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ये सारे शब्द... सोशल मीडिया से लेकर गली-मुहल्ले, टीवी डिबेट पर सुनने को मिल रहे हैं. दरअसल, बैंगलोर में काम करने वाले आईटी प्रोफ़ेशनल अतुल सुभाष की मौत के बाद मेन्स राइट एक्टिविस्ट एक्टिव हैं. उन्हें लगता है शादीशुदा मर्दों की हर परेशानी की जड़ है IPC की धारा 498A. कई पुरुष कह रहे हैं कि घरेलू हिंसा (domestic violence), दहेज से जुड़े मामलों में ज्यादातर महिलाएं झूठे केस ही कराती हैं.
लेकिन सवाल है कि क्या सच में ऐसा है? क्या ये पूरा मामला Men vs Women का है? आज हम इसी की पड़ताल करेंगे... और बताएंगे कि ये 498ए क्या है जिसने महिलाओं को 'एक्स्ट्रा पावर' दे रखा है? कानून की नजर में दहेज भी अपराध है तो फिर क्या भारत में दहेज के बाजार में दूल्हा ऑन सेल बंद हो गया? और सबसे अहम सवाल असल जिम्मेदार कौन है जिसकी चर्चा नहीं हो रही.
स्टोरी आगे पढ़ने से पहले आपसे एक अपील... पुरुष, महिलाएं, ट्रांसजेंडर, अल्पसंख्यक बहुसंख्यक, आदिवासी, दलित, बच्चे-बूढ़े, शहर-गांव हर जरूरी मुद्दों पर क्विंट हिंदी आपकी आवाज बनने की कोशिश करता है, और आगे भी आपकी आवाज सुनी जाए इसके लिए आपको हमारे साथ आना होगा... क्विंट के मेंबर बनकर.
बिहार के रहने वाले अतुल सुभाष ने मरने से पहले 24 पन्ने का सुसाइड नोट लिखा और एक घंटे 21 मिनट का वीडियो बनाया, जिसमें उन्होंने अपनी पत्नी से लेकर सुसराल वालों और फैमिली कोर्ट की जज पर बड़े आरोप लगाए. नोट में अतुल ने बताया कि पत्नी निकिता और उसके परिवार वालों ने उनपर घरेलू हिंसा, हत्या की कोशिश, दहेज प्रताड़ना समेत 9 केस दर्ज करवा दिए थे. अतुल कई महीनों से अपने बच्चे से नहीं मिले थे. अतुल ने मेंटल कंडीशन, सुस्त न्यायपालिका सब का जिक्र किया है. साथ ही दहेज और शादी टूटने पर गुजारा भत्ता, ऐलिमनि, बच्चे की कस्टडी पर भी बात की है.
अतुल ने जिन मुद्दों की तरफ फोकस किया है वो सब अहम हैं, लेकिन क्या सालों की लड़ाई के बाद घरेलू हिंसा, तलाक, दहेज की वजह से हो रही हत्याओं से लड़ने के लिए बने कानूनों को मेन vs वुमेन कहकर रद्द कर देना चाहिए?
चलिए आपको कुछ आंकड़े दिखाता हूं. जिसका मकसद Men vs Women की लड़ाई बढ़ाना नहीं बल्कि इस परेशानी की जड़ में जाना है...
IPC की धारा 498ए क्या है?
साल 1983 में 498A लाया गया. इसके मुताबिक, अगर कोई पति या उसके रिश्तेदार, पत्नी का मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न करते हैं तो उन्हें तीन साल की सजा और जुर्माना या दोनों हो सकते हैं. ये एक गैर-जमानती अपराध है. फिलहाल भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 85 और 86 में भी समान प्रावधान हैं.
अब इसी कानून को लेकर मेल राइट एक्टिविस्ट कह रहे हैं कि महिलाएं इसका गलत इस्तेमाल कर रही हैं. ऐसे सवालों के जवाब ढूंढ़ने के लिए कुछ आंकड़े देखते हैं...
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 (NFHS-5) की माने तो, 18 से 49 साल की उम्र की 10 फीसदी महिलाओं ने कभी न कभी अपने पति पर हाथ उठाया है, वो भी तब जब उनके पति ने ऐसा नहीं किया होगा. अब ये सुनते ही मेल राइट एक्टिविस्ट कहेंगे- देखा कहा था न मर्दों पर जुल्म होता है.
लेकिन भाई साहब, थोड़ा रुकिए... और ये आंकड़े देखिए
शादीशुदा महिलाओं के खिलाफ हिंसा का एक और आंकड़ा देखिए.
एनसीआरबी के मुताबिक साल 2022 में पति या उसके रिश्तेदार के हाथों क्रूएलिटी के कुल 140019 नए मामले आए . इसके पहले के 55043 ऐसे मामले जांच के लिए पेंडिंग थे. 331 मामले जांच के लिए रिओपन किए गए. इनमें पुलिस ने फाइनल रिपोर्ट में 7076 केस को फर्जी बताया. इसी तरह NCRB की 2021 की रिपोर्ट से पता चलता है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के तहत 4,28,278 मामलों में से ज्यादातर 1,36,234 मामले (33%) भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A के तहत दर्ज किए गए और इन 136234 मामलों में से सिर्फ 6938 मामलों को पुलिसिया जांच में गलत/झूठा पाया गया.
