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लोकसभा चुनाव 2024 (Lok Sabha Chunav 2024) के तेलंगाना में आए नतीजों ने सभी को आश्चर्यकित कर दिया. यहां दो राष्ट्रीय पार्टियां, कांग्रेस और बीजेपी ने अपना दबदबा कायम किया तो क्षेत्रीय दल भारत राष्ट्रीय समिति (BRS) के दावों की पोल खुल गई जबकि असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली AIMIM सिर्फ अपना किला बचा पाई. ऐसे में समझते हैं कि तेलंगाना में क्या हुआ और उसकी वजह क्या है?
तेलंगाना में सत्तारूढ़ दल कांग्रेस और बीजेपी ने लोकसभा चुनावों में आठ-आठ सीटें जीतीं, जबकि हैदराबाद की एक सीट एआईएमआईएम के खाते में गई. वहीं, मुख्य विपक्षी दल भारत राष्ट्र समिति (BRS) को एक भी सीट नहीं मिली.
तेलंगाना में पार्टियों को मिली सीट का ब्यौरा.
(फोटो: मोहन सिंह/क्विंट हिंदी)
चुनाव आयोग के अनुसार, 2019 के मुकाबले बीजेपी का वोट शेयर 19.65 से बढ़कर 35.08 फीसदी पहुंच गया जबकि सत्तारूढ़ दल कांग्रेस 29.79 से बढ़कर 40.10 प्रतिशत आ गया. वहीं, बीआरएस 41.71 से घटकर 16.68 फीसदी पर पहुंच गई. अपने किले हैदराबाद में दमखम दिखाने वाली एआईएमआई का वोट शेयर 2.80 से बढ़कर 3.02 फीसदी हुआ.
तेलंगाना में पार्टियों का वोट शेयर.
(फोटो: मोहन सिंह/क्विंट हिंदी)
यानी बीजेपी, कांग्रेस और एआईएमआईएम का वोट शेयर क्रमश: 15.43, 10.31 और 0.22 प्रतिशत बढ़ा जबकि बीआरएस का 25.03 प्रतिशत घट गया. यहां गौर करने वाली बात यह है कि बीजेपी और कांग्रेस के वोट शेयर में बढ़ोतरी 25.74 फीसदी हुई है, जो करीब उतनी ही है जितना बीआरएस का वोट शेयर घटा है.
तेलंगाना में पार्टियों का वोट शेयर कितना बढ़ा और घटा.
(फोटो: मोहन सिंह/क्विंट हिंदी)
वहीं, अगर सीटवार नतीजों को देखें तो 17 लोकसभा सीटों वाली तेलंगाना में 2019 के चुनाव में बीआरएस को 9 सीटों पर जीत मिली, जबकि बीजेपी को 4 और कांग्रेस तीन सीट जीतने में सफल हुई थी. यानी जो 9 सीट बीआरएस हारी है, वो चार बीजेपी और पांच कांग्रेस के पाले में चली गई. मतलब साफ है कि बीआरएस को जो नुकसान हुआ, वो पूरी तरीके से बीजेपी और कांग्रेस को फायदे के रूप में मिला.
तेलंगाना में पार्टियों की सीट कितनी बढ़ी और घटी.
फोटो: मोहन सिंह/क्विंट हिंदी)
ऐसे में नतीजों ने कांग्रेस और बीजेपी को जश्न मनाने का मौका जरूर दिया क्योंकि दोनों पार्टियों ने 2019 के चुनावों में अपनी जीत का आंकड़ा दोगुना कर दिया. उनके कई उम्मीदवारों ने रिकॉर्ड अंतर से जीत हासिल की. नलगोंडा से कांग्रेस के उम्मीदवार कुंदुरू रघुवीर रेड्डी ने सबसे अधिक 5.59 लाख वोटों के अंतर से जीत हासिल की, जबकि 11 उम्मीदवारों ने 1 लाख से अधिक वोट से जीत हासिल की.
आश्चर्य की बात यह है कि मौजूदा चुनाव में बीआरएस उम्मीदवारों में कहीं भी संघर्ष जैसी स्थिति नहीं दिखी, जिसके कारण कांग्रेस और बीजेपी को मुकाबले में थोड़ी आसानी हो गई.
कौन, कहां जीता?: कांग्रेस ने नलगोंडा, भोंगीर, खम्मम, महबूबाबाद (एसटी), वारंगल एससी, जहीराबाद और नागरकुरनूल एससी आरक्षित सीटों पर प्रभावशाली अंतर से जीत हासिल की. दिसंबर 2023 के राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान इन सभी निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस के उम्मीदवार जीते थे और उनकी उपस्थिति से पार्टी के लोकसभा उम्मीदवारों का उत्साह बढ़ा.
बीजेपी के उम्मीदवारों ने आदिलाबाद, करीमनगर, निजामाबाद और सिकंदराबाद सीटें बरकरार रखीं जबकि चेवेल्ला, महबूबनगर, मेडक और मलकाजगिरी निर्वाचन क्षेत्रों पर कब्जा जमाया.
तेलंगाना के नतीजों को देखें तो पता चलता है कि यह नरेंद्र मोदी का करिश्मा था जिसने उत्तर और मध्य तेलंगाना में बीजेपी के लिए काम किया. प्रचार के दौरान पार्टी उम्मीदवारों ने खुले तौर पर बीजेपी के लिए समर्थन मांगा और लोगों से "मोदी के चेहरे को देखकर" पार्टी को वोट देने के लिए कहा.
