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इस साल जनवरी में, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पीएचडी स्कॉलर शरजील इमाम (Sharjeel Imam) को जेल में रहते हुए पांच साल पूरे हुए. इस बीच, दिल्ली दंगे (बड़ी साजिश) मामले में उनकी जमानत याचिका 2022 से दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित है.
साल 2020 में FIR संख्या 59 के तहत शरजील और 18 अन्य लोगों पर कठोर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत मामला दर्ज किया गया था. शरजील के जेल जाने के बाद से ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उनके बारे में काफी चर्चा हुई.
तिहाड़ सेंट्रल जेल की सलाखों के पीछे से लिखित रूप में लिए गए इस एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में 37 वर्षीय शरजील ने जेल में बिताए गए अपने समय, इस दौरान उनके द्वारा पढ़ी जा रही किताबों, जिन कैदियों से उनकी जान-पहचान हुई और जेल में दोस्त बनी बिल्लियों के बारे में बताया है.
वह यह सब करते हुए, दुनिया के साथ जुड़े रहने की लालसा भी व्यक्त करते हैं (उन्हें एआई तकनीक में हो रही प्रगति में गहरी दिलचस्पी है और वह अपनी पीएचडी पूरी करने की आशा रखते हैं) और अपनी मां की पीड़ा पर शोक प्रकट करते हैं.
आप कैसे हैं और आपका स्वास्थ्य कैसा है?
किसी की स्थिति को शब्दों में सटीक रूप से व्यक्त करना मुश्किल होता है. मेरे लिए ये और मुश्किल है, क्योंकि मैं अपने आप को मानवता का छात्र और एक राजनीतिक कार्यकर्ता समझता हूं. इसलिए मेरे लिए "मैं" और बाकी सब के बीच अंतर करना संभव नहीं है. गालिब का एक शेर है:
"क़तरा में दजला दिखाई न दे और जुज़्व में कुल
खेल लड़कों का हुआ दीदा-ए-बीना न हुआ"
(अगर आप बूंद में नदी और भागों में समग्रता नहीं देख सकते, तो आप बच्चों की तरह देख रहे हैं, दूरदर्शी की तरह नहीं.)
हालांकि, जहां तक मेरे शारीरिक सेहत का सवाल है, मैं ठीक हूं, मुझे कोई बड़ी बीमारी नहीं है जिसकी शिकायत हो. जेल की जिंदगी के सीमित नियमों की वजह से थोड़ी परेशानी तो होती है, लेकिन शिकायत करने जैसी कोई बात नहीं है.
एक प्रकार का अकेलापन महसूस होता है, क्योंकि यहां ऐसे बहुत कम लोग हैं जिनके साथ मैं उन विषयों पर चर्चा कर सकूं जिनके बारे में मैं बहुत अधिक उत्साहित रहता हूं, और समय के साथ इसका असर दिखने लगता है.
आप इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं? पिछली बार कौन सी किताब/पेपर आपको सबसे ज्यादा पसंद आया था और क्यों?
हमेशा की तरह मैं एक साथ कई किताबें पढ़ रहा हूं.
इस्लामिक स्टडीज में, मैंने पिछले कुछ महीनों में इस्लामिक स्कॉलर राशिद शाज की पांच किताबें पढ़ी हैं, और अभी मैं “इदराक-ए-ज़वाल-ए-उम्मत” (2005) के दूसरे पार्ट को पढ़ रहा हूं, जहां उन्होंने इस्लामी वाद-विवादों की रूढ़िवादी सांप्रदायिक और कानूनी प्रकृति को चुनौती दी है, जो अक्सर संदिग्ध मूल के ऐतिहासिक आख्यानों पर आधारित होते हैं. इनमें प्राचीन मिथकों और कथाओं की झलक भी देखने को मिलती है, जिन्हें हमारे पास भोले, भ्रमित या कभी-कभी पूरी तरह से बेईमान विद्वानों द्वारा पारित किया गया है.
