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“जेल में उम्मीद की लौ जलाए रखना आसान नहीं" उमर खालिद का तिहाड़ से अनुभव

उमर खालिद को दोस्तोयेव्स्की की डायरी में दिलासा मिलता है, जहां कैद में उम्मीद और निराशा जैसे विषयों को तलाशते हैं.

Umar Khalid
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>उमर खालिद लिखते हैं: आशा, निराशा और कैद से सबक पर विचार</p></div>
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उमर खालिद लिखते हैं: आशा, निराशा और कैद से सबक पर विचार

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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हाल ही में मैंने फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की की किताब "द हाउस ऑफ द डेड" पढ़ी. यह एक काल्पनिक कहानी है, लेकिन यह 19वीं सदी के मध्य में जारिस्ट रूस (रूसी साम्राज्य जिसमें जार का शासन था) में कैद के दौरान उनके वास्तविक अनुभवों पर आधारित है.

किताब पढ़ते हुए मेरे मन में सबसे अजीब ख्याल यह आया कि जेल के अनुभवों के मामले में कितना कम बदलाव आया है, जबकि दुनिया कई मायनों में बदल गई है. किताब में लिखित घटनाओं को 150 साल से ज्यादा समय बीत चुके हैं, और यह दुनिया के एक अलग हिस्से से जुड़ी है, लेकिन कई जगहों पर मुझे ऐसा लगा जैसे वह वही चीजें और घटनाएं बता रहे हैं, जिन्हें मैं यहां तिहाड़ में अपने आसपास देखता हूं.

किताब में एक जगह उमर जेल के हालात के बारे में विचार करते हुए एक साथी कैदी के हवाले से कहते हैं, "हम जिंदा होते हुए भी जिंदा नहीं हैं और हम मर चुके हैं फिर भी कब्रों में नहीं हैं."

मुझे याद है, कुछ वक्त पहले मैं बन (अनिरबन भट्टाचार्य) और डेज़ी को बता रहा था, जब सात दिन की जमानत के बाद जेल वापस आया तो कितना अजीब लगा था. मैंने असल में बाइबिल की एक कहानी का जिक्र करते हुए कहा था कि जेल जैसे 'जिंदों का कब्रिस्तान' है. दिलचस्प बात यह है कि मैंने तब तक यह किताब नहीं पढ़ी थी.

कैद में रहना वाकई में कुछ ऐसा है जो इंसान को जिंदगी और मौत के बीच जैसा महसूस कराता है. अगर मैंने बाइबिल की कहानी का हवाला देकर इसे "जीवितों का कब्रिस्तान" कहा है, तो दोस्तोएव्स्की ने अपनी कहानी को "द हाउस ऑफ द डेड" नाम दिया.

कुछ ही दिनों में मुझे यहां आए हुए पांच साल पूरे हो जाएंगे. कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि मैं इतने लंबे समय तक एक ही सीमित जगह में कैसे रह पाया, और इस दौरान बेचैन कैसे नहीं हुआ. हां, ऐसे दिन भी थे जब मैं चिड़चिड़ा और उदास रहता था - और दुर्भाग्य से बुनो (बनोज्योत्सना लाहिड़ी) पर मैंने अपना गुस्सा निकाला - लेकिन ऐसे दिन बहुत कम थे. ज्यादातर समय मैं शांत ही रहा हूं.

बनोज्योत्सना लाहिड़ी और उमर खालिद

"फोटो ट्विटर से लिया गया है"

अपने लेख में बहुत पहले ही दोस्तोवस्की लिखते हैं कि जेल में धैर्य सीखने के लिए काफी समय होता है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं इस धैर्य को बाहरी दुनिया में ले जा पाऊंगा - एक बार जब मैं बाहर आऊंगा, जब भी ऐसा होगा, मैं अपने बेचैन स्वभाव में वापस आ जाऊंगा. ये बात मुझे पिछले दिसंबर में उन सात दिनों में समझ आई, जब मैं बाहर था.

