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बिहार: सबसे ज्यादा वोट पाकर भी क्यों हारे तेजस्वी, महागठबंधन से कहां हुई चूक?

बिहार की 243 सीटों में करीब 200 पार करते हुए एनडीए जीत की ओर है.

शादाब मोइज़ी
राजनीति
Published:
<div class="paragraphs"><p>महागठबंधन की हार कैसे हुई?</p></div>
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महागठबंधन की हार कैसे हुई?

(फोटो - क्विंट हिंदी)

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"बिहार की एक खासियत है, जब-जब आपको लगता है आप बिहार को समझ गए है तब-तब बिहार आपको झटका देता है." होमा कुरैशी की वेब सीरीज महारानी का ये डायलॉग मेरे दिमाग में घर कर गया है. और बिहार चुनाव में भी यही हुआ है. बिहार चुनाव के नतीजों ने महागठबंधन को महाझटका दिया है. वैसा झटका जिसकी कल्पना बिहार को समझने वालों ने भी न की होगी.

ये सिर्फ सीटों की हार का मामला नहीं है, न ही एग्जिट पोल का सही होना है, ये हार महागठबंधन के लिए गंभीर राजनीतिक संकेत है. साल 2010 में आरजेडी का अबतक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा था, तब सिर्फ 22 सीट मिली थी, 15 साल बाद आरजेडी फिर उसी मुहाने पर खड़ी दिख रही है. ऐसे में सवाल है कि महागठबंधन की इतनी बड़ी हार कैसे और क्यों हुई? आइए इस आर्टिकल में जानते हैं महागठबंधन की हार के पीछे की 5 सबसे बड़ी वजह क्या है?

बिहार की 243 सीटों में करीब 200 पार करते हुए एनडीए जीत की ओर है. वहीं महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस, लेफ्ट) 40 का आंकड़ा भी पार करते नहीं दिख रही है. हालांकि वोट शेयर के हिसाब से आरजेडी को सबसे ज्यादा 22.85 फीसदी वोट मिले हैं. वहीं बीजेपी को 20.44% वोट.

1. सीट बंटवारे में देरी-तालमेल में कमी

महागठबंधन की हार के पीछे एक बड़ा कारण है गठबंधन में तालमेल न होना. आरजेडी, कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों का सही समय पर सीट बंटवारा न करना महागठबंधन को भारी पड़ गया. सीट शेयरिंग को लेकर मतभेद शुरू से अंत तक बने रहे, नतीजा यह हुआ कि पूरी लड़ाई कमजोर, बिखरी और अविश्वसनीय दिखी. हाल तो ये रहा कि महागठबंधन ने नामंकन के आखिरी दिन अपने कई कैंडिडेट के नामों का ऐलान किया. कई सीटों पर तो वोटर को पता ही नहीं था कि पार्टी ने किसे कैंडिडेट बनाया है और कौन नामंकन कर रहा है.

उदाहरण के लिए दरभंगा की गौरा बोराम सीट पर आरजेडी ने अपने कैंडिडेट को पहले सिंबल दिया फिर वो सीट मुकेश साहनी की वीआईपी को दे दिया. आरजेडी के कैंडिडेट ने सिंबल वापस नहीं किया और चुनाव लड़ने मैदान में डटे रहे. वहीं वोटिंग से एक दिन पहले वीआईपी के उम्मीदवार ने आरजेडी के सिंबल वाले कैंडिडेट को समर्थन दे दिया.

यही नहीं, महागठबंधन की पार्टियां कई सीटों पर आपस में ही लड़ रही थीं. वैशाली, चैनपुर, बछवारा जैसी करीब 12 सीटें ऐसी हैं जहां महागठबंधन की पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार उतार दिए. बछवारा में तो कांग्रेस और सीपीआई की लड़ाई में बीजेपी जीत गई.

वहीं दूसरी ओर एनडीए ने नाराजगी और सीट शेयरिंग में नोकझोंक के बावजूद खुद को एकजुट दिखाया. एनडीए ने अपने गठबंधन को पांच पांडव का नाम दिया. पांच पांडव मतलब जेडीयू, बीजेपी, हम, RLM और लोकजनशक्ति पार्टी रामविलास, सभी पार्टियों ने सोशल इंजीनियरिंग या कहें सामाजिक समीकरण बनाया.

