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यह नेपाल की घरेलू शांति (Nepal Crisis) और सुरक्षा के मानकों का ही परिणाम है कि सोशल मीडिया ऐप्स पर सरकार की पाबंदी से भड़के छात्र आंदोलन में उन्नीस लोगों की जान गई और सत्ता में बैठी सरकार गिर गई.
इस घटना को एक बार की बात समझकर नजरअंदाज करना सही नहीं होगा. इसे सिर्फ किसी विदेशी साजिश बताना जैसे बांग्लादेश (2024) में या उससे पहले श्रीलंका (2022) में कहा गया था भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं लगता. सबसे जरूरी है कि नेपाल की राजनीतिक उथल पुथल झेलने की क्षमता को मजबूत किया जाए.
सरकार के मानदंडों में सिर्फ ज्यादा और लंबे समय तक एक ही तरह से काम करने से सुधार नहीं होता. इसका उदाहरण दक्षिण अफ्रिका है. 2013 तक वह वर्ल्ड बैंक के तीन अहम गवर्नेंस संकेतकों सरकार की प्रभावशीलता, नियमन की गुणवत्ता और कानून के शासन में भारत से ऊपर था. लेकिन 2013 में नेल्सन मंडेला के निधन के बाद के एक दशक में, लोगों और सरकार के बीच का वो सकारात्मक राजनीतिक जुड़ाव कम हो गया, जिसे अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने संघर्ष के वर्षों में इतनी मेहनत से बनाया था. दुख की बात है कि 2023 तक इन संकेतकों पर दक्षिण अफ्रिका भारत से भी नीचे चला गया.
यह दिखाता है कि बड़े और अचानक किए गए शासन सुधार अपने आप में कोई जादुई हल नहीं हैं. जैसा कि नेपाल ने 2008 में राजतंत्र खत्म करके और 2015 तक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था अपनाकर किया, लेकिन इससे सारी समस्याएं हल नहीं हुईं.
महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकारें रोजमर्रा के मामलों में उच्च संवैधानिक सिद्धांतों को कैसे लागू करती हैं. केवल यही आशा की जा सकती है कि नेपाल संवैधानिक परिवर्तन के माध्यम से शासन संबंधी समस्याओं के लिए कोई नया कानूनी समाधान न अपनाए. इसके बजाय, यह आत्मनिरीक्षण करना बेहतर होगा कि राजकोषीय आवंटन कितने प्रभावी ढंग से और किसके हित में किए जा रहे हैं और जनता का पैसा कितना सही ढंग से खर्च हो रहा है.
यह खबर कि प्रदर्शनकारी पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में समर्थन दे रहे हैं, स्वागत योग्य है.
ऊपर बताए गए तीन गवर्नेंस संकेतकों में नेपाल बांग्लादेश से बेहतर करता है, हालांकि कानून के शासन और नियामक प्रभावशीलता में श्रीलंका या भारत जितना अच्छा नहीं है. लेकिन सरकार की प्रभावशीलता के मामले में नेपाल बांग्लादेश से भी पीछे है.
यह एक प्रमुख संकेतक है जो यह आकलन करता है कि सरकार अपने लक्ष्यों और विचारधारा को जमीनी स्तर पर नागरिकों के लिए मापनीय लाभों में कितनी अच्छी तरह परिवर्तित करती है. यह सच है कि नेपाल की गवर्नेंस पर असर पड़ा है क्योंकि 2008 में राजशाही के खत्म होकर लोकतंत्र आने के बाद से अब तक तेरह सरकारें बनीं, जिनका औसत कार्यकाल मुश्किल से एक साल से थोड़ा अधिक रहा. तो क्या यह सिर्फ इतना भर है कि लोकतंत्र अभी नया है—और यह हैरानी की बात भी नहीं, क्योंकि राजशाही का अंत अभी हाल ही में हुआ है.
देशों में भले ही कुछ अंतर हों, दक्षिण एशिया की आर्थिक संरचना में ज्यादा फर्क नहीं है. सभी देश निम्न-मध्यम आय वाले हैं, जिसमें श्रीलंका की प्रति व्यक्ति GNI सबसे ज्यादा है. सभी देशों के पास संसाधनों की कमी है, बुनियादी ढांचे का विकास कम है और वे GDP के मुकाबले बड़े वित्तीय घाटे और उच्च लेकिन स्थिर कर्ज का सामना कर रहे हैं.
नेपाल का कर्ज सबसे कम है और उसे रियायती दर पर उधार मिलती है — हाल ही में उसे बुनियादी ढांचे के विकास के लिए अमेरिकी सरकार से 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर का समर्थन मिला है.
अनुमान है कि नेपाल के लगभग एक चौथाई नागरिक विदेश में रहते हैं, जो उनकी उद्यमशीलता का प्रमाण है. यह दुखी होने की बात नहीं है कि इतने लोग काम के लिए विदेश जाते हैं. इससे कहीं ज्यादा जरूरी है कि जो लोग देश में रहते हैं, विशेष रूप से महिलाएं, उन्हें डिजिटल और तकनीकी बदलावों के लिए तैयार किया जाए जो भविष्य में कार्यस्थल पर आने की उम्मीद है.
युवा (15 से 24 साल) की साक्षरता दर बहुत अच्छी है, 92 प्रतिशत, जैसा कि भारत में 91 प्रतिशत है, लेकिन उच्च शिक्षा में नामांकन केवल लगभग 14 प्रतिशत है, जो पाकिस्तान के 11 प्रतिशत से अधिक है, लेकिन भारत के 28 प्रतिशत, बांग्लादेश के 21 प्रतिशत या श्रीलंका के 32 प्रतिशत से कम है.
इसका असर युवा बेरोजगारी पर पड़ता है, जो 20 प्रतिशत है, जबकि बांग्लादेश में 12 प्रतिशत और भारत में 17 प्रतिशत है. भारत और नेपाल के बीच खुली सीमा भारत के विशाल और तेजी से बढ़ते बाजार तक पहुंच देती है, लेकिन नेपाल की गैर-कृषि घरेलू अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी केवल 60 से 65 प्रतिशत है, जबकि भारत में यह 70 से 75 प्रतिशत है.
ऊर्जा सहयोग भविष्य की विकास योजनाओं का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है. तकनीकी शिक्षा, तकनीक विकास और अनुसंधान एवं विकास में करीबी सहयोग B2B (बिजनेस टू बिजनेस) संबंधों में और मूल्य जोड़ सकता है.
बहुपक्षीय मंचों पर और अधिक सहयोग और सीमाओं के पार निर्बाध व्यापार, दोनों देशों के बीच भरोसे को मजबूत करेगा. 1,751 किलोमीटर लंबी यह खुली सीमा 1816 से अस्तित्व में है. लेकिन सबसे अहम बात यह है कि भारत अगर नेपाल के लोकतांत्रिक संकट को अपना मानकर तकनीकी, प्रशासनिक और वित्तीय स्तर पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सहयोग दे, ताकि नागरिकों और कारोबार पर पड़ने वाले असर को कम किया जा सके, तो यह न सिर्फ उचित होगा बल्कि यह भी साबित करेगा कि एक राजनीतिक रूप से स्थिर और आर्थिक रूप से मजबूत नेपाल से भारत को ही फायदा है.
(संजीव अहलूवालिया चिन्तन रिसर्च फाउंडेशन के वरिष्ठ फेलो हैं और पहले IAS और वर्ल्ड बैंक में कार्यरत रहे हैं. यह एक ओपिनियन लेख है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट इन्हें समर्थन नहीं देता और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)