खैर, यहां इतने लंबे समय तक सर्वाइव करने और शांत रहने की एक वजह यह भी है कि मैंने समय को बहुत बड़े हिस्सों में नहीं देखा. हालांकि बाद में समझ आ गया कि यह सफर लंबा होगा. लेकिन यहां रहते हुए हमेशा एक पास की तारीख पर ध्यान देना होता है - जो कुछ दिनों या ज्यादा से ज्यादा कुछ महीनों की होती है. मैं जुलाई 2021 से चल रही जमानत की सुनवाई की बात कर रहा हूं. ये तारीखें हमें आगे देखने, जीने, समय गिनने और उम्मीद करने का सहारा देती हैं.

जेल में उम्मीद के बारे में दोस्तोवस्की के कुछ विचार हैं. वह लिखते हैं, "जेल में अपने जीवन के पहले दिन से ही, मैंने आजादी के सपने देखना शुरू कर दिया था. हजारों अलग-अलग तरीकों से यह हिसाब लगाना कि जेल में मेरे दिन कब खत्म होंगे, मेरा पसंदीदा काम बन गया. यह हमेशा मेरे दिमाग में रहता था, और मुझे यकीन है कि यह हर उस व्यक्ति के साथ भी होता है जिसे एक निश्चित अवधि के लिए आजादी से वंचित किया जाता है. मुझे नहीं पता कि दूसरे कैदियों ने भी वैसा ही सोचा और हिसाब लगाया या नहीं जैसा मैंने सोचा, लेकिन उनकी उम्मीदों की अद्भुत हिम्मत ने मुझे शुरू से ही प्रभावित किया.

आजादी से वंचित कैदी की उम्मीदें आजाद इंसान की उम्मीदों से बिल्कुल अलग होती हैं. एक आजाद इंसान भी उम्मीद करता है (जैसे किस्मत बदलने की या किसी कामयाबी की), लेकिन वह जीता है, काम करता है, और जीवन की दुनिया में खोया रहता है. लेकिन कैदी के साथ यह बिल्कुल अलग होता है. उसके लिए भी एक जीवन है — मान लिया जाए कि जेल का जीवन — लेकिन चाहे वह कैदी कोई भी हो और उसकी सजा कितनी भी लंबी क्यों न हो, वह स्वाभाविक रूप से अपनी स्थिति को किसी स्थायी, अंतिम या असली जीवन का हिस्सा मानने में असमर्थ होता है. हर कैदी महसूस करता है कि वह, यूं कहें तो, अपने घर पर नहीं बल्कि किसी सफर पर है. वह बीस सालों को ऐसे देखता है जैसे वे सिर्फ दो साल हों, और पूरी तरह से यकीन करता है कि जब वह 55 साल की उम्र में जेल से बाहर आएगा, तो वह उतना ही जीवंत और एनर्जी से भरा होगा जितना वह अभी 35 साल की उम्र में है."

किताब में बाद में वो लिखते हैं, 'बिना किसी मकसद और उसे पाने की कोशिश के कोई इंसान जी नहीं सकता. जब सारी उम्मीद और मकसद छिन जाए, तो इंसान अपने दुख में राक्षस बन जाता है. कैदियों का एकमात्र मकसद था आजादी और जेल से निकलना.'

किताब में आगे एक जगह वे लिखते हैं, "किसी लक्ष्य और उस तक पहुंचने की कोशिश के बिना कोई भी व्यक्ति जिंदा नहीं रह सकता. जब वह जिंदगी में सारी उम्मीदें और सारे मकसद खो देता है, तो इंसान अक्सर अपने दुख में एक राक्षस बन जाता है. कैदियों का एकमात्र मकसद आजादी और जेल से बाहर निकलना था."

