advertisement
दत्तात्रेय होसबोले, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के मौजूदा सरकार्यवाह (महासचिव) हैं, उन्होंने इमरजेंसी की 50वीं वर्षगांठ पर आयोजित एक कार्यक्रम में भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble) को लेकर एक विवादास्पद बहस को जन्म दिया है.
उन्होंने कहा: "इमरजेंसी के दौरान संविधान में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द जोड़े गए थे, जबकि संविधान की मूल प्रस्तावना जिसे संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया था उसमें ‘समाजवाद' और ‘पंथनिरपेक्ष' शब्द नहीं थे. इन शब्दों को इमरजेंसी के बाद में हटाया नहीं गया लेकिन इन शब्दों को रहना चाहिए या नहीं, इस पर बहस होनी चाहिए."
तो फिर बहस शुरू हो गई..
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह ने आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर संविधान में 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्ष' जैसे शब्दों को हटाने की बात कही है. उनका मानना है कि ये भावनाएं भारतीय संस्कृति में पहले से ही मौजूद हैं। इसलिए, संविधान में इन शब्दों की कोई खास जरूरत नहीं है.
असम के मुख्यमंत्री हिमंत विस्वा सरमा ने केंद्र सरकार के अपील करते हुए कहा है कि संविधान की प्रस्तावना में से समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटा दिया जाना चाहिए. क्योंकि यह कभी भी भारत के मूल संविधान का हिस्सा नहीं.
इन नेताओं का कहना है कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान जबरन socialism और secularism को preamble में जोड़ दिया था इसलिए इसे हटाना चाहिए. हालांकि 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए प्रस्तावना में समाजवादी, पंथनिरपेक्ष के साथ अखंडता यानी Integrity शब्द भी शामिल किया गया था, लेकिन इसपर किसी को आपत्ति नहीं हुई. होनी भी नहीं चाहिए.
ये भारतीय जनता पार्टी का संविधान है.. हां, वही बीजेपी जिसकी मदर ऑर्गेनाइजेश आरएसएस से लेकर उनके नेता भारत के संविधान से सोशलिज्म, सेकुलरिज्म हटाना चाहते हैं. लेकिन बीजेपी के खुद के संविधान में सोशलिजम और सेक्यूलरिजम यानी समाजवाद और पंथ निरपेक्षता का जिक्र पहले पन्ने के तीसरी लाइन में ही लिखा है.
इस जनाब ऐसे कैसे के एपिसोड में हम (Hypocrisy की भी सीमा होती है वीडियो) के बारे में बताएंगे. इसके अलावा ये भी बताएंगे कि सेक्यूलरिजिम और सोशलिजिम का मतलब क्या है? भारत की सबसे बड़ी अदालत ने क्या कहा है. साथ ही आपको बीजेपी के उन साथियों से भी मिलवाएंगे जिनकी नींव सेक्यूलरिजिम और सोशलिजिम पर ही बनी थी और क्या NDA में मौजूद पार्टियां सेक्यूलरिजिम और सोशलिजिम को हटाने पर सहमत होगीं?
आप ये भी जान लीजिए कि इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान लिए लगभग फैसलों को मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार ने रद्द कर दिए थे. जनता सरकार ने 1978 में 44वें संशोधन के जरिए से ज्यादातर फैसलों को पलट दिया था, लेकिन preamble में जोड़े गए सेक्यूलर और सोशलिजिम शब्द को नहीं बदला था.
लेकिन अगर ये लॉजिक लगाया जाए कि संविधान जब पहली बार बना तब EWS आरक्षण नहीं दिया गया था, OBC आरक्षण नहीं था. EWS आरक्षण 103rd Amendment के जरिए लाया गया. यहां तक कि इमरजेंसी के दौरान 42वें संशोधन के सब सेक्शन में नागरिकों के कर्त्तव्यों को भी जोड़ा गया. फिर क्या कहेंगे? सब हटाएंगे?
बीजेपी की सबसे अहम सहयोगी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड (JDU), के नेता नीतीश कुमार को लंबे समय से 'समाजवादी नीतीश' के नाम से जाना जाता है. JDU के संविधान के पहले ही पैराग्राफ में 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्षता' को पार्टी की मूल भावना बताया गया है.
"2003 में जन्मी जेडीयू, आज राजनीति के बुलंदियों पर पहुंचकर समाजवाद का विजय पताका लहरा रही है. समाजवाद के पुरोधाओं व जनांदोलन से तप कर निकले श्री नीतीश कुमार जी सरीखे पंथनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर नेताओं ने न सिर्फ जदयू की स्थापना की, बल्कि समाजवाद की परवरिश में सींचकर पार्टी की शाखाएं देशभर में फैलाई."
तो क्या नीतीश कुमार की वेबसाइट से सोशलिस्ट हटाए जाएंगे? जेडीयू के संविधान से सेक्यूलर हटवा दिए जाएंगे? क्या नीतीश कुमार बीजेपी के इस बात से खुश होंगे?
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के संविधान में साफ लिखा है कि पार्टी की विचारधारा "प्रगतिशीलता, धर्मनिरपेक्षता, समावेशिता और सांस्कृतिक अखंडता" पर आधारित है. एनसीपी का दावा है कि वह एक ऐसा समाज बनाना चाहती है जिसमें हर व्यक्ति को समान अवसर मिले और वह समाज में फल-फूल सके.
जयंत चौधरी की पार्टी RLD (राष्ट्रीय लोकदल), जो इस वक्त एनडीए की सहयोगी है, उसकी आधिकारिक वेबसाइट पर साफ़ तौर पर लिखा है कि पार्टी का विजन और मिशन "social justice and secularism" पर आधारित है. साथ ही पार्टी socialist politics को आगे बढ़ाने की बात भी करती है.
क्या जयंत चौधरी जैसे नेता, जिनकी पार्टी का वैचारिक आधार ही सेक्युलरिज़्म और समाजवाद है, इस बहस से सहज होंगे?
मोदी सरकार में मंत्री अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल सोनेलाल के संविधान में समाजवाद, पथ निरपेक्षता की कसमें खाई जा रही हैं.
जेपी से लेकर लोहिया समाजवाद की बात करते थे. क्या उनके नाम से भी समाजवाद हटाए जाएंगे?