इसके अलावा, शाज ऐतिहासिक ग्रंथों और कथाओं को पवित्र बनाने की प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं, और हमें यह याद दिलाते हैं कि ऐतिहासिक अध्ययन, चाहे वे कितने भी सहायक क्यों न हों, कभी भी "शाश्वत या पूर्ण सत्य" का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते और कभी भी प्राथमिक स्रोत यानी कुरान की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते हैं. वो इन बहसों के कारण कुरान के संदेश पर पड़ने वाले प्रभाव पर अफसोस जताते हैं, जिसके कारण एकेश्वरवादी और क्रांतिकारी धार्मिक प्रवृत्ति पर ग्रहण लग रहा है- पवित्र कुरान में व्यक्तिगत जिम्मेदारी, न्याय, समानता के आदर्शों पर जोर दिया गया है और सबसे बढ़कर अज्ञात के प्रति आश्चर्य और विस्मय का भाव है- ये (ग्रहण) अधिकांश इस्लामी स्कूलों और संप्रदायों के "विद्वान" वर्गों के बीच लग चुका है. दुर्भाग्यवश, इस घटना ने अधिकांश इस्लामी विचारधाराओं के मतों और विश्वदृष्टि में "पवित्र" और "धर्मनिरपेक्ष" (अर्थात धार्मिक और अधार्मिक) विज्ञानों के कृत्रिम और झूठे विभाजन को जन्म दिया है. यह एक बहुत जरूरी किताब है, और मुझे लगता है कि यह इकबाल जैसे 20वीं सदी के महान लोगों द्वारा बताए गए मार्ग पर आगे बढ़ता है.
फिक्शन के क्षेत्र में, मैंने अभी-अभी ओरहान पामुक की ‘स्नो’ पढ़ी है, और मैं अभी जॉन मोर्टिमर की ‘फॉरएवर रम्पोल’ पढ़ रहा हूं. मुझे रम्पोल की कहानियां बहुत अच्छी लगीं. रम्पोल एक बैरिस्टर हैं और लंबे समय में मेरे सामने आए सबसे मजेदार काल्पनिक पात्रों में से एक हैं. काव्य के क्षेत्र में, मैं अभी अकबर इलाहबादी के तीन खंडों को पढ़ रहा हूं. इतिहास में मैं अभी विलियम डेलरिम्पल की “फ्रॉम द होली माउंटेन” पढ़ रहा हूं - यह एक यात्रा-वृत्तांत-सह-इतिहास पुस्तक है, जो 1990 के दशक में लेवेंट के ईसाइयों के जीवन का दस्तावेजीकरण करती है. विज्ञान में, मैंने मैक्स जैमर की एक और किताब पढ़ना शुरू किया है, जो पिछले 3 सालों में उनकी चौथी किताब है, “कॉन्सेप्ट्स ऑफ स्पेस” (1993 संस्करण). और आखिर में, जर्मन साहित्य में मैंने पिछले हफ्ते “डेर टॉड इन वेनेडिग” (डेथ इन वेनिस) खत्म की है.
क्या आपकी आपके परिवार से बात हुई है? अब वे कैसे हैं? आखिरी बार क्या बातचीत हुई थी?
कोर्ट के आदेश के मुताबिक, मैं हफ्ते में पांच-पांच मिनट की तीन कॉल कर सकता हूं, और हर हफ्ते 15 मिनट का वीडियो कॉल. कुल 30 मिनट. मेरी मां उम्मीद कर रही है कि मैं "जल्द" बाहर आऊंगा. हालांकि, उनकी तबीयत ठीक नहीं है- वो ज्यादातर बीमार ही रहती हैं. उनकी उम्र साठ साल से ज्यादा है और उन्होंने भी अधिकांश महिलाओं की तरह धैर्य और कठिनाई से भरा कठिन जीवन बिताया है. 11 साल पहले उनके पति की मौत और पांच साल पहले मेरी गिरफ्तारी ने उसकी जिंदगी को और भी मुश्किल बना दिया. मुझे उम्मीद है कि मैं यहां से निकलकर उनके साथ ज्यादा समय बिता पाऊंगा.
