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संडे व्यू: बदला ले रहे हैं ट्रंप? नए साम्राज्यवाद के लिए तैयार रहे भारत

पढ़ें करन थापर, अपार गुप्ता, नैवेद्य दास, अदिति फडणीस, भानु प्रताप मेहता, टीसीए शरद राघवन के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>पढ़ें इस रविवार करन थापर, अपार गुप्ता, नैवेद्य दास, आदिति फडणीस, भानु प्रताप मेहता, टीसीए शरद राघवन के विचारों का सार.</p></div>
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पढ़ें इस रविवार करन थापर, अपार गुप्ता, नैवेद्य दास, आदिति फडणीस, भानु प्रताप मेहता, टीसीए शरद राघवन के विचारों का सार.

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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बदला ले रहे हैं ट्रंप?

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि राष्ट्रपति ट्रम्प क्या भारत के प्रति प्रतिशोधी रवैया अपना रहे हैं? उनके प्रशासन की कार्रवाइयां—रूसी तेल आयात के लिए भारत पर 50% शुल्क, H1B वीजा प्रतिबंध, और भड़काऊ बयानबाजी—यह सवाल उठाती हैं. ये कदम भारत-अमेरिका संबंधों, विशेष रूप से लोगों के बीच के रिश्तों को कमजोर कर सकते हैं. वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक H1B वीजा में बदलाव चाहते हैं, जो 75% भारतीय लाभार्थियों को प्रभावित कर सकता है, जबकि उप-राष्ट्रपति जे.डी. वेंस ने रूस पर दबाव के लिए भारत पर 25% शुल्क को उचित ठहराया है.

थापर लिखते हैं कि ट्रेजरी सचिव स्कॉट बेसेन्ट ने भारत पर रूस के युद्ध को वित्तपोषित करने का आरोप लगाया, और व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने यूक्रेन युद्ध को “मोदी का युद्ध” करार दिया. ट्रम्प ने भारत की अर्थव्यवस्था को “मृत” बताकर इसकी अनदेखी की है. लेखक पूछ रहे हैं कि क्या यह प्रतिशोध है या ट्रम्प की “अमेरिका पहले” नीति का हिस्सा?

शुल्क, जो 27 अगस्त, 2025 से लागू हुए हैं, भारत के कपड़ा, रत्न, और ऑटो पार्ट्स जैसे क्षेत्रों को निशाना बनाते हैं, जो लाखों रोजगारों को प्रभावित करेंगे. रूस के तेल आयात, जिसे पहले पश्चिम ने प्रोत्साहित किया था, अब भारत के लिए सजा का कारण बन गया है. चीन को छूट मिलने और अमेरिका के रूसी आयात जारी रखने से दोहरे मापदंड का संकेत मिलता है. भारत ने इन शुल्कों को “अनुचित” बताया और वैकल्पिक बाजारों की तलाश का संकेत दिया है. ट्रम्प-मोदी के पहले के गर्मजोशी भरे संबंध अब तनावग्रस्त हैं. भारत को इस आर्थिक और कूटनीतिक चुनौती का सामना दृढ़ता और रणनीतिक स्वायत्तता के साथ करना होगा, ताकि अमेरिका के साथ साझेदारी बनी रहे और हित सुरक्षित रहें.

पत्रकारीय उद्देश्यों को ठेंगा दिखाता है डाटा कानून?

अपार गुप्ता और नैवेद्य दास ने टेलीग्राफ में लिखा है कि पत्रकारिता नामों, दस्तावेजों और समय-सीमाओं पर चलती है. डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023, और इसके मसौदा नियम इन सभी को “व्यक्तिगत डेटा” के रूप में नियंत्रित करते हैं, जिससे कार्यकारी शक्ति न्यूज़रूम पर हावी हो जाती है. यह कानून गोपनीयता कार्यकर्ताओं द्वारा व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा में विफल रहने के लिए आलोचित है, फिर भी यह पत्रकारों और RTI कार्यकर्ताओं पर अंकुश लगाता है. यह प्रेस को धीमा नहीं करेगा, बल्कि उस साहस और दिनचर्या को कमजोर करेगा जिसने दशकों तक भारत के सार्वजनिक जीवन को स्वच्छ किया. यह कानून पत्रकारीय उद्देश्य को मान्यता नहीं देता.

