छत्तीसगढ़ के गांवों में बहुत पहले से हर घर में एक किचन गार्डन होता था। इसे बाड़ी कहते हैं

छत्तीसगढ़ में तैयार हो रहा गांधी जी के सपनों का गांव

आज शहरों में किचन गार्डन का चलन है। लोग बॉलकनी और टेरिस पर सब्ज़ियां उगा रहे हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के गांवों में बहुत पहले से हर घर में एक किचन गार्डन होता था। इसे बाड़ी कहते हैं। घर से लगी हुई ज़मीन पर ग्रामीण सारी मौसमी सब्ज़ियां उगाते हैं। घर की साग-सब्जी की जरूरतें खुद ही पूरी कर लेते हैं। तो किचन गार्डन का ये कॉन्सेप्ट छत्तीसगढ़ के गांवों ने शहरों को सिखाया है। अब ज़रा इसका बड़ा आयाम देखिए।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने वर्धा के सेवाग्राम (तब सेगांव) में एक शाम की प्रार्थना में कहा था - 'हमारी दृष्टि देहली से उलट कर देहात की तरफ होनी चाहिए। देहात हमारा कल्पवृक्ष है।' (संदर्भ - 'गांधी मार्ग' पत्रिका का नवंबर-दिसंबर 2016) कल्पवृक्ष उसे कहते हैं जो सारी इच्छाएं पूरी करता है। यानी गांधी जी का गांव देश की हर हसरत पूरी करने वाला था। लेकिन आज़ादी के बाद गांवों को शहरों जैसा बनाने की होड़ लग गई। जबकि ज़रूरत इस बात की थी कि गांव अपने मूल रूप में ही बेहतर हो जाएं।

कुछ इसी रास्ते पर चलते हुए नई प्रदेश सरकार ने छत्तीसगढ़ के गावों को उनकी संस्कृति और परंपरा के क़रीब रखते हुए ही उनकी तरक्की का तरीका निकाला गया है। छत्तीसगढ़ में इस अनूठी पहल का नारा है-

छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी

नरवा, गरुवा, घुरुवा अऊ बाड़ी

ऐला बचाना हे संगवारी

ये अपने आप में ऐसा विज़न है जो देश के हर गांव के लिए स्थाई और संपूर्ण विकास का रास्ता खोल सकता है। जब इस विज़न के जरिए छत्तीसगढ़ का गांव पूरे देश के लिए एक रोल मॉडल बनेगा। इस विजन के चार पहलू हैं जिन्हें एक साथ प्रोत्साहन देने पर ग्रामीण इलाक़ों का आत्मनिर्भर बनना संभव हो सकता है। मगर ‘नरवा, गरुवा, घुरवा और बाड़ी’ के इन चारों पहलुओं का गावों के घरों-परिवारों के विकास में रोल क्या होगा इसे अलग-अलग समझना भी ज़रूरी है -