मेरा एक भाई है- जो मुझसे सिर्फ दो साल छोटा है- अप्रैल में वो 35 साल का हो जाएगा. पिछले पांच सालों से वो ही हमारा खर्च उठा रहा है. इसके अलावा, वह मेरी मांगें (किताबें आदि), शिकायतें और कभी-कभी डांट-फटकार सुनता रहता है. मेरे सहित सभी के अनुरोधों के बावजूद, वह शादी करने से मना कर देता है, यह कहते हुए कि जब तक मैं रिहा नहीं हो जाता (और सिर्फ अंतरिम जमानत पर नहीं) वह शादी नहीं करेगा. मैं उनके फैसले से सहमत नहीं हूं, लेकिन मैं उसे समझने की कोशिश करता हूंं.
हमारी सामान्य बातचीत होती है, हम अदालती कार्यवाही के बारे में बात करते हैं, विशेष रूप से दिल्ली हाईकोर्ट में मेरी जमानत की सुनवाई के बारे में जो तीन साल से चल रही है. हम रिश्तेदारों के बारे में बात करते हैं- कौन क्या कर रहा है, कौन दुनिया से चला गया. हम राजनीतिक घटनाक्रमों के बारे में बात करते हैं, खास तौर पर बिहार में. हम अपने गांव के बारे में बात करते हैं, और उस मोहल्ले के बारे में भी, जहां मैं पला-बढ़ा हूं, पटना (सब्जीबाग) में, जहां मेरे मामा रहते हैं.
आप बहुत लंबे समय से जेल में हैं, क्या आपको लगता है कि आपका सबसे बुरा वक्त बीत चुका है?
न्यायिक हिरासत में मेरा छठा साल शुरू हो गया है. मैं यह नहीं कह सकता कि सबसे बुरा समय बीत चुका है या नहीं. मेरा मतलब है कि अगर आप इस यूएपीए मामले में मेरी जमानत के बारे में बात कर रही हैं, तो हां, पांच साल जमानत पाने के लिए पर्याप्त लग सकते हैं और इसलिए हम भविष्य को लेकर आशावादी हैं.
हालांकि, जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया है, असली मुद्दा अभी भी अनसुलझा है. अगर मैंने इतिहास का अध्ययन करने, अपने समुदाय के साथ-साथ अन्य उत्पीड़ित लोगों के लिए न्याय की तलाश करने, भारतीय राजनीति के लोकतंत्रीकरण के लिए लड़ने, राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ने आदि के लिए कॉर्पोरेट जगत में अपना करियर छोड़ दिया है, तो फिर जमानत मिलने का मतलब यह नहीं है कि “सबसे बुरा वक्त खत्म हो गया है”. इस तरह के विश्लेषण का मतलब होगा कि फासीवादियों ने हमें डराकर आत्मसमर्पण कराने में सफलता हासिल कर ली है. सबसे बुरा समय तभी खत्म होगा जब भारत के मुसलमानों को इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनका उचित हिस्सा मिलेगा. यह संघर्ष, यह कैद, यह कोई व्यक्तिगत संघर्ष नहीं है- मैं दशकों से चली आ रही एक बड़ी घटना का सिर्फ एक प्रतिनिधि हूं- अभी सफर लंबा है.
मजाज़ के शब्दों में:
"बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है
मिरी बर्बादियों का हम-नशीनो
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है"
अपने सबसे कठिन वक्त में आप खुद को क्या याद दिलाते हैं?
इस सवाल का जवाब दो हिस्सों में है.
पहला व्यक्तिगत है- मैं अपने व्यक्तिगत फैसलों और कामों के लिए ईश्वर के सामने उत्तरदायी हूं. इसलिए, ईश्वर को याद करके और अपनी कमियों को ध्यान में रखकर, मैं खुद को फिर से खोजने और जीवन में दिशा खोजने की कोशिश करता रहता हूं. कुरान में लिखा है: "निःसंदेह, ईश्वर की याद में, दिलों को संतुष्टि मिलती है." (कुरान 13:28).
दूसरा हिस्सा विभाजन के बाद से हमारे समुदाय के साथ हुए अन्याय के मुद्दे से जुड़ा है. मैं एक उदाहरण देता हूं- संविधान सभा के कई मुस्लिम सदस्यों के विरोध के बावजूद 1950 में फर्स्ट पास्ट-द-पोस्ट (एफपीटीपी) चुनाव प्रणाली शुरू की गई थी, जिन्होंने आनुपातिक प्रतिनिधित्व के साथ चुनाव प्रणाली की मांग की थी.
