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CM चेहरा नहीं, कुड़मी वोट बंटा, घुसपैठिया मुद्दा: झारखंड में NDA की हार के 5 बड़े कारण

Jharkhand Election Result 2024 | NDA का सीट शेयरिंग फॉर्मूला देखें तो BJP 68, AJSU 10, JDU 2 और LJP(R) एक सीट पर चुनाव लड़ी है.

मोहन कुमार
राजनीति
Published:
<div class="paragraphs"><p>झारखंड विधानसभा चुनाव 2024: NDA की हार के 5 बड़े कारण</p></div>
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झारखंड विधानसभा चुनाव 2024: NDA की हार के 5 बड़े कारण

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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झारखंड विधानसभा चुनाव (Jharkhand Election 2024) में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी NDA को बड़ा झटका लगा है. सत्ता में वापसी का बीजेपी का सपना टूट गया है. हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के नेतृत्व में INDIA गठबंधन लगातार दूसरी बार चुनाव जीतकर सरकार बनाने जा रही है.

नतीजों पर नजर डालें तो, INDIA गठबंधन को 56 सीटें मिलती दिख रही है. जेएमएम 34, कांग्रेस 16, आरजेडी 4 और CPI-ML 2 सीट पर जीत रही है. दूसरी तरफ NDA के खाते में 25 सीटें जाती दिख रही है. बीजेपी को 21, AJSU, जेडीयू और LJP(R) को एक-एक सीट मिलती दिख रही है.

ऐसे में सवाल उठ रहा है कि पूरी ताकत झोंकने के बावजूद भी बीजेपी झारखंड की सत्ता में वापसी क्यों नहीं कर पाई? चलिए आपको वो 5 फैक्टर बताते हैं, जिससे NDA को हार का सामना करना पड़ा.

1. बीजेपी के पास CM चेहरा नहीं

झारखंड विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी अपने पुराने- 'बिना किसी मुख्यमंत्री चेहरे' वाले फॉर्मूले पर चुनाव में उतरी थी. पार्टी का ये दांव पिछले कुछ चुनावों में चला, लेकिन झारखंड में फेल साबित हुआ है.

दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन, प्रदेश के कद्दावर आदिवासी नेताओं में से एक और मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नाम पर सियासी रण में उतरी थी. जानकारों की मानें तो बीजेपी में कोई सीएम फेस नहीं होने की वजह से पार्टी को नुकसान हुआ है.

ऐसा नहीं है कि बीजेपी के पास कोई बड़ा आदिवासी नेता नहीं है. बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा और चंपाई सोरेन पार्टी के साथ हैं. मरांडी ने 2020 में अपनी पार्टी का बीजेपी में विलय कर दिया था, जबकि चंपाई सोरेन विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी में शामिल हुए थे.

जानकारों का मनना है कि पार्टी अभी भी मरांडी और मुंडा जैसे पुराने चेहरों को ही आगे रख रही है, जिनकी जनता में स्वीकार्यता खत्म हो चुकी है. अर्जुन मुंडा तो इस साल हुए लोकसभा चुनाव में भी हार गए थे. वहीं मरांडी ने आदिवासियों के आरक्षित सीट छोड़कर अनारक्षित सीट से चुनाव लड़ा है. ऐसे में कहा जा रहा है कि जनता प्रदेशस्तर पर नेतृत्व में बदलाव चाहती है.

पार्टी ने एसटी सीट पोटका से अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा को मैदान में उतारा था, लेकिन उन्हें भी जेएएम उम्मीदवार संजीब सरदार के हाथों हार का सामना करना पड़ा है.

2. जयराम के आने से कुड़मी वोट बंटे

कुड़मी वोट बैंक को साधने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने सुदेश महतो की AJSU पार्टी के साथ हाथ मिलाया था, लेकिन जयराम महतो के मैदान में उतरने से समीकरण बिगड़ गया और कुड़मी वोट बंटे हैं. जिसका नुकसान AJSU और बीजेपी को हुआ है.