शायद अब मैं पहले जैसा आशावादी नहीं रहा, जैसा कि मेरे कुछ दोस्तों ने महसूस किया है. यह सच है. लेकिन पर मेरी ये कम उम्मीदें आज की पॉलिटिकल सिचुएशन को रियलिस्टिक तरीके से देखने की वजह से हैं.

और जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, जेल में उम्मीद पालना भी एक जोखिम भरा काम है. आप जितनी ज्यादा उम्मीद करते हैं, उतनी ही ज्यादा ऊंचाई से नीचे गिरते हैं. सीधे शब्दों में कहें तो, मुझे उम्मीद से डर लगता है, इसलिए मैं उम्मीद नहीं रखने की कोशिश करता हूं.

लेकिन जेल में इस तरह की सोच के साथ जीने की बात आए, तो मैं इसमें काफी हद तक एक अपवाद हूं. यहां हर कोई पागलपन की हद तक आशावादी है, यहां तक कि वे लोग भी जो सबसे निराशाजनक हालात में हैं. यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि दोस्तोवस्की ने ऊपर की लाइनों में कहा है: वे उम्मीद करते रहते हैं, वे दुआ करते रहते हैं और कभी-कभी, उनकी उम्मीदें और कोशिशें रंग भी लाती हैं."

आपको एक ऐसी कहानी सुनाता हूं

मैं एक कैदी को जानता हूं जो पिछले 29 साल से जेल में है. उसे उम्रकैद की सजा हुई है, पर वो आम उम्रकैद नहीं, जो 14-15 साल की होती है. उसकी सजा में साफ लिखा है कि उसे आखिरी सांस तक जेल में रहना है, बिना किसी पैरोल के. कोर्ट ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी, लेकिन कई सालों तक फांसी की कोठरी में रहने के बाद, उसे राष्ट्रपति की माफी से फांसी से बचा लिया गया. फांसी की सजा के बजाय अब उसे अपनी प्राकृतिक मृत्यु तक जेल में रहना था.

और जैसा कि पहले बताया है, उसे कभी पैरोल नहीं मिलेगी. इसलिए वह जिंदा तो रहा, लेकिन यह जानते हुए कि अपनी आखिरी सांस तक उसे जेल में ही रहना होगा.

जब वह 1990 के दशक की शुरुआत में जेल आया, तब उसकी उम्र 20 के आसपास थी. अब वह 50 के आसपास है. जेल में वह ज्यादातर अपने में ही रहता है. सुबह वह अपनी मशक्कत (दिया गया शारीरिक काम) करने चला जाता है. शाम को वह कुछ अन्य कैदियों के साथ करीब एक घंटे बैडमिंटन खेलता है — यही एक समय होता है जब आप उसे उत्साहित होते और कुछ भावनाएं जाहिर करते देख सकते हैं.

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हर दिन, वह अपनी यही जिंदगी जी रहा है, यह जानते हुए कि उसके बाकी के साल भी इसी तरह गुजरने वाले हैं.

जेल में ज्यादातर कैदी उसकी इज्जत करते हैं — मुख्य रूप से इसलिए क्योंकि उसने जेल में इतना लंबा समय बिताया है और क्योंकि वह ज्यादातर अलग-थलग रहता है, अपने में ही सीमित रहता है और किसी के मामलों में दखल नहीं देता.

शुरुआती दिनों में, मैं सोचता था कि उसकी यह शांति कहां से आती है? क्या उसे अपने गुनाहों का एहसास हो गया? क्या उसे इस बात का पछतावा था कि उसने सालों पहले क्या किया था? क्या उसे लगता था कि वह जो कुछ भी सह रहा है, वह उसके कर्मों का नतीजा है? क्या उसे लगता था कि वह किसी तरह का प्रायश्चित कर रहा है? या शायद उसे कोई पछतावा नहीं था.

कहने की जरूरत नहीं कि मैंने उससे कभी नहीं पूछा कि उसने जो किया उसके बारे में उसे क्या लगता है. आप जेल में ऐसे सवाल नहीं पूछते.