अगर हम एफपीटीपी के खिलाफ संविधान सभा में हसरत मोहानी (यूपी), तजम्मुल हुसैन (बिहार) और अन्य के बयानों को पढ़ें, तो हमें एहसास होगा कि मुसलमानों का राजनीतिक बहिष्कार 1950 में सुनिश्चित किया गया था. मुसलमानों को 1950 से राजनीतिक रूप से हाशिए पर रखा गया है. 2014 के बाद के घटनाक्रम उसी तर्ज पर आगे बढ़ी हैं.
मैं एफपीटीपी का उदाहरण यह बताने के लिए दे रहा हूं कि इस तरह का रिसर्च इंटरनेट से पहले संभव था, लेकिन इंटरनेट के बिना बड़े पैमाने पर चर्चा संभव नहीं थी. सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन, कारावास और इंटरनेट ने मुझे एक मंच प्रदान किया है, जिसके माध्यम से ये विचार कई दक्षिण एशियाई भाषाओं में बड़े दर्शकों तक पहुंची हैं. 15 साल पहले इंटरनेट के बिना यह असंभव था. उम्मीद है कि इन चर्चाओं से मुसलमानों को पुरानी कांग्रेस के "धर्मनिरपेक्षता" के दावों और उसके द्वारा बनाए गए ढांचे के खोखलेपन का एहसास होगा.
मैं खुद को याद दिलाता हूं कि यह बलिदान जोखिम उठाने लायक है- हो सकता है कि इससे तत्काल परिणाम न मिलें, लेकिन अंततः यह हमें धर्मनिरपेक्ष बहुसंख्यकवाद के षड्यंत्रों को समझने में मदद करेगा. मुझे इस उम्मीद में सांत्वना मिलती है कि जिस तरह का मेरा संघर्ष रहा है उस तरह के संघर्ष अंततः हमें सच्चे लोकतांत्रिक सुधारों की ओर ले जाएंगे, जहीर कश्मीरी के शब्दों में:
"हमें है इल्म कि हम हैं चराग़-ए-आख़िर-ए-शब
हमारे बाद अंधेरा नहीं उजाला है"
क्या जेल के अनुभवों से आप खुद में बदलाव महसूस करते हैं?
अपनी स्वतंत्रता से वंचित होना, कैदियों के साथ रहना और जेल में होने वाली ज्यादतियों को प्रत्यक्ष रूप से देखना, इन सबका मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा है.
सबसे पहले, इसने मुझे उन चीजों की सराहना और महत्व देना सिखाया है, जिन्हें मैं हमेशा से हल्के में लेता रहा हूं- परिवार और दोस्त, किताबें और इंटरनेट, या यहां तक कि कव्वाली और नुसरत फतेह अली खान.
दूसरा, मैं आम तौर पर साथी इंसानों पर कम भरोसा कर पाता हूं, क्योंकि जेल में शायद ही कोई अपने बारे में सच बोलता है, और इसकी वजह से लोग संदेह करते हैं. जेल में इंसान के स्वभाव का सबसे बुरा पक्ष सामने आता है. दूसरी ओर, इसने मुझे कई तरह के अन्याय और अलगाव के प्रति ज्यादा संवेदनशील बना दिया है.
यहां ज्यादातर गरीब दोषियों और विचाराधीन कैदियों के साथ मेरी बातचीत ने भी मेरी समझ को समृद्ध किया है. जैसे-जैसे मैंने असम और फिर दिल्ली और हरियाणा के लोगों के साथ विभिन्न जेलों में समय बिताया, मेरा सोच निश्चित रूप से विस्तृत हुई है, और मैं उन मुद्दों को अधिक व्यापक रूप से व्यक्त करने के लिए बेहतर ढंग से सुसज्जित हो गया हूं जिन्हें मैं उठाना चाहता हूं.
