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"पंजाब ने एक बार फिर मोदी सरकार को हरा दिया है." पीयू प्रशासन द्वारा प्रदर्शनकारियों की मांगें मानकर यूनिवर्सिटी सीनेट चुनावों का शेड्यूल जारी करने के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी में यही माहौल था.
एक महीने से भी कम समय में मोदी सरकार को चंडीगढ़ में दो बार पीछे हटना पड़ा.
पहला, उसने पंजाब यूनिवर्सिटी की सीनेट को भंग करने के अपने फैसले से कदम वापस खींच लिए.
दूसरा, केंद्र ने खुद ही वह प्रस्ताव वापस ले लिया जिसमें संविधान में बदलाव कर चंडिगढ को सीधे केंद्र के अधीन लाने की योजना थी. अगर यह बदलाव होता तो चंडिगढ एक लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन आ जाता और पंजाब के राज्यपाल का चंडिगढ के प्रशासनिक प्रमुख का पद खत्म हो जाता, जो1984 से चला आ रहा है.
इन दोनों कदमों ने पंजाब में गहरा आक्रोश पैदा किया, क्योंकि इन्होंने पुराने घावों को फिर से उभार दिया.
उदाहरण के तौर पर, 1984 से चला आ रहा राज्यपाल वाला प्रबंध पंजाब के लिए चंडीगढ़ पर अपने वैध दावे की प्रतीकात्मक स्वीकृति माना जाता है. वहीं पीयू को उस पंजाबी यूनिवर्सिटी के स्थानापन्न के रूप में देखा जाता है जो पंजाब को विभाजन के दौरान खोनी पड़ी थी.
अब जब एलजी वाला प्रस्ताव वापस ले लिया गया है और पीयू सीनेट चुनावों की तारीखें घोषित कर दी गई हैं, तो यह पंजाब के सिविल सोसाइटी के लिए एक बड़ी जीत मानी जा रही है.
लेकिन असली सवाल यह है कि पंजाब में बीजेपी की रणनीति क्या है. चंडीगढ़ में इन कदमों के जरिये वह क्या हासिल करना चाह रही थी. और इतने जल्दी हुए इन पलटवारों को कैसे समझा जाए.
हम इस लेख में इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे.
एल जी वाला कदम ऐसा लगता है मानो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की ओर से यह परखने की कोशिश थी कि पंजाब में जनता का रुझान किस ओर है. यह कदम तब आया जब पंजाब यूनिवर्सिटी की सीनेट को भंग करने के फैसले के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शनों के बीच सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा था. यह एक दूसरी घटना के बाद भी आया था, जिस पर हम इस लेख में आगे चर्चा करेंगे.
पंजाब बीजेपी ने पंजाब यूनिवर्सिटी और चंडीगढ़ संशोधन—दोनों मुद्दों पर हल्का विरोध जताया था. पंजाब इकाई की इस राय से सहमत होकर बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व एक तरह की अच्छी पुलिस बुरी पुलिस वाली रणनीति अपनाने की कोशिश कर रहा है. संदेश यह कि केंद्र सरकार पंजाब को प्रभावित करने वाले कड़े फैसले ले सकती है, लेकिन पंजाब बीजेपी पर राज्य के हितों के संरक्षक के तौर पर भरोसा किया जा सकता है.
एक पंजाब बीजेपी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर द क्विंट से कहा,"पीएम मोदी एक हकीकत हैं. पंजाब के लोगों को यह समझना चाहिए. क्या यह बेहतर नहीं होगा कि संबंध टकराव की बजाय बातचीत पर आधारित हों."
पंजाब बीजेपी का मानना है कि पंजाब में "विरोध संस्कृति" को लेकर अब थकान है और राज्य के हित इसी में हैं कि मोदी सरकार के साथ टकराव का रास्ता छोड़ दिया जाए.
पंजाब बीजेपी प्रमुख सुनील जाखड़ अक्सर संघवाद जैसे मुद्दों पर बोलते हैं और कई बार उनकी राय बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व से मेल नहीं खाती.
बीजेपी नेतृत्व का मानना है कि यह मतभेद पार्टी को पंजाब में विश्वसनीयता दिलाने में मदद कर सकता है और उसे अपने शहरी हिंदू वोटरों के पार जाकर भी विस्तार दे सकता है.