गुप्ता और दास लिखते हैं कि प्रत्येक पत्रकार, संपादक और स्वतंत्र डिजिटल न्यूज़ आउटलेट को “डेटा फिड्यूशियरी” बनाता है, जिसे नोटिस जारी करना, सहमति लेना और डेटा मिटाने की मांग का पालन करना होगा. यह पत्रकारों से कहानी के बदलने पर भी डेटा उपयोग की भविष्यवाणी करने की अपेक्षा करता है.

“महत्वपूर्ण डेटा फिड्यूशियरी” जैसा अस्पष्ट पदनाम बड़े प्रकाशकों पर ऑडिट और दखल देने वाले कागजी काम थोपता है. सहमति-आधारित व्यवस्था में स्टिंग ऑपरेशन असंभव हो जाएंगे. यह कानून RTI अधिनियम को भी कमजोर करता है, जो सार्वजनिक हित में व्यक्तिगत जानकारी प्रकट करने की अनुमति देता था. अब “व्यक्तिगत डेटा” के नाम पर आदर्श हाउसिंग, कॉमनवेल्थ गेम्स, या नोटबंदी जैसे खुलासे रोके जा सकते हैं.

सरकार को “जानकारी मांगने” की असीमित शक्ति मिलती है, जिससे नोट्स, रिकॉर्डिंग्स और स्रोत उजागर हो सकते हैं. सीमा-पार डेटा हस्तांतरण नियम पत्रकारिता को बाधित करते हैं. पेगासस जैसे अंतरराष्ट्रीय सहयोग अब जोखिम में हैं.

बिना पत्रकारीय छूट के, भारी जुर्माने और डेटा संरक्षण बोर्ड की सरकारी नियंत्रण प्रक्रिया स्रोतों को डराएगी. छोटे स्वतंत्र न्यूज़ आउटलेट्स, जो जांच-पड़ताल करते हैं, जटिल अनुपालन बोझ से दब जाएंगे. यह कानून बोफोर्स, हर्षद मेहता, 2G, और पनामा जैसे खुलासों को असंभव बना देगा. गोपनीयता नागरिक की ढाल है, लेकिन स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र की तलवार है. यह कानून दोनों के बीच अंतर नहीं समझता.

बीजेपी अब उद्धव-राज की साझा शत्रु

अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र में गणपति कूटनीति का अवसर है, जहां मनमुटाव भुलाए जाते हैं. उद्धव ठाकरे 2006 में बाल ठाकरे द्वारा उद्धव को उत्तराधिकारी बनाने के बाद अलग हुए राज ठाकरे के निवास पर गणपति पूजा के लिए पहुंचे. राज ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बनाई थी, जो उनकी निजी पीड़ा की राजनीतिक प्रतिक्रिया थी. मनसे का राजनीतिक प्रदर्शन कमजोर रहा. 2009 के विधानसभा चुनाव में 13 सीटें जीतीं, लेकिन 2014 में केवल एक सीट मिली. 2024 में उद्धव के उम्मीदवार ने माहिम में राज के बेटे अमित को हराया. उद्धव की शिव सेना ने सरकार बनाई, लेकिन एकनाथ शिंदे के बीजेपी में शामिल होने से विभाजन हुआ.

अदिति लिखती हैं कि दोनों ठाकरे अब बीजेपी को साझा शत्रु मानते हैं. 2026 में बीएमसी और स्थानीय निकाय चुनाव होंगे. ठाकरे परिवार की एकजुटता बीजेपी के खिलाफ रणनीति हो सकती है, लेकिन शिंदे-फडणवीस प्रतिद्वंद्विता इसका लाभ उठा सकती है. राज का मराठी सम्मान का विचार पुराना है, जो गैर-मराठी मतदाताओं (गुजराती, उत्तर भारतीय, जैन) को अलग कर सकता है.