एक और बदलाव यह हुआ है कि मुझे समय की कीमत का एक स्पष्ट दृष्टिकोण मिला है. यह थोड़ा विरोधाभासी है, क्योंकि जेल में बहुत सारा खाली समय होता है. लेकिन, परिवार के साथ पांच मिनट की कॉल आपको पांच मिनट के मूल्य का एहसास कराती है. दूसरा, पांच साल जेल में बिताने के बाद यह सवाल उठता है कि इन पांच सालों में मैंने क्या हासिल किया है, जो कि मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है? मैं क्या पढ़ और सीख पाया हूं? मैं कितना कार्य-कुशल हूं? जब मैं बाहर था तो क्या मैं अधिक या कम कुशल था?
इन सवालों ने समय के प्रति दृष्टिकोण में एक निश्चित परिवर्तन ला दिया है.
अंत में, कानून, कानूनी प्रक्रिया और कैदियों तथा बड़े समाज पर इसके प्रभाव के बारे में मेरी समझ काफी व्यापक हो गई है. मैंने कानूनी दस्तावेजों के हजारों पन्ने पढ़े हैं: निर्णय, आदेश, याचिकाएं, संहिताएं, अधिनियम, आरोपपत्र आदि. मैंने पाया कि कंप्यूटर विज्ञान की पढ़ाई से मुझे कानून के एल्गोरिदम, तार्किक और वाक्यविन्यास संबंधी पक्ष में मदद मिली, जबकि ऐतिहासिक अध्ययन में मेरी शिक्षा से मुझे शब्दार्थ की खोज करने और उसे सुलझाने में मदद मिली. जब मैं बाहर आऊंगा तो मेरे पास इस पर कहने के लिए बहुत कुछ होगा.
क्या आपने जेल में दोस्त बनाए हैं? वे कैसे हैं?
पिछले कुछ सालों में मेरा कई लोगों से परिचय हुआ है, उनमें से कुछ को दोस्त भी कहा जा सकता है. लेकिन जेल एक अस्थिर जगह है, लोग रिहा होते हैं, दूसरे वार्ड या जेल में ट्रांसफर कर दिए जाते हैं, और रातों-रात आप किसी ऐसे व्यक्ति को खो देते हैं जो आपकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गया था.
इसके अलावा, जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, यहां आप जो पहली चीज सीखते हैं, वह है किसी पर भरोसा न करना; क्योंकि लगभग हर कोई कहेगा कि वह निर्दोष है. बहुत से लोग आपको यह भी नहीं बताएंगे कि उन पर क्या आरोप लगाया गया है— और यह पूरी तरह से समझ में आता है. इसलिए यह पता लगाना मुश्किल है कि कोई व्यक्ति अपने अपराध/निर्दोषता या इरादों के बारे में खुलकर बात करता है या नहीं. ऐसे में दोस्ती मुश्किल है.
हालांकि, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खुलकर अपनी बात रखते हैं और मैं उनसे सार्थक बातचीत करता हूं. फिर कुछ ऐसे भी हैं जो परिस्थितियों के शिकार थे, लेकिन इसकी वजह से उन्हें दोष मुक्त नहीं किया जा सकता है, लेकिन उनके साथ सहानुभूति रखी जा सकती है और उनकी स्थिति को समझने की कोशिश की जा सकती है.
इसके अलावा, अब तक सैकड़ों कैदी अपने आरोपपत्र आदि लेकर मेरे पास आ चुके हैं. मैं रोज आरोप-पत्र और फैसले पढ़ता हूं और कैदियों के साथ उन पर चर्चा करता हूं, इससे मुझे इन मामलों और कैदियों के बारे में बहुत सी जानकारियां मिली हैं और मैं चुप रहकर उनके भरोसे का सम्मान करता हूं.
यहां हमेशा कुछ राजनीतिक कैदी भी होते हैं जिनसे मैं कभी-कभार बात कर लेता हूं. मुझे इन बातचीत में सबसे ज्यादा मजा आता है.