इस लिहाज से जाखड़ की राय को एक तरह से सधे हुए विरोध के रूप में भी देखा जा सकता है.
ऐसा रुझान केंद्रीय मंत्री रवनीत बिट्टू के हालिया बयान में भी दिखता है, जिसमें उन्होंने पंजाब की AAP सरकार की आलोचना की थी कि क्यों खडूर साहिब सांसद और कड़े रुख वाले नेता अमृतपाल सिंह को लगातार जेल में रखा गया है.
शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने हाल ही में तरनतारन विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में ठीकठाक प्रदर्शन किया. वह दूसरे नंबर पर रहा और 26 प्रतिशत वोट हासिल किए, जबकि इस सीट का उसका प्रमुख चेहरा, हरमीत सिंह संधू, AAP के टिकट पर चुनाव लड़ने चले गए थे. पंथिक राजनीति के क्षेत्र में भी पार्टी ने अमृतपाल सिंह समर्थित उम्मीदवार मंदीप सिंह खालसा के पक्ष में उठी लहर के बावजूद अपनी पकड़ बनाए रखी.
ज्ञानी हरप्रीत सिंह के नेतृत्व वाले बागी अकाली दल के चुनाव से बाहर होने और मंदीप सिंह का समर्थन करने के साथ, SAD (बादल) यह संदेश देने में कामयाब रहा कि वह पंजाब में मुख्य नरमपंथी पंथिक ताकत बनी हुई है.
अकाली दल के इस प्रदर्शन ने एक बार फिर इस संभावना पर चर्चा बढ़ा दी कि क्या उसका बीजेपी से फिर मेल हो सकता है. कागज पर देखें तो यह दोनों के लिए फायदेमंद लगता है. बीजेपी अब तक ग्रामीण पंजाब में पैर नहीं पसार पाई है, हालांकि उसने अपने संगठन को वहां मजबूत किया है. दूसरी ओर, शहरी हिंदू बहुल सीटों पर अकाली दल चौथे नंबर पर रहता है और AAP, कांग्रेस या बीजेपी से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है.
लेकिन, बीजेपी के भीतर इस मुद्दे पर मतभेद हैं. हाल ही के एक इंटरव्यू में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अकाली दल–बीजेपी गठबंधन को फिर से शुरू करने की बात कही थी.
हालांकि, BJP सूत्रों ने बताया कि पार्टी पंजाब में अपनी ग्रोथ को प्राथमिकता देना चाहती है और इस समय SAD के साथ गठबंधन नहीं करना चाहती.
पार्टी के भीतर यह धारणा है कि अकाली दल ने बीजेपी को ग्रामीण पंजाब में बढ़ने नहीं दिया, सिवाय उन इलाकों के जहां हिंदू आबादी ज्यादा है. वहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारियों की भी यह शिकायत है कि अकाली दल ने संघ और सिख संस्थाओं के बीच पुल बनाने की पर्याप्त कोशिश नहीं की, खासकर तब से जब अकाल तख्त ने संघ के खिलाफ हुकमनामा जारी किया था.
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यहां एक और कारक भी है. बीजेपी तब तक शिरोमणि अकाली दल के पीछे चलने को तैयार थी जब तक प्रकाश सिंह बादल जिंदा थे और अकाली दल पंजाब की सबसे प्रभावी पार्टी था.
एक बीजेपी पदाधिकारी जो पंजाब की राजनीति को अच्छी तरह समझते हैं, कहते हैं. "हम बादल साहब का सबसे ज्यादा सम्मान करते हैं. लेकिन अब हालात बदल चुके हैं. अकाली दल पहले जितना मजबूत नहीं रहा. दूसरी तरफ बीजेपी प्रधानमंत्री मोदी के नेतृतव में बहुत तेजी से बढी है. ऐसे में गठबंधन की पुरानी शर्तें अब वैसी नहीं रह सकतीं."
बीजेपी की सोच यह है कि अगर उसे कभी अकाली दल के साथ फिर हाथ मिलाना ही पड़ा तो वह 2027 के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले हो, उससे पहले नहीं.
और तब भी बीजेपी ऐसी स्थिति चाहेगी जैसी नीतीश कुमार या एकनाथ शिंदे के साथ बनी. जहां मुख्यमंत्री साथी दल का हो लेकिन असली ताकत बीजेपी के पास रहे.