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2. मल्लाह डिप्टी सीएम - बैकफायर कर गया

बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) में करीब 112 जातियां हैं जो राज्य की आबादी का करीब 36% है. यह वर्ग सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा माना जाता है और इसमें पारंपरिक रूप से मल्लाह, निषाद, नाई, तेली, लोहार, नोनिया जैसी जातियां शामिल हैं. इसी को देखते हुए महागठबंधन ने मल्लाह समुदाय जिसकी आबादी 2.6 फीसदी है उससे आने वाले नेता मुकेश साहनी को डिप्टी सीएम उम्मीदवार बनाकर ईबीसी वोटर को साधने की कोशिश की थी, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखा. क्योंकि अत्यंत पिछड़ा वर्ग में भी अलग-अलग उपजातियां हैं जो मल्लाह समाज से आने वाले मुकेश साहनी को अपना नेता नहीं मानती हैं. और इसका नतीजा चुनाव में भी दिखा, मुकेश साहनी की पार्टी 12 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी एक सीट नहीं जीत पाई.

वहीं दूसरी तरफ बिहार में अनुसूचित जाति की जनसंख्या करीब 19% है, और मुसलमानों की जनसंख्या करीब 17% है. इसके बावजूद भी इन समाज से डिप्टी सीएम उम्मीदवार नहीं बनाना भी वोटरों में नाराजगी की एक बड़ी वजह साबित हुई.

3. महागठबंधन का पूरा कैंपेन आरजेडी और तेजस्वी के इर्द-गिर्द घूमता रहा

महागठबंधन में आरजेडी, कांग्रेस, वीआईपी, लेफ्ट की तीन पार्टियां थीं, लेकिन पूरा चुनाव तेजस्वी-मय दिखा. आरजेडी ने अपने घोषणापत्र का नाम ‘तेजस्वी प्रण’ रखा था, जिससे कहीं न कहीं साथी पार्टियों के वर्कर में भी संदेश सही नहीं गया. प्रचार में सहयोगियों को तरजीह न देना महागठबंधन को भारी पड़ा.

कांग्रेस के एक युवा नेता कहते हैं कि चुनाव में 'सिर्फ एक का ही दिखना और एकजुट होकर लड़ने में फर्क होता है.'

4. NDA के सामने तेजस्वी के वादे फीके

तेजस्वी यादव ने हर घर सरकारी नौकरी का वादा किया. इसका मतलब है कि करीब 2.6 करोड़ नौकरी. ये ऐलान लोगों के गले नहीं उतरा. तेजस्वी और महागठबंधन ने इस ऐलान का कोई ठोस ब्लू प्रिंट नहीं रखा. वहीं बीजेपी और जेडीयू ने महागठबंधन के दावों को हवा-हवाई बताकर चुनावों के दौरान खूब भुनाया. वहीं दूसरी ओर चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार ने महिलाओं के खाते में 10 हजार रुपये देने की योजना बनाकर पूरा गेम पलट दिया. इस स्कीम से महिला वोटरों का भरोसा नीतीश कुमार की तरफ और बढ़ा. बता दें कि इस चुनाव में करीब 71 प्रतिशत महिलाओं ने वोट किया था.

हालांकि महागठबंधन ने महिलाओं को माई बहन योजना के तहत 2500 रुपए देने का वादा किया था, लेकिन वो वोटरों के मन को जीत नहीं सका.

5. मुद्दों की कमी- वोट चोरी का मुद्दा काम नहीं आया

कांग्रेस ने वोट चोरी और फर्जी वोटिंग जैसे मुद्दों पर यात्रा निकाली, राहुल गांधी बिहार में सड़कों पर तेजस्वी के साथ बुलेट पर घूमते दिखे. लेकिन ये मुद्दा आम लोगों को कनेक्ट नहीं कर सका.

यही नहीं वोट अधिकार यात्रा के बाद कांग्रेस के बड़े नेता बिहार से गायब दिखे. बिहार की बदहाली, क्राइम, सड़क, अस्पताल, शिक्षा जैसे अहम मुद्दों को महागठबंधन जनता के बीच उठाने में नाकामयाब रही.

6. जंगलराज का तमगा

तेजस्वी सिर्फ तेजस्वी यादव नहीं, लालू यादव की विरासत का चेहरा भी हैं. और विपक्षी रणनीति ने इसके खिलाफ बड़े ही चालाक तरीके से काम किया. इस बार भी एनडीए ने “जंगलराज” को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया. सीएम नीतीश कुमार से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लालू यादव की सरकार को जंगल राज कहती रही है. पीएम मोदी ने करीब-करीब हर रैली में कानून-व्यवस्था और आरजेडी की नकारात्मक छवि का प्रचारित किया. जिसकी काट महागठबंधन नहीं निकाल पाया.

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