विचारों का सार.

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संडे व्यू: कैसे पूरा होगा विकसित भारत का सपना? अतीत की परछाई में बिहार की कथा

फोटो: फाइल 

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शिक्षा के बिना कैसे पूरा होगा विकसित भारत का सपना?

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि हैरानी है कि विकसित भारत के निर्माण के लिए जो लक्ष्य 2047 तक तय किया गया है, उसमें शिक्षा का जिक्र ही नहीं है. विकसित भारत का सपना बिना शिक्षा के अधूरा है. शिक्षा के बिना कोई भी देश सच्चे अर्थों में विकसित नहीं हो सकता. हमारा शिक्षा तंत्र आज भी औपनिवेशिक काल का है, जहां रट्टा मारना ही मुख्य उद्देश्य है. शिक्षा मंत्रालय का बजट 1.25 लाख करोड़ रुपये है, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र 3 प्रतिशत है. जबकि कोठारी आयोग की सिफारिश के अनुसार 6 प्रतिशत का लक्ष्य 1968 से अधूरा पड़ा है.

यह कमी शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है. ग्रामीण स्कूलों में शिक्षकों की कमी है, कक्षाएं अधूरी चलती हैं, और बुनियादी सुविधाएं जैसे शौचालय, पीने का पानी और लाइब्रेरी नदारद हैं. नई शिक्षा नीति 2020 ने वादा किया था कि 5+3+3+4 की संरचना से बदलाव आएगा, व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा, और डिजिटल लर्निंग को प्रोत्साहन दिया जाएगा. लेकिन अमल में देरी हो रही है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि कोविड महामारी के बाद ऑनलाइन शिक्षा का दावा किया गया, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट और डिवाइस की कमी ने इसे बेअसर बना दिया. शिक्षकों की स्थिति और भी दयनीय है. उन्हें न्यूनतम वेतन नहीं मिलता, प्रशिक्षण की कमी है, और राजनीतिक हस्तक्षेप से उनका मनोबल टूटता है. विकसित देशों में शिक्षक समाज का सम्मानित वर्ग होते हैं, लेकिन भारत में वे उपेक्षित हैं. बिना सशक्त शिक्षकों के युवा पीढ़ी का भविष्य अंधकारमय है. सरकार का फोकस स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया पर है, जो सराहनीय है, लेकिन बेसिक शिक्षा पर निवेश के बिना यह बेमानी है.

विकसित भारत का सपना साकार करने के लिए शिक्षा को प्राथमिकता देनी होगी. यदि 2047 तक हम 6% बजट शिक्षा पर खर्च करें, तो ही साक्षरता दर 100% पहुंच सकती है और नवाचार को बढ़ावा मिलेगा.अंत में, विकसित भारत केवल आर्थिक विकास नहीं, बल्कि मानवीय विकास है. शिक्षा ही वह पुल है जो गरीबी, असमानता और अज्ञान को समाप्त कर सकता है. सरकार को अब सोचना पड़ेगा कि क्या वह इस दिशा में कदम उठाएगी या सपना ही सपना रहेगा.

जेडीएस-बीजेपी गठबंधन की उलझनें

अदिति फडनीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि पिछले पखवाड़े पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने उत्तर कर्नाटक की बाढ़ प्रबंधन पर कांग्रेस सरकार की आलोचना की. जेडीएस के 92 वर्षीय संस्थापक ने संवाददाता सम्मेलन में स्पष्ट कहा कि एनडीए को किसी चुनाव में खतरा नहीं, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके व्यक्तिगत संबंध अटूट हैं. गठबंधन में दरार डालने की कोशिशों को नाकाम ठहराते हुए उन्होंने जेडीएस की स्वायत्तता पर जोर देते हुए बेंगलूरु निकाय चुनावों में 50-60 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा.

मैसूरु दशहरा उत्सव में बुकर विजेता बानू मुश्ताक को उद्घाटन के लिए आमंत्रित करने पर जेडीयू-बीजेपी भिड़ गये. भाजपा नेता प्रताप सिन्हा ने इसे हिंदू परंपराओं का अपमान बताया, जबकि केंद्रीय मंत्री एचडी कुमारस्वामी ने बानू मुश्ताक के निमंत्रण का समर्थन किया. सर्वोच्च न्यायालय ने जुलूस को सांस्कृतिक घोषित कर विवाद शांत किया. मंड्या में गणेश विसर्जन के दौरान सांप्रदायिक झड़पों पर भी कुमारस्वामी ने सरकार की निंदा की.

