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17 दिनों तक उत्तरकाशी (Uttarkashi Tunnel Rescue) की सिल्कयारा सुरंग में फंसे 41 मजदूरों का सुरक्षित रेस्क्यू से आखिरकार देश की चिंता और निराशा के साथ-साथ मीडिया में लगातार चल रही कवरेज भी खत्म हो गई.
सुरंग की एंट्री से लगभग 200 मीटर की दूरी पर मलबे के ढहने से खुदाई करने वाले मजदूर 57 मीटर मलबे के पीछे फंस गए थे, जिसके बाद चरणबद्ध तरीके से किए गए रेस्क्यू से कई सारी सरकारी एजेंसी के प्रयासों से आखिरकार सफलता हाथ लगी.
मेसर्स नवयुग इंजीनियरिंग कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (NECL) द्वारा निर्मित, उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिल्कयारा बेंड-बारकोट साइट पर स्थित इस सुरंग के एक हिस्से के ढहने से इस बात की काफी चर्चा हुई कि पर्यावरण की दृष्टि से इसे नाजुक परिस्थितियों में बनाया गया है.
सुरंग 12,000 करोड़ रुपये की परियोजना और 890 किलोमीटर लंबी चार धाम महामार्ग परियोजना (CMP) का हिस्सा है.
युद्ध स्तर पर चलाए गए इस रेस्क्यू ऑपरेशन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है. हालांकि, सुरंग के बुनियादी ढांचे के ढहने का बारीकी से आकलन करने और जटिल रेस्क्यू ऑपरेशन से सीखे गए कुछ कठिन सबक को समझने के लिए और गहराई में जाने की जरूरत है:
कमाल का कोऑर्डिनेशन: इस रेस्क्यू ऑपरेशन में जिनकी सबसे बड़ी भूमिका रही - अंतरराष्ट्रीय टनलिंग विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स के अनुसार, यह अब तक का सबसे "कठिन" सुरंग बचाव अभियान था, जिसका सामना न केवल तकनीकी कारणों से हुआ, बल्कि इसमें कोई किसी की मौत भी नहीं हुई. आमतौर पर, जब किसी बड़े ऑपरेशन में एक से अधिक एजेंसी शामिल होती हैं तो कोऑर्डिनेशन से लेकर कई तरह की बड़ी समस्याएं सामने आती हैं.
कुल मिलाकर, यह पीएमओ की निरंतर निगरानी के साथ-साथ जमीन पर मौजूद हर मजदूर/अधिकारी की मेहनत है, जिसके कारण इस बहु-आयामी, बहु-एजेंसी की ओर से किया गया रेस्क्यू ऑपरेशन कोऑर्डिनेशन की वजह से सफल हुआ.
सुरक्षा मानदंडों की अनदेखी: छोटी और बड़ी दोनों परियोजनाओं में सुरक्षा मानदंडों की अनदेखी भारत में सामान्य सी बात है - और इसकी कीमत हमेशा श्रमिकों को चुकानी पड़ती है, जिनमें से अधिकतर मजदूरों का कोई बीमा नहीं होता है. इस विशेष मामले में, दो मुद्दे सामने आते हैं.
एक: इस परियोजना के निर्माण में शामिल कंपनी (NECL) का कोई अच्छा रिकॉर्ड नहीं है. केवल तीन महीने पहले ही, समृद्धि एक्सप्रेसवे (मुंबई और नागपुर के बीच) के एक हिस्से के ढहने से लगभग 20 श्रमिकों की मौत के बाद कंपनी पर केस चल रहा है.
दूसरा: इसने श्रमिकों की आपातकालीन एग्जिट के लिए सिल्क्यारा में जरूरी एस्केप शाफ्ट का निर्माण नहीं किया जबकि यह परियोजना उन पहाड़ों के बीच चल रहा था जो नए हैं, जहां भूंकप आने की ज्यादा संभावना है और भूस्खलन और चट्टानों के गिरने की संभावना ज्यादा है.
NECL द्वारा नियुक्त जर्मन-ऑस्ट्रियाई इंजीनियरिंग कंसल्टेंसी बर्नार्ड ग्रुप ने अगस्त में कहा था कि "सुरंग के शुरुआती निर्माण के लिए टेंडर में जो जियोलॉजिकल स्थिति आंकी गई थी, वह ज्यादा चुनौतीपूर्ण साबित हुई हैं."
पर्यावरणीय मानदंडों को दरकिनार करना: 2018 में, एक एनजीओ ने चार धाम महामार्ग परियोजना के खिलाफ चुनौती दायर की और दावा किया कि यह परियोजना पर्यावरण, वन और वन्यजीव के क्लियरेंस के बिना बनाई जा रही थी और यह पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों के लिए निर्धारित अधिकतम चौड़ाई 5.5 मीटर से अधिक थी.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त उच्चाधिकार समिति ने, सितंबर 2020 की अपनी रिपोर्ट में, अन्य बातों के साथ-साथ, इस परियोजना को "गलत तरह से डिजाइन की गई" और "अवैज्ञानिक" माना था, और सिफारिश की थी कि सड़क की चौड़ाई कुछ रणनीतिक स्थान को छोड़कर, 5.5 मीटर तक सीमित की जाए.
केंद्र सरकार ने रिपोर्ट को खारिज कर दिया और एक हलफनामा दायर कर सड़कों को 10 मीटर तक चौड़ा करने की अनुमति इस आधार पर मांगी कि संकरी सड़कें तीर्थयात्रियों और सेना की आवाजाही की सुरक्षा से समझौता करेंगी.
हालांकि चार धाम महामार्ग परियोजना एक अत्यधिक भावनात्मक परियोजना है, हमें शायद दो मौलिक मुद्दों पर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है:
काफी अंदर और दूर स्थित धार्मिक मंदिरों की यात्रा पारंपरिक रूप से किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत तपस्या के साथ-साथ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से उसके जीवन पर प्रतिबिंब के रूप में की जाती है. मैं पहलगाम-चंदनवारी मार्ग के माध्यम से श्री अमरनाथ जी तीर्थ तक दो बार चल चुका हूं - और लंबी, शांत पैदल यात्रा ने मुझे इस प्रकार आत्मनिरीक्षण करने का मौका दिया. तो, क्या अच्छी सड़कें, जिन पर लोग सीधे किसी मंदिर तक गाड़ी चला सकते हैं, जबकि कभी-कभी, अधार्मिक गाने सुनकर वहां तक पहुंचना क्या किसी भगवान का आशीर्वाद लेने के लिए ये अजीब तरीका नहीं है?
अब समय आ गया है कि अधिकारी पर्यावरण और भूवैज्ञानिक मंजूरी को उचित महत्व देना शुरू करें. हालांकि भारत को निश्चित रूप से बेहतर बुनियादी ढांचे की जरूरत है.
संक्षेप में: हिमालय हमें बार-बार चेतावनियां दे रहा है, जिसे हम बार-बार नजरअंदाज करते आ रहे हैं, इससे उन लोगों को खतरा है जो वहां रहते हैं, वहां काम करते हैं या वहां से यात्रा करते हैं. यदि हम उन चेतावनियों को नजरअंदाज करते रहे, तो प्रकृति निश्चित रूप से इसकी कीमत वसूल करेगी.
(कुलदीप सिंह भारतीय सेना से सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं. यह उनकी नीजि राय है. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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