हाल की घटनाएं, जैसे हिंदी को तीसरी भाषा बनाने और कबूतरखानों को ढकने के फैसले (जो वापस लिए गए), बीजेपी-शिव सेना तनाव को दर्शाती हैं. बीजेपी की स्वीकार्यता बढ़ रही है, खासकर युवाओं में, जो शिव सेना के मराठी माणूस के विचार से कम प्रभावित हैं. मुंबई में बीजेपी ने 15 सीटें जीतीं, जिसमें सेना का गढ़ गोरेगांव भी शामिल है. ठाकरे एकता शिंदे के समर्थकों को बीजेपी की ओर खींच सकती है. महाराष्ट्र का बदलता जनांकिकीय और राजनीतिक परिदृश्य सत्ता की नई राजनीति को दर्शाता है. आने वाले महीने और बदलाव ला सकते हैं.

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नए साम्राज्यवाद के लिए तैयार रहे भारत

भानु प्रताप मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत को उभरती विश्व व्यवस्था में नए साम्राज्यवाद के खिलाफ तैयार रहना होगा. भारत चकित हुआ, लेकिन दबाव में नहीं झुका. फिर भी, यह उद्देश्यपूर्ण सुधारों को लागू करने में विफल रहा. सार्वजनिक बहस में राज्य की भूमिका पर ध्यान है, लेकिन एक और परेशान करने वाला सवाल है: क्या भारतीय पूंजी राष्ट्रीय नवीकरण में अपनी भूमिका निभा सकती है? दशकों तक, राज्य ने अत्यधिक नियमन और नीतिगत अस्थिरता से व्यवसायों को जकड़ा. लेकिन सवाल यह है कि क्या भारतीय पूंजीवाद वैश्विक चुनौती का सामना कर सकता है?

मेहता लिखते हैं कि निजी निवेश एक दशक से ठप है. व्यवसायी नेताओं में अपनी अर्थव्यवस्था पर भरोसा कम दिखता है. हालांकि, क्रेडिट, लॉजिस्टिक्स और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में सुधार हुआ है, फिर भी निवेश क्यों नहीं बढ़ा? दो संभावनाएं हैं: या तो व्यवसायिक माहौल आधिकारिक दावों से अधिक खराब है, या भारतीय पूंजी वैश्विक प्रतिस्पर्धा में कमजोर है.

इतिहास बताता है कि भारतीय पूंजीवाद व्यापारिक वर्गों से उभरा, जो मुनाफाखोरी में माहिर थे, न कि निर्माण में. 1950-60 के दशक में लाइसेंस और वित्त के दुरुपयोग से वैश्विक स्तर की कंपनियाँ नहीं बनीं, जैसा कि पूर्वी एशिया में सैमसंग या हुंडई जैसी कंपनियाँ बनीं. उदारीकरण के बाद भी पूंजी एकाग्रता बढ़ी, और अंबानी, अदानी जैसे समूहों का वर्चस्व बढ़ा, जो प्रतिस्पर्धा को विकृत करता है. वित्तीय क्षेत्र में जोखिम लेने की कमी है. भारतीय पूंजी मुनाफाखोरी और सट्टेबाजी पर केंद्रित है, न कि विश्वस्तरीय उत्पाद बनाने पर. मानव पूंजी में निवेश की कमी और श्रमिकों के प्रति अवहेलना उत्पादकता को प्रभावित करती है. विदेशी निवेश भी आत्मविश्वास की कमी दर्शाता है, जो अक्सर विदेशी ब्रांड खरीदने तक सीमित है.भारतीय व्यवसाय पॉपुलिज्म की आलोचना करते हैं, लेकिन पूंजी के दुरुपयोग ने भी नुकसान किया.