NDA गठबंधन के तहत AJSU पार्टी ने 10 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. सिल्ली सीट से पार्टी प्रमुख सुदेश महतो खुद चुनाव हार गए हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा के अमित कुमार ने जीत दर्ज की है. जयराम महतो की झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा के देवेंद्र नाथ महतो तीसरे नंबर पर है. इससे साफ है कि JLKM के आने से AJSU का वोट कटा और इसका फायदा JMM को हुआ है.

बता दें कि जयराम महतो ने प्रदेश की 81 में से 71 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. डुमरी सीट से खुद जयराम ने करीब 10 हजार वोटों से जीत दर्ज की है.

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3. घुसपैठ मुद्दा और 'बटोगे तो कटोगे' नारों से हुआ नुकसान

विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने आदिवासियों और गैर-आदिवासियों को हिंदू के रूप में एकजुट करने के लिए 'बटेंगे तो कटेंगे', 'एक हैं तो सेफ हैं' जैसे नारे दिए थे. 'घुसपैठ'- बीजपी के मुख्य मुद्दों में से एक रहा. असम के मुख्यमंत्री और झारखंड चुनाव के सह-प्रभारी हिमंत बिस्वा सरमा ने ये मुद्दा उठाया था.

वहीं प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ समेत अन्य नेताओं ने इंडिया ब्लॉक पर तुष्टीकरण का आरोप लगाया. लेकिन 'घुसपैठिए', 'बटेंगे तो कटेंगे' जैसे नारे आदिवासी वोटर्स को एकजुट करने में असफल रहे.

बीजेपी नेताओं ने अच्छी-खासी मुस्लिम संख्या वाली संथाल परगना में घुसपैठ के मुद्दे को खूब हवा दी थी. जानकारों का मानना है कि ये मुद्दा आदिवासी मतदाताओं के वोट पाने के लिए उठाया गया था. लेकिन नतीजे बताते हैं कि प्रदेश के आदिवासी और ओबीसी मदताओं पर इस मुद्दे का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा है.

4. हेमंत की गिरफ्तारी पड़ी बीजेपी पर भारी

कथित मनी लॉन्ड्रिंग मामले में जेएमएम नेता और झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी भी बीजेपी को भारी पड़ी है. जेल से निकलने के बाद हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी ने पांच महीने के कारावास का मुद्दा बार-बार उठाया और बीजेपी पर आदिवासियों को निशाना बनाने के का आरोप लगाया. इसके साथ ही हेमंत ने खुद को आदिवासियों, गरीबों और दलितों के चैंपियन के रूप में पेश किया.

हेमंत की यह रणनीति काम आई और वो आदिवासी वोटर्स को इमोशनली जोड़ने में सफल रहे. वहीं बीजेपी इसका काट नहीं ढूंढ पाई. हेमंत के साथ वोटर्स की सहानुभूति होने से एंटी इनकंबेंसी फैक्टर भी खत्म हो गया.

5. स्थानीय नेताओं पर कम भरोसा

बीजेपी ने शिवराज सिंह चौहन को चुनाव प्रभारी नियुक्त किया था. वहीं हिमंता बिस्वा सरमा सह-प्रभारी थे. स्थानीय नेताओं को साइडलाइन कर पूरी कमान केंद्रीय नेतृत्व के हाथ में थी. टिकट वितरण से लेकर प्रचार की कमान हिमंत और शिवराज संभाल रहे थे. कहा जा रहा है कि चुनाव के दौरान बाहरी नेताओं का ज्यादा हस्तक्षेप था.

इन सब वजहों से स्थानीय नेता अपने क्षेत्र तक ही सिमट कर रह गए. लोकल नेताओं पर कम भरोसा होने की वजह से पार्टी कार्यकर्ताओं में भी असमंजस की स्थिति बन गई. नतीजों के बाद कहा जा रहा है कि इस वजह से भी पार्टी को नुकसान हुआ है.

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