BJP के लिए दिक्कत यह है कि देश भर में उसका विचारधारा से जुड़ा बेस और उसके बड़े कार्यकर्ता पंजाब में "कश्मीर-स्टाइल सॉल्यूशन" के पक्ष में हैं.
इस तबके में पंजाब में किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान BJP के प्रति "गुस्से" और सिख संगठनों और किसान यूनियनों द्वारा मोदी सरकार की नीतियों की लगातार आलोचना को लेकर गुस्सा है.
अमृतपाल सिंह के वारिस पंजाब दे के खिलाफ कार्रवाई को पार्टी बेस में काफी सपोर्ट मिला.
यह हमें उस दूसरी घटना की ओर ले जाता है, जिसका जिक्र हमने ऊपर किया था.
15 नवंबर को फिरोजपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक नवीन अरोड़ा की हत्या के बाद 'पंजाब में एक निर्णायक दृष्टिकोण' के लिए दबाव और बढ़ गया. अरोड़ा एक जाने-माने RSS परिवार से हैं - उनके पिता बलदेव राज अरोड़ा RSS के एक सीनियर नेता हैं और उनके दादा दीना नाथ अरोड़ा भी संघ से जुड़े थे. पंजाब में BJP, RSS और आर्य समाज से जुड़े संगठनों में राज्य में हिंदुत्व समर्थक लोगों की "टारगेट किलिंग" के खिलाफ एक मजबूत भावना है. यह तबका चाहता है कि केंद्र राज्य में सुरक्षा की स्थिति को मैनेज करने में ज्यादा प्रो-एक्टिव भूमिका निभाए.
ऐसा लगता है कि मोदी सरकार पंजाब को लेकर अपनी रणनीतियों पर विचार कर रही है और अब खारिज किए गए पंजाब यूनिवर्सिटी और चंडीगढ़ संशोधन कदम शायद किसी बड़े फैसले के लिए जनता की प्रतिक्रिया को परखने के प्रयास थे.
चुनावी मोर्चे पर, BJP पंजाब में हो रहे डेवलपमेंट पर करीब से नजर रख रही है और वह तीन तरह के अप्रोच पर सोच रही है.
पहला, उसे उम्मीद है कि कई पॉलिटिकल एक्टर्स के उभरने से पंथिक स्पेस में बंटवारा होगा.
दूसरा, वह छोटे क्षेत्रीय संगठनों में से किसी एक या अधिक के साथ गठबंधन कर सकती है.
तीसरा, वह कांग्रेस या AAP में बंटवारे की उम्मीद कर सकती है या शायद इसके लिए काम भी कर सकती है.
लेकिन BJP के रास्ते में कई रुकावटें हैं. चंडीगढ़ में हाल के कदम, हालांकि नाकाम रहे, लेकिन उन्होंने पंजाब में BJP के प्रति अविश्वास को और बढ़ा दिया है. किसान यूनियन, कई स्टूडेंट ऑर्गनाइज़ेशन और सिख बॉडी अभी भी ज्यादातर BJP के खिलाफ हैं.
हालांकि BJP लोकसभा लेवल पर शहरी हिंदू वोटर्स की नंबर वन पसंद हो सकती है, लेकिन असेंबली लेवल पर ऐसा नहीं हो सकता है. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में BJP का इस डेमोग्राफिक पर दबदबा था, लेकिन 2017 और 2022 के असेंबली चुनावों में उसका प्रदर्शन खराब रहा, क्योंकि शहरी हिंदू वोटरों ने कांग्रेस और AAP का साथ दिया.
पंजाब का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है कि पंथिक और शहरी हिंदू वोटरों के बीच आइडियोलॉजिकल वोटिंग लोकसभा चुनावों में ज्यादा होती है और असेंबली लेवल पर कम होती है. जो पार्टियां लोकल लेवल पर मजबूत हैं और समाज के सभी वर्गों से वोट पाने की क्षमता रखती हैं, उन्हें असेंबली लेवल पर फायदा होता है.
अगले कुछ महीने बहुत अहम होंगे. केंद्र और पंजाब सिविल सोसाइटी के बीच समझदारी की लड़ाई और तेज होने वाली है.