मतलब ये ज्यादातर मामलों में महिलाएं झूठा केस कर रही हैं ये कहना गलत होगा. ये ऐसा ही है जैसे ये कहना कि SC/ST एक्ट का ज्यादातर लोग गलत इस्तेमाल कर रहे हैं.
हां, ये भी सच है कि हर कानून की कमियां, लूप होल का फायदा कई लोग उठा रहे हैं.. जैसे आप- UAPA, NSA, ED का PMLA (Prevention of Money Laundering Act) देख लीजिए. कई लोगों को परेशान करने, बदनाम करने के लिए उनपर केस दर्ज किए गए, उन्हें सालों जेल में रखा गया. और बाद में कई लोग बाइज्जत बरी हुए.
शायद इसलिए ही बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था....
अब उस आरोप पर आते हैं कि जिसमें कहा जाता है कि शादीशुदा महिलाएं अपने पति और उसके परिवारवालों को फंसाती हैं. यानी दहेज... Dowry.
लेकिन बिहार से लेकर यूपी, दिल्ली, मध्यप्रदेश, हरियाणा, बंगाल जैसे कई राज्यों में दहेज खुलेआम लिया जाता है. रेट कार्ड है. डॉक्टर से लेकर IAS,IPS तक ऑन सेल हैं. यही वजह है कि साल 2022 में, भारत में लगभग 6,450 दहेज से जुड़ी हत्याएं हुईं. 2018 में 7,167, 2019 में 7,141 और 2020 में दर्ज दहेज हत्या के 6,966 मामले सामने आए.
यहां ये जान लीजिए कि दहेज हत्या तब मानी जाती है, जब किसी महिला की मौत उसकी शादी के 7 साल के अंदर किसी चोट, जलन, या फिर असमान्य परिस्थितियों में हो जाती है और पता चलता है कि मौत से पहले पति या उसके किसी रिश्तेदार ने उसके साथ कोई क्रूरता या उत्पीड़न किया था.
अब एक और बात लोग कहते हैं कि पुरुषों पर शादी से आजाद होने के नाम पर लड़कियां एलमनी मांगती हैं, उन्हें गुजारा भत्ता देना पड़ता है. इसे समझने के लिए दो बातें समझनी होगी.
पहली- गुजारा भत्ता के पीछे की वजह है कि परिवार और बच्चों की देखभाल करने के लिए पत्नी या पति को अपने करियर से समझौता करना पड़ा. साथ ही वो पति या पत्नी पर फाइनेंशियली निर्भर रहता है. इसलिए ऐसे हालात में गुजारा भत्ता एक सहारा बन सकता है.
दूसरी- भारत में लोग समझते है कि गुजारा-भत्ता या मेंटेनेंस केवल महिलाओं को ही मिलता है. लेकिन ऐसा नहीं है. हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 और धारा 25 के तहत अगर पत्नी आर्थिक रूप से सक्षम हो और पति फाइनेंशियली कमजोर हो, तो पति मेंटेनेंस की मांग कर सकता है. साल 2011 के रानी सेठी बनाम सुनील सेठी मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने 20,000 रुपये का हर महीने गुजारा भत्ता तय किया था.
अब आते हैं सबसे अहम प्वाइंट पर जिसकी चर्चा नहीं हो रही है. वो है- सिस्टम यानि सिस्टमेटिक फेलियर.
भारत के बाकी अदालतों की तरह, फैमली कोर्ट पर भी बड़ा बोझ है. शादी-तलाक, गुजारा भत्ता, बच्चे की कस्टडी इन सब केस में सबसे अहम रोल होता है फैमली कोर्ट का. अतुल सुभाष का केस हो या किसी और का. बार-बार अदालत, पुलिस, कानूनी प्रोसेस में कमी सामने आ रही है. भारत में अभी कुल 848 फैमिली कोर्ट काम कर रहे हैं. अकेले 2024 में (30 सितंबर तक) इन कोर्ट में 6,43,828 केस रजिस्टर्ड हुए जबकि 12,42,970 केस अभी भी पेंडिंग हैं. कई मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि फैमली कोर्ट में कई जज एक दिन में 50 से ज्यादा केस देखते हैं.
जजों की बात करें तो फैमली कोर्ट में 25725 पद स्वीकृत थे लेकिन इनमें से केवल 20,487 भरे थे. यानी 20% से ज्यादा खाली हैं. (30 ऑक्टूबर 2024 तक)
पुलिस से लेकर जजों को जेंडर सेंसेटाइज करना होगा. इन केस के निपटारे के लिए बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने होंगे. काउंसिलिंग सिस्टम को बेहतर और easily accessible बनाना होगा. शादी और तलाक से जुड़े टैबू को दूर करना होगा. सालों चलने वाले कानूनी प्रोसेस को टाइम बाउंड बनाना होगा. परिवार के टूटने से लेकर परिवार के बने रहने का मामला फाइनेंशियल के साथ-साथ इमोशनल भी होता है.
हर इंसान की परेशानियां एक दूसरे से अलग हो सकती हैं, सबको एक तराजू में मत तौलिए. और समझिए कि ये लड़ाई मेन्स वर्सेज वूमन की नहीं. बल्कि एक इंसान के लिए न्याय की है. फिर वो चाहे पुरुष हो या फिर महिला. men vs women की बहस छोड़ सिस्टम से पूछिए. जनाब ऐसे कैसे?