निजामाबाद, आदिलाबाद और करीमनगर जैसे क्षेत्रों में, जहां अल्पसंख्यकों की अच्छी खासी आबादी है, वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण स्पष्ट रूप से देखा गया और इसका असर नतीजों पर पड़ा. यहां भगवा दल को मतदाताओं ने जमकर समर्थन दिया, जिसका अंतर चुनावी नतीजों और बीजेपी प्रत्याशियों की जीत में देखने को मिला.
मलकाजगिरी, चेवेल्ला और सिकंदराबाद जैसी शहरी सीटों पर भी बीजेपी को मतदाताओं का पूरा समर्थन मिला. महबूबनगर एकमात्र ऐसी सीट थी, जहां बीजेपी और कांग्रेस के बीच कांटे की लड़ाई हुई और अंत में सत्तारूढ़ दल ने मामूली अंतर से जीत हासिल की. बीजेपी नेताओं का बार-बार दोहराया जाने वाला नारा कि वे "मुस्लिम आरक्षण को खत्म कर देंगे", ने बहुसंख्यक समुदाय के मतदाताओं का ध्यान खींचा. इसका फायदा बीजेपी को मिला.
वहीं, कांग्रेस के ताकत की वजह राज्य में उसकी मौजूदा पकड़ और उसकी योजनाएं रही. महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा, पेट्रोल सब्सिडी, रायथुबारोसा और मुफ्त बिजली के लिए गृहज्योति जैसी कल्याणकारी योजनाओं का सफल कार्यान्वयन पार्टी की जीत का कारण बना. हालांकि, पार्टी टिकट आवंटन में पिछड़े वर्गों को शामिल करने में विफल रही, जिसके वजह से उसे कुछ सीटें गंवानी पड़ी.
पार्टी नेताओं को यह विश्लेषण करने के लिए बहुत आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता होगी कि आखिर क्या गलत हुआ. बीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष के.टी. रामा राव ने कहा कि यह एक गुजरता हुआ दौर है और पार्टी को पहले भी ऐसे हालातों का सामना करना पड़ा है.
उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान कड़ी मेहनत करने वाले पार्टी कार्यकर्ताओं का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, "हम जमीन से उठकर फिर से उभरेंगे".
चुनाव नतीजों को गौर करें तो एक और महत्वपूर्ण बात यह रही कि बीजेपी और कांग्रेस द्वारा मैदान में उतारे गए दलबदलुओं की हार हुई. बीआरएस के कई नेता इन दोनों पार्टियों में शामिल हो गए थे और चुनाव लड़े थे. हालांकि, मतदाताओं ने उन्हें नजरअंदाज कर दूसरे उम्मीदवारों पर भरोसा जताया.
यहां एक और चीज है, जो केसीआर की पार्टी के खिलाफ गई या कहें कि वो जनता को पसंद नहीं आई, वो है पार्टी का नाम बदलना. केसीआर ने 5 अक्तूबर 2022 को तेलंगाना राष्ट्र समिति या टीआरएस का नाम बदलकर भारत राष्ट्र समिति कर दिया, जो बाद में सवालों के घेरे में आ गया. इसका राज्य में विरोध भी हुआ और यहां तक कहा गया कि तेलंगाना के विकास के नाम पर राज्य गठन की मांग और पार्टी की स्थापना करने वाले चंद्रशेखर राव की अब महत्वाकांक्षा बढ़ गई है.
पार्टी के कई लोगों ने कहा कि इसे राज्य के मुद्दों से हटकर राष्ट्रीय आकांक्षाओं की ओर ध्यान केंद्रित करने के रूप में देखा गया और मतदाताओं ने इसे पसंद नहीं किया.
इसके अलावा बीआरएस नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप, जिनमें दिल्ली शराब मामले में राव की बेटी के. कविता की कथित संलिप्तता भी शामिल है, ने भी पार्टी की छवि को धूमिल किया है. वहीं, बीजेपी और कांग्रेस का अग्रेसिव प्रचार और कास्ट समीकरण को साधना भी उनकी जीत का कारण बना है.
कांग्रेस ने रेवंत रेड्डी और बीजेपी ने जी किशन रेड्डी के जरिए प्रदेश में अपने संगठन को जमीन तक मजबूत किया, जिसका फायदा दोनों दलों को विधानसभा चुनाव में भी मिला, जहां कांग्रेस 19 से बढ़कर 64 और बीजेपी 1 से बढ़कर 8 सीट पर पहुंच गई.
अब अगर नतीजों का निष्कर्ष निकालें तो इस चुनाव ने सबसे अधिक लाभ बीजेपी को पहुंचाया है, जो दक्षिण में अपने पैर पसारने के लिए बेदाब है. वहीं, कांग्रेस अपनी स्थिति मजूबत करने में सफल रही है. लेकिन बीआरएस और एआईएमआईएम के लिए परिणाम कड़े सबक वाला है. जो विचारों की बजाए सिर्फ विरोध की राजनीति पर निर्भर है. ऐसे में अगर ये दोनों दलों ने जल्द ही संगठन और रणनीति में बदलाव नहीं किया और जमीनी मुद्दों पर अपनी स्पष्टता नहीं दिखाई तो भविष्य की राहें और कठिन हो सकती है.
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