मेरे साथ मेरे सेल में दो बिल्लियां रहती हैं. एक तीन साल का नर बिल्ली छोटू और एक दो साल की लिसा. लिसा का जुड़वां मैक्स बीमार हो गया और पिछले हफ्ते उसे बाहर एक परिवार के पास भेजना पड़ा. तीनों अपने जन्म से ही मेरे साथ रह रहे हैं जब उनकी मां उन्हें मेरे पास लेकर आई थी. उनमें से दो अभी भी मेरे साथ हैं. छोटू, खास तौर पर, यहां मेरा सबसे अच्छा दोस्त है. मुझे उम्मीद है कि जब मैं रिहा होऊंगा तो उसे भी साथ लाऊंगा.
इसके अलावा, यहां मेरी किताबों के साथ एक बहुत ही अकेली जिंदगी है.
खाली समय में आप क्या करते हैं?
मैं हर रोज लगभग 4-5 घंटे पढ़ता हूं- कभी-कभी उससे भी ज्यादा. मुझे पांच अंग्रेजी अखबार, दो उर्दू, एक हिंदी और एक बांग्ला मासिक पत्रिका मिलती है. हर रोज लगभग दो घंटे मैं इन्हें पढ़ने में बिताता हूं. बाकी समय किताबें पढ़ने में बिताता हूं.
मैं हर रोज एक या दो घंटे टीवी देखता हूं, खास तौर पर समाचार और कुछ अंग्रेजी टीवी शो (फिलहाल, मैं हाउस ऑफ कार्ड्स देख रहा हूं) और फिल्में. फिर डीडी उर्दू पर कव्वाली और गजल के कार्यक्रम होते हैं. इसके अलावा, टीवी में रेडियो भी है. जब मैं पढ़ता हूं या सोचता हूं या सेल में चलता हूं तो मुझे बैकग्राउंड में संगीत सुनना बहुत पसंद है. मुझे खास तौर पर गजलें, पुराने बॉलीवुड गाने और पुराने रॉक गाने पसंद हैं. लेकिन दुख की बात है कि रेडियो पर नुसरत का कोई गीत नहीं आता है.
वार्ड में एक मस्जिद है, और हम दिन में कम से कम दो बार जमात के साथ नमाज पढ़ते हैं- अस्र और मगरिब (दोपहर और शाम). मैं हर रोज मस्जिद में कुछ समय बिताता हूं. बाकी सभी नमाजें सेल में ही होती हैं. शारीरिक गतिविधि के लिए, मैं या तो बैडमिंटन खेलता हूं या एक घंटे के लिए वार्ड में टहलता हूं. मैं नियमित रूप से शतरंज भी खेलता हूं.
बाहर आने के बाद आप सबसे ज्यादा किस चीज का इंतजार कर रहे हैं?
इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है. निजी तौर पर मैं अपनी मां और भाई के साथ समय बिताने के लिए उत्सुक हूं.
कंप्यूटर विज्ञान के एक छात्र के रूप में, मैं AI तकनीक में विकास को लेकर उत्साहित हूं. मैं इसके बारे में और अधिक जानने के लिए उत्सुक हूं. आधुनिक इतिहास के एक छात्र के रूप में, मुझे एहसास है कि AI के माध्यम से बहुत सारे इतिहास लेखन को गति दी जा सकती है, क्योंकि बहुत बड़ी मात्रा में प्राथमिक डेटा डिजिटल प्रारूप में मौजूद है, या इसे आसानी से डिजिटल किया जा सकता है- विशेष रूप से आधुनिक इतिहास.
मैं ‘गौहत्या और सांप्रदायिक संघर्ष’ पर अपनी थीसिस पूरी करने के लिए भी उत्सुक हूं, जो उस समय अंतिम रूप ले रही थी जब मुझे जेल भेजा गया था. लेकिन सबसे बढ़कर, मैं सीखने और संघर्षों से भरी जिंदगी का इंतजार कर रहा हूं, जो इंशा अल्लाह बहुत फायदेमंद होगी. मजाज़ के खूबसूरत शब्द हैं:
"उठेंगे अभी और भी तूफान मेरे दिल से
देखूंगा अब इश्क के ख्वाब और ज्यादा''
(यह इंटरव्यू मूल रूप से अंग्रेजी में है, जिसे हिंदी में ट्रांसलेट किया गया है.)
(मेखला सरन एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं. वह पहले द क्विंट की प्रमुख कानूनी संवाददाता थीं.)
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