जेडीएस का खराब प्रदर्शन चिंताजनक है. 2023 विधानसभा चुनाव में 37 से घटकर 20 सीटें मिलीं, वोट शेयर 18.3% से 13.3% पर गिरा. मैसूरु चलो यात्रा में प्राथमिकता विवाद, भाजपा नेतृत्व में अनिश्चितता और प्रज्वल रेवन्ना यौन अपराध मामले पर चुप्पी. केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कार्रवाई का समर्थन किया, लेकिन आंतरिक कलह साफ है. जेडीएस अल्पसंख्यक वोटों पर नजर रखे हुए है, जबकि कांग्रेस की आंतरिक कमजोरी नए समीकरण रच सकती है. जेडीएस विकल्प तलाश रही है.

अतीत की परछाई में बिहार की कथा

अभिषेक अस्थाना ने हिन्दुस्तान टाइम्स में बचपन की यादों से बिहार की सियासत समझाने की कोशिश दिखलाई है. 13 साल की उम्र से 1980-90 के दशक की बात बताते हैं. उस दौर में अपराध का सामना कभी न करना उनके लिए सामान्य था क्योंकि वे गरीब थे. माता-पिता को कभी चिंता न थी कि कोई वैन रुककर बच्चे को छीन ले जाए या कार लूट ली जाए—क्योंकि न कार थी, न सोने की चेन. गरीबों के दुश्मन सिर्फ मच्छर थे. अपराध का डर ही धनाढ्यों का प्रतीक था; वे बच्चों को दूर के बोर्डिंग स्कूल भेजते, जबकि गरीब स्कूल बसों में ठुंसे जाते, बिना भय के.

अभिषेक लिखते हैं कि 13 साल बाद बाहर जाकर ही पता चला कि अंतिम नाम जाति दर्शाते हैं. धन और जाति छिपाकर ही शांति मिलती. भ्रष्टाचार को बुराई न मानकर ईर्ष्या का विषय समझा जाता. अगर अधिकारी पिता की मृत्यु प्रमाण-पत्र के लिए रिश्वत मांगता, तो नफरत न होकर लालच जागता—हम भी उसी पद पर पहुंचें. भ्रष्टाचार आकांक्षी था; चमकदार छात्र कांस्टेबल बनने के लिए रातें जागते, प्रमोशन से बचने को रिश्वत देते, ताकि 'सूखे' विभाग में न जाएं. ऐसे अधिकारियों के कारण नई बुनियादी ढांचा न बनी.

बिहार समय-यात्रा में फंसा था—न अपराधी डराते, न बेहतर जीवन की मांग. पीएचडी वाले चपरासी बनने को ललायित; चपरासी फाइल रखने को प्रोफेसर की तनख्वाह वसूलते. निकास का रास्ता था कोचिंग संस्थान—बाजार के होर्डिंग्स पर सफल छात्रों की फोटो, विदेश जाने का सपना बेचते. भविष्य निधि तोड़कर फीस चुकाओ, जीवनभर लाभ. गंदे पानी में चलते लोग सपने देखते. बिहार बदला है, लेकिन पुरानी धारणा बनी रहती. एनआरआई भारत को समाजवादी नर्क मानते हैं, वैसे ही गैर-निवासी बिहारी बिहार को.

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गाजा युद्धविराम: शांति की लंबी राह और ऐतिहासिक सबक

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि किसी भी राष्ट्रीयता या धर्म से जुड़ा हर विवेकी व्यक्ति गाजा में युद्धविराम से राहत महसूस करेगा. हमास द्वारा बंधकों की रिहाई, इज़राइली सेना का क्रूर हमला रुकना और पीड़ित फिलिस्तीनियों तक भोजन-दवा पहुंचना—ये सकारात्मक हैं. लेकिन यह केवल छोटा-सा पहला कदम है; शांति और न्याय की राह कठिन, जटिल है, जिसमें कई बाधाएं हैं. युद्धविराम से ठीक पहले लेखक ने दो किताबें पढ़ीं, जो 1980 के दशक की हैं और इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष को साइडशो मानती हैं. फिर भी, इनमें 40 साल पुरानी टिप्पणियां आज प्रासंगिक हैं.

गुहा आगे लिखते हैं कि पहली किताब दक्षिण अफ्रीकी स्वतंत्रता सेनानी जो स्लोवो की आत्मकथा है. लिथुआनियाई यहूदी मूल के स्लोवो ने 1930 के दशक में जोहान्सबर्ग में बस गए. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1946 में फिलिस्तीन होते हुए लौटे. तेल अवीव के निकट किबुट्ज़ देखा, जो समाजवादी जीवन का प्रतीक लगता था—धनी यहूदियों के आदर्शवादी बच्चों द्वारा बसाया गया. लेकिन निकट से देखा तो बाइबिल का आदेश हावी था: हर यहूदी फिलिस्तीन पर दावा करे. इससे 5,000 वर्ष पुरानी आबादी का विस्थापन हुआ.

