09 FEB 2016

घटना और गिरफ्तारी

डाकघर विहीन देश

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी की एक ठिठुरती रात. अफजल गुरु की फांसी को अदालती कत्ल करार देकर छात्र-छात्राओं का एक दल विरोध कार्यक्रम का आयोजन कर रहा था. युवाओं के इस जमावड़े में लोग कविता, संगीत और कला के कुछ दूसरे माध्यमों के जरिये अपनी बात कह रहे थे.

लेकिन भारतीय जनता पार्टी के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने आरोप लगाया कि कार्यक्रम में ‘भारत विरोधी’ नारे लगाए गए.

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सौरभ शर्मा, JNSU के ज्वाइंट सेक्रेटरी और ABVP के सदस्य, प्रेस कॉन्फ्रेंस संबोधित करते हुए (फोटो: IANS)

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्र-छात्राओं ने कार्यक्रम के आयोजकों को यूनिवर्सिटी से बर्खास्त करने की मांग की. आयोजकों के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज हो गया. चार दिन बाद जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लिया गया.

पांच अन्य छात्रों के खिलाफ भी मामला दर्ज हो गया. ये थे- उमर खालिद, अनिर्बाण भट्टाचार्य, रामा नागा, आशुतोष कुमार और अनंत प्रकाश नारायणन. गिरफ्तारी से बचने के लिए ये सभी छिप गए.

यूनिवर्सिटी पर घेरा

हमें तलवार चलाने के लिए ताकत की जरूरत है. जेएनयू हमें यह ताकत देती है. और यह ताकत है कलम की. विचारों की.

देश की सबसे अच्छी यूनिवर्सिटीज में शुमार जेएनयू को रातोंरात ‘आतंकवादियों के अड्डे’ के तौर पर देखा जाने लगा.

केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने कहा, ‘सरकार किसी को भी देश में राष्ट्र विरोधी भावनाएं फैलाने की इजाजत नहीं देगी’. बीजेपी के एक एमएलए ने जेएनयू के कूड़ेदान में 300 कंडोम पाए जाने की बात की, जबकि प्राइम टाइम के टेलीविजन डिबेट्स में ‘यूनिवर्सिटी के राष्ट्र विरोधी डीएनए’ पर चर्चा होने लगी.

लेकिन शशि थरूर जैसी शख्सियतों ने कहा कि अगर जवाहरलाल नेहरू जिंदा होते, तो वह कन्हैया कुमार और अन्य लोगों को खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कराने के लिए दबाव नहीं डालते. जेएनयू के छात्र सरकार के इस रवैये के सामने डटे रहे. ‘आजादी’ के गाने और अपनी डफली के साथ. वे खड़े हो गए. एक विचार के तौर पर. एक संस्थान के तौर पर.

जेएनयू के स्टूडेंट्स समझ नहीं पाए कि अचानक रातोंरात वे रिसर्च स्कॉलर से जिहादी कैसे बन गए. उन्हें ‘जिहादी’ ‘हिंसक वामपंथी’ और ‘राष्ट्र विरोधी’ कहा जाने लगा.

इस पूरे हल्ले-हंगामे और गुस्से के माहौल से एक राजनीतिक स्टार का जन्म हुआ. और उसका नाम था – कन्हैया कुमार.

मीडिया का जहर उगलना

मेरा मानना है कि मीडिया ने पूर्वाग्रह के साथ काम किया. लोगों को कठघरे में खड़ा किया. उन्हें टारगेट किया गया. मीडिया सरकार के हाथ का खिलौना बन गया.

- अपने चैनल की ओर से जेएनयू मामले की कवरेज से नाराज होकर नौकरी छोड़ने वाले ज़ी न्यूज के प्रोड्यूसर

देशद्रोह और देशप्रेम इस उग्र बहस के बीच, भारत के लोगों ने मामले को समझने के लिए मीडिया की ओर रुख किया. लेकिन मीडिया उन्हें जो बता रहा था, उस पर भरोसा करना मुश्किल था. जेएनयू में देशद्रोह के इस मामले के बाद भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान खड़े हो गए.

जेएनयू विवाद अराजकता फैलाने की जमीन बन गया. यह बात तब और पुख्ता हो गई, जब वकीलों ने दिल्ली के पटियाला हाउस अदालत में पत्रकारों (लोकतंत्र के चौथे खंभे के प्रतिनिधियों को) को पीटा.

राष्ट्रभक्त और राष्ट्र द्रोही

भारत से नहीं, भारत में आजादी चाहते हैं.