जैसा कि मैंने कहा, मैं उसे रोजाना अपनी डेली रूटीन में व्यस्त देखता था. मुझे लगा था कि उसने अपनी पूरी जिंदगी कैद में बिताने की सच्चाई को कबूल कर लिया है. लेकिन मुझे यह नहीं पता था कि उसने भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है. अपने केस में एक कानूनी रास्ता मिलने के बाद, वह पिछले कुछ सालों से इस पर काम कर रहा है ताकि कुछ राहत पा सके.

राष्ट्रपति की माफी में साफ था कि उसे आखिरी सांस तक जेल में रहना है, बिना पैरोल के, पर उसमें फरलो (छुट्टी) के बारे में कुछ नहीं कहा गया था.

फरलो यानी जेल से छुट्टी, ये जेल विभाग का एक नियम है. अगर कैदी का केस हाई कोर्ट में पेंडिंग न हो, उसकी सजा हाई कोर्ट ने बरकरार रखी हो, वो कम से कम 3 साल जेल में बिता चुका हो, और सबसे जरूरी, उसका बर्ताव अच्छा हो, तो वो साल में तीन बार छुट्टी ले सकता है—एक बार 3 हफ्ते की, और दो बार 2 हफ्ते की.

यह पैरोल से इस मायने में अलग है कि यह कैदी को जेल विभाग द्वारा अच्छे व्यवहार के आधार पर दिया जाता है, जबकि पै मौत, आदि.

दूसरे शब्दों में, एक कैदी जेल में अपने अच्छे आचरण के जरिए छुट्टी का अधिकार पाता है. मूल रूप से, इस प्रोसेस का मकसद जेल में अच्छे आचरण को प्रोत्साहित करना है, साथ ही यह सुनिश्चित करना है कि एक अपराधी अपने परिवार और समाज से पूरी तरह से कटा हुआ न हो - ताकि जब भी उसे समाज में पुनर्वासित किया जाए, तो उसका समाज से जुड़ाव हो. यह पूरी तरह से जेल सुधार के सिद्धांत के अनुरूप है.

वापस इस कैदी की बात. उसने कोर्ट में मांग की कि जेल विभाग को उसे फरलो देने के लिए कहा जाए. जेल विभाग ने मना कर दिया, क्योंकि राष्ट्रपति की माफी में कहा गया था कि उसे आखिरी सांस तक जेल में रहना है. कोर्ट ने भी उसके हक में फैसला नहीं दिया, कहा कि भले माफी में फरलो का जिक्र न हो, पर उसका मतलब यही था कि कोई राहत नहीं. उसने हाई कोर्ट में अपील की, पर वहां भी हार गया.

आखिरी कोशिश में उसने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. सुप्रीम कोर्ट ने उसके हक में फैसला दिया कि फरलो उसका हक है, क्योंकि उसने 28 साल तक जेल में अच्छा बर्ताव किया. आखिरकार, उसे 21 दिन की फरलो मिली, और 28 साल बाद वो जेल से बाहर निकला.

जब वो वापस आया, मैंने उससे पूछा कि इतने सालों बाद बाहर की दुनिया कैसी लगी. मैंने पूछा कि उसे लेने कौन आया, और वो जेल कैसे वापस आया. जैसा मैंने पहले कहा, वो कम बोलता है. पर जो थोड़ा बोला, उसने कहा कि उसे लगा जैसे 21 दिन नहीं, 21 मिनट के लिए बाहर था.

उसने ये भी बताया कि 90 के दशक में जिन रिश्तेदारों को वो जानता था, उनमें से अब बस चंद लोग बचे हैं, और नए परिवार वालों से मिला जो उसके लिए अजनबी थे, और वो उनके लिए.