व्यवसाय-नियंत्रित मीडिया ने दीर्घकालिक पूंजीवादी विकास के बजाय सांप्रदायिक विचलन को बढ़ावा दिया. आज, जब राज्य अधिक खुला है, भारतीय पूंजी में जोखिम लेने, नेतृत्व या निर्माण की महत्वाकांक्षा की कमी है. नया साम्राज्यवाद राज्य और पूंजी के सहयोग की मांग करता है, लेकिन भारतीय पूंजी अनुपस्थित है.

जीएसटी में सुधार से राज्यों को नुकसान की भरपाई कैसे हो?

द हिन्दू में टी.सी.ए.शरद राघवन ने प्रतीक जैन और मनोज मिश्रा के साथ चर्चा की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस भाषण में अगली पीढ़ी के जीएसटी सुधारों को “दीपावली उपहार” बताया. वित्त मंत्रालय ने कहा कि ये सुधार मौजूदा चार-स्तरीय जीएसटी को मुख्य रूप से 5% और 18% के दो-स्तरीय ढांचे में बदलेंगे, साथ ही औसत कर दर कम होगी. इसका राजस्व पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और क्या राज्यों को राजस्व नुकसान की भरपाई करनी चाहिए?

शरद राघवन का सवाल है कि दो-स्तरीय जीएसटी (5% और 18%) और कम औसत कर दर का राजस्व पर क्या असर होगा? प्रतीक जैन जवाब देते हैं कि 12% स्लैब के 99% और 28% स्लैब के 90% आइटम क्रमशः 5% और 18% में जाएंगे, जिससे औसत कर दर 11.6% से घटकर 9.5% हो सकती है.

पिछले साल जीएसटी संग्रह ₹22 लाख करोड़ था, जिसमें 18% स्लैब से 67% राजस्व आया. नई दरों से ₹1.5-2 लाख करोड़ का अल्पकालिक नुकसान हो सकता है, लेकिन बढ़ती खपत और अनुपालन इसे संतुलित कर सकता है. उपभोक्ता वस्तुओं पर कम कर से मांग बढ़ेगी, जिससे कर आधार विस्तार होगा. केंद्र और राज्य समान रूप से राजस्व साझा करते हैं, इसलिए दोनों को नुकसान होगा, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टिकोण सकारात्मक है.

वहीं तीन विद्वानों की बातचीत में मनोज मिश्रा का हस्तक्षेप यह है कि अल्पकालिक राजस्व हानि चिंता का विषय है, लेकिन सुधारों से अनुपालन सरल होगा. मार्च 2026 तक मुआवजा उपकर समाप्त होने से दरों को युक्तिसंगत बनाने की गुंजाइश बढ़ेगी. राज्यों, जो जीएसटी पर निर्भर हैं, को अधिक प्रभाव झेलना पड़ सकता है. कीमतों में कमी उपभोक्ताओं तक पहुंचे, यह सुनिश्चित करना होगा.

टीसीए शरद राघवन का सवाल है कि क्या केंद्र को राज्यों के राजस्व नुकसान की भरपाई करनी चाहिए? प्रतीक जैन को आशंका है कि मुआवजा उपकर समाप्त होने से राज्यों को नुकसान होगा. सहकारी संघवाद के लिए अस्थायी मुआवजा जरूरी हो सकता है, वरना राज्य विरोध करेंगे. केंद्र का तर्क है कि दीर्घकालिक लाभ राज्यों को मिलेंगे.

मनोज मिश्रा राज्यों की चिंता को जायज बताते है. अस्थायी समर्थन जैसे राजस्व-साझाकरण मॉडल सहायक हो सकता है. सितंबर 2025 की जीएसटी परिषद बैठक महत्वपूर्ण होगी. प्रतीक जैन जहां सुधार तो महत्वाकांक्षी बताते हैं. यदि अनुपालन और खपत बढ़ी, तो राजस्व हानि प्रबंधनीय होगी. मनोज मिश्रा का मानना है कि निष्पादन, डिजिटल प्रणाली और केंद्र-राज्य सहयोग से सुधारों की सफलता निर्भर है.

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