  1. नरवा (नदी-नाला) : एक वक़्त था जब पानी के मामले में ज़्यादातर गांव आत्मनिर्भर थे। गांव के नदी, नाले, पोखर और तालाब न सिर्फ रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करते थे, बल्कि सिंचाई के भी काम आते थे। पानी गांवों की लाइफ़लाइन है और अब छत्तीसगढ़ में ज़ोर इस बात पर है कि कैसे इस लाइफ़लाईन में नई जान डाली जा सके। इसमें आधुनिक टेक्नोलोजी भी अहम रोल अदा कर रही है। पानी के स्रोतों से लेकर, जहां पानी के भंडार हैं वहां तक सैटेलाइट इमेज और जी.आई.एस (जियोग्राफ़िक इन्फॉर्मेशन सिस्टम) मैप से ज़रूरत के मुताबिक कच्चे और पक्के निर्माण कर पानी को बर्बाद होने से बचाया जा रहा है। कहीं छोटे स्ट्रक्चर, कहीं बोल्डर तो कहीं चेक डैम बनाए जा रहे हैं। जिन तालाबों और वॉटर बॉडीज की हालत ख़राब है उनकी मरम्मत भी की जा रही है। सोलर पंपों और पाइप लाइन के ज़रिए तालाबों को भरा जा रहा है। ऐसा करने से भू-जल स्तर तो बढ़ेगा ही पूरे साल पानी मिलने से किसान सालभर में दो फसलें भी उगा सकते हैं। इस पहल का फ़ायदा मिलना शुरू भी हो गया है।
    महासमुंद ज़िले में अछोला गांव है। कभी यहां के किसान सिंचाई के लिए बारिश के भरोसे थे, जबकि पास में ही समोदा बैराज है। मगर अब स्थिति बदली है, अब यहां 10 हॉर्स पावर के चार सामुदायिक सोलर पंप लगाए गए हैं। इससे 67 हेक्टेयर खेतों की सिंचाई हो रही है। बिजली की बचत होने से न सिर्फ किसानों की लागत कम हुई बल्कि सरकार की बिजली भी बच रही है। इसके अलावा अब बिजली बनाने के लिए लगने वाले कोयले का इस्तेमाल करने की भी ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी जिससे प्रदूषण से भी राहत मिलेगी।
  2. गरुवा :ग्रामीण जीवन का बड़ा आधार पशुधन हैं। नई योजना के तहत हर गांव में मवेशियों के लिए 3 एकड़ ज़मीन की पहचान की जा रही है। इसे ‘गौठान’ नाम दिया गया है। इन गौठानों में न सिर्फ दिन में पशुओं के रहने की व्यवस्था होगी बल्कि ये उनके लिए ‘डे-केयर सेंटर’ की तरह काम करेंगे। ये जगह किसी ऊंची जगह पर बनाई जाएगी। इसपर 2-4 बड़े छायादार पेड़ होंगे और इसके चारों तरफ भी पेड़-पौधे लगाए जाएंगे। इसमें बीमार पशुओं के लिए शेड, चारे के लिए शेड, और पीने के पानी की टंकी भी होगी। गौठान में बंधियाकरण और नस्ल सुधार का काम भी होगा। यहां दूध जमा करने की भी सुविधा रहेगी। इन गौठानों का फ़ायदा ये होगा कि पशु एक जगह सुरक्षित रहेंगे और आसपास की फ़सलों भी बर्बादी नहीं होंगी। जानवरों के नस्ल सुधार से दूध का उत्पादन भी बढ़ेगा। ग्रामीण व्यवस्था में गरुआ के तहत पशुओं के लिए ये व्यवस्था पूरे गांव के लिए बड़े फ़ायदे की है।
  3. घुरुवा : गौठान में ही सामुदायिक बायो गैस प्लांट और कम्पोस्ट यूनिट बनाने की योजना है। इसका फ़ायदा ये है कि गांव को रसोई गैस की सुविधा मिलेगी और खेतों को जैविक खाद मिलेगी। कम लागत में बेहतर फसल का उत्पादन होगा। गांव में चारागाह विकास पर भी ज़ोर दिया जा रहा है। घुरुवा को आधार बना कर घर-घर में बायोगैस प्लांट लगाने की ये योजना स्थानीय युवाओं को रोज़गार उपलब्ध कराने का ज़रिया बनेगी। गोबर गैस प्लान्ट और कम्पोस्ट इकाईयों बनाने और चलाने के ट्रेनिंग मॉड्यूल तैयार किए जा रहे हैं। प्रदेश सरकार की योजना है कि हर गांव में 10 युवाओं को इसकी ट्रेनिंग दी जाए। इस ट्रेनिंग को पाने से क़रीब 2 लाख युवाओं को गांवों में ही रोज़गार का अवसर मिल जाएगा।
  4. बाड़ी : छत्तीसगढ़ के गांवों में ज़्यादातर घरों से सटी ज़मीन पर साग-सब्ज़ी और मौसमी फल उगाने की परंपरा रही है। अब राज्य सरकार इसी पारंपरिक व्यवस्था पर और ज़ोर देने जा रही है। सरकार किसानों को ज़रूरत के मुताबिक उन्हें बाड़ी के लिए बीज दे रही है। नदी-नालों के किनारे फलदार पेड़ लगाए जा रहे हैं। इसमें जैविक खाद से उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर है ताकि ग्रामीण आबादी को पौष्टिक आहार मिल सके। साथ ही इससे युवाओं की आमदनी भी बढ़ाने की कोशिश है।
    नरवा, गुरुवा, घुरुवा और बाड़ी के विज़न को साकार करने के लिए कृषि-विभाग के साथ वन, पंचायत, ग्रामीण विकास और जल संसाधन विभाग मिलकर काम कर रहे हैं। खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इसमें विशेष रुचि ले रहे हैं। उन्होंने राज्य के ग्रामीणों, किसानों, नेताओं और अफ़सरों से कहा है कि वो इस योजना को सफल बनाकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दृष्टि से छत्तीसगढ़ को देश का मॉडल राज्य बनाएं।
    इस योजना को सफल बनाने के लिए राज्य सरकार ने एक और तरक़ीब लगाई है। सरकार ने मनरेगा को भी इससे जोड़ने का फैसला किया है। अब मनरेगा के तहत कराए जाने वाले कामों में इस योजना से जुड़े काम भी कराए जाएंगे। यानी इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए बजट की भी कमी नहीं रहेगी और मनरेगा के तहत आ रहे पैसे का खर्च भी सही तरीके से होगा। छत्तीसगढ़ सरकार ने मनरेगा के लिए राज्य बजट से 1,542 करोड़ रुपए दिए हैं।
    किसी ज़माने में गांव के लोग सिर्फ नमक लेने बाहर जाते थे। बाकी ज़रूरत की चीज़ें गांव में ही पैदा कर लेते थे। अगर राज्य सरकार की ये योजना क़ामयाब हो जाती है तो छत्तीसगढ़ के गांव एक बार फिर आत्मनिर्भर होंगे। कोई ताज्जुब नहीं कि आने वाले वक्त में छत्तीसगढ़ में आपको गांधी जी के सपनों का गांव दिखे।