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मेंस्ट्रुएशन एक ऐसा गंभीर मुद्दा, जिससे सभ्य समाज भी कतराता है

क्या महिलाओं की जिंदगी और सेहत की दिक्कतों तो छोटा समझकर नजर अंदाज करना गलत नहीं. 

Smriti Chandel
नजरिया
Updated:
क्या महिलाओं की जिंदगी और सेहत की दिक्कतों तो छोटा समझकर नजर अंदाज करना गलत नहीं. 
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क्या महिलाओं की जिंदगी और सेहत की दिक्कतों तो छोटा समझकर नजर अंदाज करना गलत नहीं. 
फोटो:Istock 

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हाल ही में 91वें ऑस्कर अवॉर्ड्स के लिए इंडियन बैकग्राउंड पर बेस्ड फिल्म ‘पीरियड् एंड ऑफ सेंटेंस’ को बेस्ट डॉक्यूमेंट्री के लिए नॉमिनेट किया गया है. ये फिल्म दिल्ली से सटे हापुड़ में मेंस्ट्रुएशन की तकलीफों से जूझती महिलाओं की कहानी पर आधारित है.

वक्त बदल गया है. समय के साथ समाज महिलाओं से जुड़ी मेंस्ट्रुएशन की समस्याओं को समझने की कोशिश करते नजर आ रहा है. कई फिल्में बनाई जा रही हैं, जिसमें मासिक धर्म के दौरान हाइजीन, इंफेक्शन जैसे संजीदा मुद्दे उठाए गए हैं. लेकिन सवाल ये उठता कि इन गंभीर मुद्दों पर काम कितना कारगर साबित हो रहा है. क्या महिलाओं की जिंदगी और स्वास्थ से जुड़ी परेशानियां इतनी छोटी हैं कि उन्हें आसानी से नजर अंदाज किया जा सके.

मेंस्ट्रुएशन यानी महावारी एक ऐसा मुद्दा है जिस पर बात करना शायद सभ्य कहे जाने वाले समाज में भी मुनासिब नहीं है. सच्चाई सिर्फ इतनी सी है कि जिस तरह मर्दों के शरीर में हो रहे परिवर्तन को लेकर कभी कोई उंगली नहीं उठाई जाती. लेकिन वहीं औरतों की पीड़ा को तमाशा बना दिया जाता है. यहां समाज से पहले परिवार वाले उन दिनों में महिला को अशुद्ध और अभागा करार दे देते हैं. ये वही सभ्य समाज है, जहां लड़कों को अपनी मर्दानगी दिखाने का पूरा अधिकार है, लेकिन औरतों को अपनी तकलीफ छुपानी पड़ती है.

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मेंस्ट्रुएशन यानी महावारी एक ऐसा मुद्दा है जिस पर बात करना शायद सभ्य कहे जाने वाले समाज में भी मुनासिब नहीं है.फोटो:Istock 
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पश्चिमी सभ्यता जिसे अपने विकसित होने का घमंड है, या फिर इस्लामिक सभ्यता जिसे अपने सही होने का गुमान है. औरतों की इस परिस्थिति को टैबू और बेहूदा मानते हैं. हिंदू धर्म में औरतों को देवी का रूप माना जाता है. अलग-अलग अवतार में देवियों की पूजा की जाती है. लेकिन जब साधारण महिलाओं की बात आती है तो मासिक धर्म के दौरान उन्हें किचन से लेकर घर तक में वर्जित कर दिया जाता है.

ऑस्कर मिले ना मिले कम से कम औरत को अपने दर्द के साथ सम्मान से जीने का हक तो मिलना ही चाहिए. कब तक उसे अपने घर में ही अछूत माना जाएगा? कब तक अपनों के ही बीच बेइज्जती सहन करनी पड़ेगी? कई देशों में तो हालात और भी बदतर है. नेपाल में पीरियड्स के दौरान महिलाओं को घर से बाहर निकाल दिया जाता है . ऐसी तकलीफ में उन्हें खुद ब खुद अपना घर छोड़कर कोठरियों में गुजर बसर करना पड़ता है.

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ऑस्कर मिले ना मिले कम से कम औरत को अपने दर्द के साथ सम्मान से जीने का हक तो मिलना ही चाहिए.फोटो:Istock 
यूं तो हर बात कहने के लिए नहीं होती, लेकिन ऐसे नाजुक मसलों में जब सरलता से बात समझ ना आए तो कहना जरूरी हो जाता है. महावारी यानी मेंस्ट्रुएशन महिलाओं का सबसे जरूरी हिस्सा माना गया है. क्योंकि जिन महिलाओं को इससे संबंधित कोई भी शिकायत होती है या फिर जिन्हें महावारी नहीं होती उन्हें भी डायन या बांझ का तमका लगा, मौत के घाट उतार दिया जाता है.

सवाल यह है इस दर्द को पहचान कब मिलेगी. हमारे देश का संविधान कहता है कि आर्टिकल 39(E) के तहत राज्य में महिलाओं के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करना है. उसे आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने स्वास्थ्य और शक्ति के विपरीत मजबूर नहीं किया जा सकता. लेकिन सच्चाई इससे बिलकुल अलग है ऑफिस हो या घर शारीरिक और मानसिक प्रताड़नाओं को सहन करना उसका जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है.

महावारी यानी मेंस्ट्रुएशन महिलाओं का सबसे जरूरी हिस्सा माना गया है. फोटो:Istock 

अब वक्त आ गया है अधिकार की बात करने का संविधान में आर्टिकल 42 मैं स्पष्ट है राज्य को महिलाओं के कामकाज और मैटरनिटी रिलीफ के लिए उचित और मानवीय परिस्थितियों का निर्माण सुनिश्चित करना होगा. यही नहीं आर्टिकल 15 में प्रावधान है कि राज्य में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए विशेष प्रावधान बना सकते हैं. आप उसे देश चलाने में आधा हिस्सा दे या ना दे, अपनी जिंदगी ठीक तरह से चलाने का अधिकार तो देना ही होगा. आप सिर्फ अपना ख्याल बदलिए, वह अपना और आपका ख्याल खुद ब खुद रख लेगी.

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Published: 29 Jan 2019,03:22 PM IST

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