स्लोवो ने 1980 के दशक में लिखा कि होलोकॉस्ट की भयावहता ज़ायनिस्ट नरसंहार का औचित्य बनी, जिससे विस्तार युद्ध शुरू हुए. दूसरी किताब मैक्सिकन लेखक ओक्टावियो पाज़ (नोबेल विजेता, पूर्व भारतीय राजदूत) का निबंध संग्रह 'वन अर्थ, फोर ऑर फाइव वर्ल्ड्स' है. 1980 के दशक में पाज़ ने फिलिस्तीनी गुरिल्लाओं के आतंकी कृत्यों की निंदा की, लेकिन उनकी आकांक्षा को वैध माना. उन्होंने कहा, "यहूदियों और अरब एक ही तने की शाखाएं हैं.“ अतीत में सह-अस्तित्व संभव था, लेकिन जिद हत्या का कारण बनी. बाद में ओस्लो समझौते हुए: पीएलओ ने इज़राइल को मान्यता दी, इज़राइल ने वेस्ट बैंक-गाजा से फिलिस्तीनी राज्य स्वीकारा. लेकिन, 30 वर्षों में इज़राइल मजबूत हुआ, फिलिस्तीनियों का सपना चकनाचूर. स्लोवो और पाज़ की भविष्यवाणियां सटीक हैं. हमास के तरीके पुराने गुरिल्लाओं से भी कट्टर हैं, लेकिन इज़राइली जिद का औचित्य नहीं.

ट्रंप के बाद भी बदलेगा अमेरिकी रुख?

नीरज कौशल ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि अमीर देशों की ओर ले जाने वाले रास्ते सिकुड़ रहे हैं, क्योंकि अमेरिका जैसे राष्ट्र अप्रवासन के प्रति शत्रुतापूर्ण हो रहे हैं. क्या यह क्षणिक तूफान है या नई युग की झलक? दुर्भाग्य से, उत्तर बाद वाला है. 21 सितंबर 2025 को, दूसरे कार्यकाल के नौ महीने में ही, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कुशल विदेशी श्रमिकों के लिए नए एच-1बी वीजा आवेदनों पर 1 लाख डॉलर का शुल्क लगा दिया. यह मामूली बदलाव नहीं, भूकंप है. एच-1बी याचिकाएं 70% से अधिक भारत से आते हैं. इंफोसिस और टीसीएस जैसे टेक दिग्गजों के शेयर गिरे, क्योंकि आउटसोर्सिंग और भर्ती रुकावट की आशंका बढ़ी.

"यह क्रूर मजाक है," एक बेंगलुरु इंजीनियर ने ट्वीट किया, जो आईआईटी कक्षाओं से गढ़े अमेरिकी सपनों के टूटने को प्रतिबिंबित करता है. ट्रंप इसे अमेरिकी मजदूरी की रक्षा बताते हैं, लेकिन व्यापार लॉबी जैसे यूएस चैंबर ऑफ कॉमर्स ने मुकदमे दायर किए, दावा किया कि यह नवाचार को नष्ट करेगा. भारतीय पेशेवरों के लिए यह व्यक्तिगत आघात है. छात्र जर्मनी-कनाडा की ओर रुख कर रहे, जहां वीजा आसान हैं. लेकिन घबराहट के नीचे चांदी का लिब्बा है: जागृति. दशकों से ब्रेन ड्रेन सम्मान का प्रतीक रहा—हमारे सबसे होनहार सिलिकॉन वैली भागे, अरबों रेमिट करते हुए शिक्षा को भूखा छोड़ा.

2024 में 1.3 लाख से अधिक भारतीयों को एच-1बी मिले, जो यूएस टेक को संभालते रहे. यह ट्रंप की देन नहीं. बाइडेन के दौर में भी भारतीयों के लिए वीजा बैकलॉग दशकों का था. नया शुल्क—केवल नई याचिकाओं पर—ट्रेंड तेज करता है. अल जज़ीरा के अनुसार, "विदेशी श्रमिक भर्ती की लागत स्थानीय से अधिक हो गई." भारतीय आईटी फर्में एआई और घरेलू बाजारों की ओर मुड़ रही हैं. हैदराबाद के एक स्टार्टअप संस्थापक ने रॉयटर्स को कहा, "हम कोडर एक्सपोर्ट नहीं कर रहे; घर से विचार आयात कर रहे हैं." भारत का जवाब तीखा. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने संसद में कहा, "वे हमारे टैलेंट से डरते हैं," 4.5 लाख भारतीय मूल के स्टेम वर्कर्स का जिक्र करते हुए जो यूएस जीडीपी चलाते हैं. लेकिन बयानबाजी से पुनर्निर्माण नहीं होगा. अजीम प्रेमजी जैसे परोपकारी ने आईआईटी को अरबों दिए; अन्य अनुसरण करें. सरकारें भी—6% जीडीपी शिक्षा पर, न कि 3%. विदेश का तूफान बीत नहीं रहा; यह आंधी है जो घर लौटने को बाध्य कर रही. ऐसी यूनिवर्सिटी बनाएं जो भागना अप्रासंगिक बना दें.

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