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'दिशोम गुरु': एक राजनीतिक शख्सियत, आदिवासी चेतना और आंदोलन के पर्याय

शिबू सोरेन सिर्फ एक मजबूत राजनीतिक हस्ताक्षर अथवा लीडर नहीं, आदिवासी चेतना, संघर्ष और आंदोलन के पर्याय थे.

नीरज सिन्हा
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>सोमवार, 4 अगस्त की सुबह शिबू सोरेन के अंतिम सांस लेने की आई खबर ने लाखों लोगों को झकझोर कर रख दिया.</p></div>
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सोमवार, 4 अगस्त की सुबह शिबू सोरेन के अंतिम सांस लेने की आई खबर ने लाखों लोगों को झकझोर कर रख दिया.

(फोटो: अल्टर्ड बाय द क्विंट)

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पिछले डेढ़ महीने से शिबू सोरेन के स्वस्थ होने को लेकर राजनीतिक गलियारे से लेकर समाज के हर वर्ग के लोग और उनके चाहने वाले प्रार्थनाएं कर रहे थे. लेकिन सोमवार, 4 अगस्त की सुबह शिबू सोरेन के अंतिम सांस लेने की आई खबर ने लाखों लोगों को झकझोर कर रख दिया. हर तरफ उदासी और देशभर से शोक संदेश का तांता. अपने-अपने तरीके से शिबू सोरेन को याद किया जाने लगा.

लंबे समय से स्वास्थ्य संबंधी समस्या से गुजरते ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन को 19 जून को नई दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में भर्ती कराया गया था. झारखंड के मुख्यमंत्री और शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन खुद लगातार दिल्ली में पिता की देखरेख में जुटे थे.

सबसे पहले हेमंत सोरेन ने अपने आधिकारिक एक्स (पहले ट्विटर) अकाउंट पर शिबू सोरेन के निधन की खबर साझा की थी. हेमंत सोरेन ने लिखा, "आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सभी को छोड़कर चले गए हैं. आज मैं शून्य हो गया हूं..." जाहिर तौर पर इस खबर ने लोगों को मर्मात किया.

दरअसल, शिबू सोरेन सिर्फ एक मजबूत राजनीतिक हस्ताक्षर अथवा लीडर नहीं, आदिवासी चेतना, संघर्ष और आंदोलन के पर्याय थे. एक विचार थे. महाजनी प्रथा के खात्मा की लड़ाई, झारखंड अलग राज्य गठन का आंदोलन या फिर आदिवासियों के हक-अधिकार, मान- सम्मान और जमीन, जंगल की रक्षा के लिए किसी जनसंघर्ष को जब कभी याद किया जाएगा, तो शिबू सोरेन का नाम प्रमुखता से और पहले आएगा. और ऐसा हो भी क्यों नहीं.

शिबू सोरेन के जनसंघर्षों, राजनीतिक जीवन के कई मोड़ पर आए झंझावातों पर एक नजर डालें, तो यही लगेगा कि शिबू सोरेन ने एक अमिट लकीर खींची है. वह मुकाम हासिल किया, जिसे कोई दूसरा कतई हासिल नहीं कर सकता.

दिल्ली में पीएम मोदी ने शिबू सोरेन को श्रद्धांजलि अर्पित की.

(फोटो: X)

नेमरा गांव के शिबू ने पीछे मुड़कर नहीं देखा

11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में जन्म लेने वाले शिबू सोरेन की उम्र 12-13 साल की थी, तभी उनके पिता सोबरन मांझी की हत्या हो गई. सोबरन मांझी एक शिक्षक होने के साथ आदिवासी समुदाय के सवालों, मुद्दों पर आवाज मुखर करते थे. महाजनी प्रथा के खिलाफ गोलबंद होने के लिए आदिवासियों को जगाते थे. पिता की हत्या की वजहें शिबू सोरेन बखूबी समझ गए थे. उन्होंने बदला लेने का संकल्प लिया- “बदला लेंगे. लेकिन सिर्फ पिता की हत्या का नहीं, पूरे आदिवासी समाज की इस असाह्य पीड़ा की.” उनके सीने में जो चिंगारियां दफन थी, वह उनके महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन को असरदार बनाती रही. जुल्म और शोषण के खिलाफ बगावत और क्रांति सिर्फ शिबू की राजनीति नहीं, उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बना.

इसी दौरान धनबाद के टुंडी में शिबू सोरेन ने आदिवासी हितों के लिए एक महत्वपूर्ण आंदोलन चलाया था. उन्होंने महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ “धनकटनी” आंदोलन शुरू किया. टुंडी के पोखरिया में गुरुजी का एक आश्रम था. रात में वे शोषित, वंचित और पीड़ित लोगों को पढ़ाते. जिसके बाद उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की उपाधि मिली.