अगर आप सोच रहे हैं कि वो भागा क्यों नहीं, इतने साल बाद बाहर निकलने का मौका मिला तो जेल में वापस क्यों आया, तो वजह ये है कि उसने उम्मीद नहीं छोड़ी. उसे उम्मीद है कि आने वाले सालों में कोर्ट से और राहत मिलेगी. उसने मुझसे खुद कहा कि अब वो हर साल तीन फरलो ले सकता है, और अगर कुछ साल तक वो बाहर जाता रहा और वापस आता रहा, तो कोर्ट उसे रिहा करने के बारे में सोच सकता है.

मैंने सोचा, ये कैसे हो सकता है, क्योंकि उसका फरलो का ऑर्डर बस उसी तक सीमित था, उसकी सजा या गुनाह के बारे में कुछ नहीं कहा गया.

लेकिन मैंने उससे ऐसे सवाल नहीं पूछे. मैंने उसे उम्मीद करने दिया—क्योंकि यही उम्मीद उसे जेल में सुकून से जीने देती है.

आखिर में उसने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजीव गांधी हत्याकांड के दोषियों को मिली राहत का जिक्र किया, जैसे कि कह रहा हो कि उसकी उम्मीद भी जिंदा है. उसने कहा, “वे सब पीएम की हत्या में शामिल थे, मैंने तो पीएम को नहीं मारा ना!” कोई भागता नहीं, क्योंकि उम्मीद, चाहे कितनी भी असंभव लगे, एक ताकतवर रुकावट है.

दोस्तोएव्स्की अपनी किताबों में इस पर भी बात करते हैं — कि कैदी भागते क्यों नहीं, जबकि उस समय न पैरोल था और न ही फरलो. फिर भी, वे पीनल कॉलोनियों में काम करने जाते थे और हमेशा उनके ऊपर पहरेदार नहीं होते थे.

जो कुछ उन्होंने लिखा है, वह तिहाड़ में मेरे आसपास जो कुछ मैं देखता हूं, उससे बहुत मेल खाता है, दोस्तोएव्स्की लिखते हैं कि कैदी भागते नहीं क्योंकि वे उस समय को महत्व देते हैं जो उन्होंने जेल को दिया है.

भागने की कोशिश सिर्फ वही करते हैं, जो अपनी सजा की शुरुआत में होते हैं. लेकिन जो कैदी जेल में एक लंबा समय गुजार चुके होते हैं, वे तब भी भागने की कोशिश नहीं करेंगे, भले ही जेल के दरवाजे उनके लिए खोल दिए जाएं. वे पहले कोर्ट के आदेश का इंतजार करेंगे. वे उम्मीद पर भरोसा करेंगे.

यह कुछ विचार थे जो मैंने उम्मीद और इंतजार, निराशा और चाहत पर किए.

पांच साल बीत गए हैं, लगभग. आधा दशक. यह इतना लंबा समय है कि लोग अपनी पीएचडी पूरी कर लें और नौकरियां ढूंढने लगें, इतना समय कि कोई प्यार में पड़े, शादी करे और बच्चा पैदा कर ले, इतना समय कि किसी के बच्चे इतने बड़े हो जाएं कि पहचान में न आएं, इतना समय कि दुनिया गाजा में नरसंहार को सामान्य मानने लगे, इतना समय कि हमारे माता-पिता बूढ़े और कमजोर हो जाएं.

क्या यह हमारी रिहाई के लिए काफी समय नहीं है?

(उमर खालिद जेएनयू के पूर्व छात्र नेता और इतिहास में पीएचडी स्कॉलर हैं, जो अपनी एक्टिविज्म और सरकार की नीतियों के खिलाफ असहमति के लिए जाने जाते हैं. 2020 में दिल्ली दंगों में कथित साजिश के लिए यूएपीए के तहत गिरफ्तार हुए, वो बिना ट्रायल के तिहाड़ जेल में हैं. यह एक ओपिनियन पीस है, और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट इसका समर्थन नहीं करता और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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