आजादी. एक शब्द, कई मायने. कुछ लोगों का मानना था कि धुर वामपंथ की नई पीढ़ी के लोगों के लिए राष्ट्रवाद और देशभक्ति के प्रतीकों की अवमानना ही आजादी है. और जिन लोगों ने इस ‘अपमानजनक राष्ट्र विरोधी गतिविधियों’ का विरोध किया उन्हें अचानक एक नया समर्थन मिल गया. हिंसा के सहारे किए जाने वाले इस विरोध का भी समर्थन किया गया. और ऐसे लोगों को मामूली सजा दी गई. जेएनयू की पूर्व छात्रा और अभिनेत्री स्वरा भाष्कर जैसे लोगों की नजर में इस विवाद को जरूरत से ज्यादा तूल दे दिया गया.

लेकिन कुछ दूसरों के लिए आजादी शब्द बेहतर भारत की उम्मीद के तौर पर सामने आया. एक ऐसे भारत के तौर पर जहां जाति, गरीबी, धार्मिक भेदभाव और भूख की कोई जगह न हो.

उनके लिए यह शब्द एक बेहतर भारत की उम्मीद की तरह है.

एक ऐसा भारत, जो जाति, गरीबी, धार्मिक भेदभाव और भूख से मुक्त है. जेएनयू के छात्रों पर ‘राष्ट्र विरोधी’ होने का जो आरोप लगाया गया, उसका उन्होंने यूनिवर्सिटी के फ्रीडम स्क्वायर पर राष्ट्रवाद पर लेक्चर आयोजित करके सामना किया.

3 मार्च 2016 को कन्हैया कुमार को जेल से रिहा कर दिया गया. उनके भाषण में ‘आजादी’ के दोनों मायनों की टकराहट देखने को मिली. इसने पूरे देश को रोमांचित कर दिया और उमर खालिद और अनिर्बाण भट्टाचार्य की रिहाई के आंदोलन को भी मजबूती दे दी.

पूरा भाषण यहा देखे here

जब छात्र राजनीति एक गंदा शब्द बन गया

नवंबर, 2015 में शुरू हुए ऑक्यूपाई यूजीसी मूवमेंट से लेकर दलित आंदोलन को नई धार देने वाले रोहित वेमुला की खुदकुशी के मामले जेएनयू विवाद से पहले ही छात्र आंदोलन को एक नई धरातल पर ले गए थे.

दरअसल भारत में छात्र राजनीति का लंबा इतिहास है. लेकिन जेएनयू में देशद्रोह से जुड़े विवाद ने छात्र आंदोलन के खिलाफ गुस्से को हवा दी. लोगों ने पूछना शुरू किया- आखिर छात्रों को राजनीति में क्यों पड़ना चाहिए?

और इस सवाल को चुनौती देते हुए जेएनयू के छात्र-छात्राओं ने कहा- स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स में हिस्सेदारी क्यों न लें?

जेएनयू, अब

मैं सिनेमा हॉल गया. कुछ लोग चिल्लाने लगे - एंटी नेशनल! एंटी नेशनल ! अदालत पहुंचा, तो कुछ वकीलों ने मुझ पर हमला करने की कोशिश की. ऑटो रिक्शा चालक मुझे देशद्रोही कहकर बिठाने से इनकार करते हैं.

एक साल बाद, जेएनयू बदल चुका है. हर तरफ गार्ड हैं और ‘संदिग्ध’ घटनाओं का वीडियो शूट करने के लिए कहा गया है. सीसीटीवी कैमरे छात्र-छात्राओं पर कड़ी नजर रखते हैं. यहां तक कि प्रोफेसरों तक को नियमों का पालन करने के लिए नोटिस भेजे जा चुके हैं. इनमें प्रशासनिक भवन में छात्र-छात्राओं को संबोधित करने पर प्रतिबंध शामिल हैं. स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में पढ़ाने वाली प्रोफेसर निवेदिता मेनन छात्र-छात्राओं को संबोधित करने के ऐसे ही मामले में जांच का सामना कर रही हैं.

यूनिवर्सिटी की दिक्कतें खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं. जेएनयू विवाद से एक महीने पहले वाइस चासंलर की जिम्मेदारी संभालने वाले एम जगदीश कुमार विवादों के घेरे में हैं. यूनवर्सिटी के मामलों को उन्होंने जिस तरह से निपटाया, उससे वह छात्र-छात्राओं और टीचर, दोनों के निशाने पर हैं.

जेएनयू एक बार फिर दो हिस्सों में बंट गया है. इस बार एक लापता छात्र नजीब अहमद के मामले में. नजीब, उमर खालिद, कन्हैया कुमार और अनिर्बाण भट्टाचार्य के देशद्रोह की गाथा से जुड़ा नहीं है. लेकिन आखिर वह है कहां. फ्रीडम स्क्वायर में एक बार फिर आजादी के गाने सुनाई पड़ रहे हैं. यह जेएनयू के मर्म और उसकी आवाज को बयां करते हैं. जेएनयू अब भी असहमति की आवाज बुलंद करने से पीछे नहीं हटती.



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