शिबू सोरेन को नजदीक से जानने वाले, उनके संघर्ष के साथी रहे, उन पर किताबें लिखने वाले लेखक, पत्रकार भी मानते हैं कि शिबू सोरेन राजनीतिक शख्सियत के साथ आदिवासियों को गोलबंद करने, उन्हें जगाने के लिए लंबा संघर्ष किया. झारखंड आंदोलन के वे अथक, अडिग नायक रहे. और यह सब उन्हें औरों से अलग होने के साथ मास लीडर बनाता है.

सोमवार देर शाम शिबू सोरेन का पार्थिव शरीर रांची लाया गया.

(फोटो: X)

पिछले जून महीने में 2025 को झारखंड आंदोलनकारी चिह्नितीकरण आयोग ने आंदोलनकारियों के लिए 75वीं औपबंधिक सूची रामगढ़ जिले के लिए जारी की है. इसमें अलग राज्य की लड़ाई के अहम किरदार दिशोम गुरु शिबू सोरेन का नाम भी शामिल है. आयोग ने शिबू सोरेन को आंदोलनकारी घोषित करने के कारणों का विवरण विस्तार से प्रकाशित किया है. साथ ही यह भी बताया गया है कि 1969-70 के दौरान और बाद में भी नशाबंदी, साहूकार तथा जमीन बेदखली के खिलाफ शिबू सोरेन ने जोरदार जन आंदोलन किया.

पांच दशकों का सफर, कई उतार-चढ़ाव

गौरतलब है 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ था. धनबाद के गोल्फ मैदान में बड़ी सभा हुई थी. जेएमएम ने चार लक्ष्य तय किए थे- महाजनी प्रथा और विस्थापन के खिलाफ संघर्ष, जल, जंगल और जमीन की रक्षा की लड़ाई और झारखंड अलग राज्य गठन के लिए आंदोलन.

जेएमएम गठन की परिकल्पना करने वालों में मजदूर नेता, पूर्व सांसद कॉमरेड एके राय, समाज में पढ़ो और लड़ो का नारा देने वाले पूर्व सांसद बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन सरीखे दिग्गज थे. इन तीनों के बीच तब गहरे संबंध थे. जेएमएम के गठन के समय शिबू सोरेन संगठन के महासचिव थे. 1987 में शिबू सोरेन ने अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाली.

बाद में एके राय अलग हो गए और मार्क्सवादी समयन्वय समिति के बैनर तले राजनीतिक जीवन को आगे बढ़ाया. इधर बिनोद बाबू और शिबू सोरेन साथ तो थे, लेकिन यदा- कदा वैचारिक मतभेद भी होते रहते थे. इन दोनों ने धनबाद कोयलांचल के टुंडी और तोपचांची इलाके में कई बड़े आंदोलन किए.

सत्तर के दशक में संथालपरगना के कई आदिवासी नेताओं और प्रतिनिधियों ने गुरुजी से संपर्क साधा. उन्हें बताया इस आदिवासी बहुल इलाके में लोगों की मुश्किलें कहीं ज्यादा है. गुरुजी ने दुमका का रुख किया और इसके बाद दुमका उनकी कर्मस्थली बन गई. पूरे संथाल परगना में उन्होंने जल, जंगल, जमीन की रक्षा को लेकर आदिवासियों को जगाया. वे गांव- गांव जाते. रात में बैठकी करते. लोग गुरुजी को एकटक सुनते.

शिबू सोरेने के पार्थिव शरीर को कंधा देते हेमंत सोरेन

(फोटो: X)

तीन फरवरी को दुमका में हर साल झारखंड मुक्ति मोर्चा के स्थापना दिवस पर कार्यक्रम का आयोजन होता है. अमूमन परंपरा रही है कि दिन भर लोगों का यहां जुटान होता है. इसके बाद रात में सभा की जाती है. इन सभाओं में रात दो- ढाई बजे तक शिबू सोरेन का भाषण सुनने के इंतजार में हजारों की भीड़ टस से मस नहीं होती. और जब शिबू सोरेन ने जैसे ही माइक थामा तो डुगडुगी बजाकर उनका स्वागत किया जाता.

लोकसभा में आदिवासियों के लिए रिजर्व दुमका सीट से शिबू सोरेन आठ बार चुनाव जीते. बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य के कारणों से दशकों बाद शिबू सोरेन 2024 के चुनावी जंग में नहीं उतरे, वे रैलियां, दौरे नहीं कर सके, लेकिन उनके आशीर्वाद की छाया झारखंड की राजनीति में छायी रही. वर्षों से संथालपरगना के दूर- दूर में गुरूजी की तस्वीर और तीर धनुष को आदिवासी अपना स्वाभिमान मानते रहे हैं.

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औरों से कैसे अलग

अपने पत्रकारीय जीवन में लंबे समय तक आदिवासी इलाके में झारखंड मुक्ति मोर्चा और शिबू सोरेन की सभाओं, रैलियों को कवर करने के दौरान कई मौके पर हमने देखा है कि शिबू सोरेन आदिवासियों के दिलों में उतर जाते थे. सबसे अहम यह कि शिबू सोरेन दिल से बोलते थे. उनमें कोई बनावटीपन नहीं होता. यही आदिवासियों को छूता था. यही वजह हो सकती है कि गुरुजी के जीते जी उनकी एक झलक पाने, उन्हें छू भर लेने लेने के लिए बेताब रहने वाला आदिवासी समाज अपने नेता को खो देने की बेचैनी से गुजर रहा है.

