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बिहार का 'ब्लैक डायमंड': कीचड़, घाव और जाति की छिपी कहानी

यह 'ब्लैक डायमंड' आखिर बनता कैसे है और किन हाथों द्वारा तैयार किया जाता है?

शादाब मोइज़ी
जनाब ऐसे कैसे
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<div class="paragraphs"><p>मखाना किसानों का दर्द</p></div>
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मखाना किसानों का दर्द

(फोटो - शादाब/द क्विंट)

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बिहार का मखाना, जिसे अक्सर ‘ब्लैक डायमंड’ कहा जाता है और आजकल ‘सुपरफूड’ के रूप में जाना जाता है, अपने भीतर मेहनत, जाति और अन्याय की गहरी कहानी समेटे हुए है. बाजार में मखाना 1500 या 2000 रुपए प्रति किलो के भाव से बिकता है, लेकिन इसको उगाने वालों को क्या सही दाम मिल रहा है? इस रिपोर्ट में हम बिहार के उन तालाबों और छोटे कारखानों तक पहुंचते हैं, जहां मखाना तैयार किया जाता है, ताकि जान सकें कि इस सफेद चमकदार दाने की असली सच्चाई क्या है. यह 'ब्लैक डायमंड' आखिर बनता कैसे है और किन हाथों द्वारा तैयार किया जाता है? इन हाथों की कहानी मुनाफे, संघर्ष और छुपे हुए जातीय यथार्थ की सच्चाई है.

कीचड़ और कांटों से भरे बीज से लेकर सुपरमार्केट में बिकने वाले पैकेट तक — हर दाने के पीछे छिपी है अनगिनत मजदूरों की मेहनत और दर्द की कीमत.

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भारत के 90% से ज्यादा मखाना बिहार में बनता है. मखाना निकालने वाले एक मजदूर बताते हैं, "कई दिन हमें 5 घंटे पानी में रहना पड़ता है, कभी 6 घंटे. हमें रोज पानी में रहना पड़ता है."

पानी में रहने की वजह से श्रमिकों का पूरा हाथ फूला हुआ और उंगलियां घिसी हुई होती हैं. काम के दौरान पैरों और हाथों में शीशा, कीचड़ और कांटे गड़ते हैं.

जाति की सच्चाई

मखाना उद्योग में श्रम और जाति का गहरा संबंध दिखाई देता है. मखाना व्यापारी रोहित मुखिया बताते हैं, "कोई उच्च वर्ग के लोग तो कागदों में नहीं जाएंगे पानी में हिलने के लिए नहीं जाएंगे तो बैकवार्ड के लोग हैं दलित पिछड़ा वंश से ही जाता है."

इस धंधे से जुड़े लोगों में मुख्य रूप से पिछड़ी जातियां, दलित और वंचित समाज के लोग शामिल हैं. इनमें सहनी समाज, मल्लाह समाज (जो 90% से अधिक हैं), मुसहर जैसी जातियां प्रमुख हैं.

कम मजदूरी और पूंजीपतियों का नियंत्रण

इतने कठोर परिश्रम के बावजूद, मखाना निकालने वाले मजदूरों को बेहद कम मेहनताना मिलता है. उन्हें किलो के हिसाब से भुगतान किया जाता है, जो 200 से 300 रुपए प्रति किलो तक जाता है.

एक मजदूर ने अपनी पीड़ा बताते हुए कहा, "यहां दिनभर पानी में पाक उठाते हैं 200-300 दे रहा है और कभी एक सौ दे रहा है."

जब मखाना खेत से प्रोसेसिंग यूनिट तक पहुंचता है, तो वहां भी काम करने वाले लोग मल्लाह, साहनी और मुसहर जैसी जातियों से आते हैं. प्रोसेसिंग यूनिट में भीषण गर्मी होती है और लावा बनाने के दौरान हाथ जल जाते हैं. चांदनी कुमार जोकि प्रोसेसिंग यूनिट में एक मजदूर हैं बताती हैं, "मखाना भट्टी पर बहुत ज्यादा गरम होता है और उसे हाथ से पकड़ना पड़ता है, इसीलिए हम पानी रखते हैं और हाथ को बार-बार पानी में डालते हैं, गर्म लावा की वजह से हाथ पूरा जल जाता है."

रोहित मुखिया कहते हैं, "इस पूरे व्यवसाय पर नियंत्रण पूंजीपतियों का है, जिसमें बड़े-बड़े पैसा वाला जैसे ब्राह्मण, मारवाड़ी शामिल हैं. उन्हीं लोगों के हाथ में ये सारा धंधा है. वो जब चाहे मखाना का दाम गिरा दें जब चाहे मखाना का दाम उठा दें."

मखाना से जुड़े एक किसान बताते हैं कि मखाना किसानों को सरकार से कोई सहयोग नहीं मिल रहा है. सिंचाई के लिए सब्सिडी का कोई प्रावधान नहीं है. किसानों और मजदूरों की सबसे बड़ी मांग है कि सरकार मखाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) निर्धारित करे."

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