2009 के विधानसभा चुनाव को कवर करने मैं संथाल परगना जा रहा था. मिहिजाम-जामताड़ा मार्ग पर एक जगह ढेकीपाड़ा में चुनावी सभा को लेकर गहमागहमी है. भीड़ के बीच सुदून, उनील मरांडी समेत कई आदिवासी पूरे जोश से डुगडुगा बजा रहे हैं. कार्यकर्ता तीर-धनुष के साथ पहुंचे हैं. शिबू सोरेन के समर्थन में नारे गूंज रहे हैं.

"कुछ ही देर में शिबू सोरेन का हेलीकॉप्टर जमीन पर उतरता है. शिबू सोरेन तेजी से मंच पर जाते हैं. भाषण के दौरान ही डुगडुगी बजाने वालों पर उनकी नजर पड़ती है. शिबू उनका नाम लेते हुए अपने पास बुलाते हैं. डुगडुगी बजाने वाले उछाल खाने लगते हैं. जेएमएम के कई नेताओं से हमारी बातचीत होती है. वे गुमान के साथ कहते हैं- यही हमारे गुरुजी की खासियत है. इसे कोई दूसरा हासिल नहीं कर सकता.”

सोमवार की सुबह शिबू सोरेन के निधन के बाद हमने कई उनके पुराने साथी, समर्थकों से बातचीत की. दुमका के जेएमएम नेता शिवा बास्की कहते हैं- "गुरुजी के चाहने वाले लाखों लोगों पर दुखों का पहाड़ टूटा है. मन बेचैन है. वैसे हमारे वीर योद्धा गुरुजी हमेशा अमर रहेंगे."

वक्त के थपेड़ों में कई झंझावात

अलग राज्य से लेकर आदिवासी के हूकूक की लंबी लड़ाई लड़े शिबू सोरेन ने राजनीतिक जीवन में कई झंझावात भी देखे. कई दफा जेल गए, पर और तपकर निकले.

2004 में केंद्र की यूपीए की सरकार में वे कोयला मंत्री बने इस दौरान उन्हें 1975 के चिरूडीह नरसंहार से जुड़े एक गिरफ्तारी वारंट के चलते अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. चिरूडीह कांड में दोषी ठहराये जाने के बाद वे कुछ दिन जेल में भी रहे. हालांकि, बाद में उन्हें इस मामले में बरी कर दिया गया था. वे झारखंड में तीन बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन कभी कार्यकाल पूरे नहीं कर सके, अथवा जमकर शासन नहीं कर सके. लेकिन इससे उनका कद कभी कम नहीं पड़ा.

लगभग डेढ़ दशक तक झारखंड राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजरा. और इस दौरान गुरुजी ने भी कई उतार- चढ़ाव देखे. हालांकि बाद के समय में शिबू सोरेन के उत्तराधिकारी के तौर पर उभरे हेमंत सोरेन ने झारखंड की राजनीति में खुद को न सिर्फ सर्वमान्य नेता के तौर पर स्थापित किया, बल्कि दो बार 2019 और 2024 में सत्ता हासिल की. 2024 के विधानसभा चुनाव में ही जेएमएम सबसे बड़ा दल के तौर पर उभरा है. गुरुजी के दम पर खड़े संगठन को हेमंत ने और मजबूत बनाया है.

रांची में अंतिम दर्शन के लिए सड़कों पर उमड़ी भीड़.

(फोटो: X)

सोमवार की देर शाम शिबू सोरेन का पार्थिव शरीर रांची एयरपोर्ट पहुंचा था. एक झलक पाने के लिए एयरपोर्ट पर भीड़ उमड़ी थी. हेमंत सोरेन उस समय भावुक हो गए, जब पार्टी कार्यकर्ताओं ने उनके पिता के सम्मान में नारे लगाए. इसी दौरान मुख्यमंत्री ने अपने पिता को एक "महान व्यक्ति" बताया. उन्होंने कहा, "वह झारखंड और आदिवासियों के लिए एक सुरक्षात्मक छाया की तरह थे. वह छाया आज हमसे दूर हो गई. हम उन्हें हमेशा यादों में रखेंगे. शिबू सोरेन की विरासत अमर रहेगी."

एयरपोर्ट से उनका शव मोराबादी स्थित बंगले पर ले जाया गया. इस दौरान सड़कों के दोनों ओर हाथ जोड़े लोगों का हुजूम जमा रहा. मानो, यह अंतिम विदाई नहीं, गुरुजी के प्रति प्यार, लगाव और सम्मान है. मंगलवार को राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टि पैतृक नेमरा गांव में की जाएगी. बस रह जाएगा वीर शिबू सोरेन का नाम और उनके जीवन की गौरवमयी अमिट कहानी.

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