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तालिबान की अन्तरराष्ट्रीय मान्यता पर कभी हां कभी ना! UN की दोहा बैठक पर सबकी नजर

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस Afghanistan पर दो दिवसीय बैठक की मेजबानी करने के लिए दोहा में हैं.

डॉ. राजन झा
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>तालिबान की अन्तरराष्ट्रीय मान्यता में कभी हां कभी ना</p></div>
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तालिबान की अन्तरराष्ट्रीय मान्यता में कभी हां कभी ना

(फोटो- Altered By Quint Hindi)

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संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस अफगानिस्तान पर दो दिवसीय बैठक की मेजबानी करने के लिए सोमवार, 1 मई को दोहा में हैं. इसमें विभिन्न देशों के विशेष दूत एक साथ आएंगे.

संयुक्त राष्ट्र उप महासचिव जनरल अमीना ने इस बैठक में तालिबान (Taliban) को मान्यता संबंधी विचार व्यक्त किए थे. इस बयान के बाद ऐसा माना जा रहा था कि शायद इस विषय पर कोई गंभीर चर्चा होगी. लेकिन, अमेरिकी विदेश विभाग के प्रधान उप प्रवक्ता वेदांत पटेल ने इस सुझाव को सिरे से खारिज करते हुए कहा है कि बैठक का उद्देश्य कभी भी तालिबान की मान्यता पर चर्चा करना नहीं था और अमेरिका को तालिबान को मान्यता देना अस्वीकार्य है.

इसके बाद, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का बयान आया कि तालिबान को बैठक के लिए आमंत्रित नहीं किया गया है.

पृष्ठभूमि

25 दिसंबर, 1996 को तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हुआ था और 2001 तक काबुल पर उसकी हुकूमत थी. तालिबान के इस कार्यकाल को दुनिया के मात्रा तीन देश पाकिस्तान, यूएई और सऊदी अरब ने मान्यता दी थी. भारत समेत दुनिया के लगभग सभी देशों ने तालिबानी सत्ता को मान्यता प्रदान नहीं की है. इसका कारण तालिबान द्वारा बल पूर्वक सत्ता हथियाना, लोकतांत्रिक संस्थाओं और मान्यताओं में विश्वास न होना और महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों के खिलाफ मानवाधिकार हनन था.

2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमेरिका द्वारा तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया गया. लेकिन, अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद तालिबान पुनः सत्ता पर काबिज हुआ. इसके साथ एक बार फिर से तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलने का प्रश्न का जवाब विश्व समुदाय खोज रहा है.

हालांकि, भारत समेत अन्य प्रमुख देश जैसे अमेरिका, चीन और रूस ने अनौपचारिक तौर पर तालिबानी सरकार के साथ किसी न किसी स्तर पर संपर्क बनाए हुए हैं. लेकिन औपचारिक मान्यता को लेकर आम सहमति अभी तक नहीं बन सकी है.

आम सहमति के अभाव में अफगानिस्तान की दूसरे उत्तर कोरिया में बदलने की संभावना है. अमेरिका द्वारा स्थापित अशरफ गनी और हामिद करजई की शासन की विफलता से बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हुए. इसके लिए आंशिक रूप से दोषी अमेरिका भी है.

अमेरिका पहले ही वर्ष 2000 में तालिबान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर कर चुका है. इसलिए इसे मान्यता नहीं देना और अफगान सरकार के संप्रभु धन को जब्त करना नैतिकता का उल्लंघन है. अंतराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग होने के कारण अफगानिस्तान में मानवीय संकट बढ़ गया है, जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं और बच्चों को भुगतना पड़ रहा है.

भू-राजनीतिक रूप से भी अफगानिस्तान में एक पावर वैक्यूम खतरनाक साबित हो सकता है. ISIS के उदय के लिए भी सद्दाम हुसैन के शासन के बाद हुए पावर वैक्यूम को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.

बिना अंतराष्ट्रीय मान्यता वाला तालिबानी अफगानिस्तान एक मात्र देश नहीं

तालिबानी अफगानिस्तान एक मात्र ऐसा देश नहीं जिसे अंतराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली है. सोमालियालैंड, जो कि सोमालिया का हिस्सा है, वो अपने आप को वर्ष 1991 से अलग देश मान रहा है. लेकिन किसी ने इसको मान्यता नहीं दी है. जबकि सर्बिया के अंदर 'कोसोवो' ने अपने आप को 2008 में आजाद देश घोषित कर दिया था और अब इसको कुछ देशों ने मान्यता भी दे दी है.

हालांकि, अभी इसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने मान्यता नहीं दी है. किसी भी देश को मान्यता प्राप्त करने के लिए संयुक्त सुरक्षा परिषद के उस देश के आवेदन पर विचार करना प्रक्रिया का पहला कदम है.

प्रवेश के लिए ऐसे किसी भी सिफारिश को परिषद के 15 सदस्यों में से 9 के सकारात्मक मत प्राप्त होने की आवश्यकता होती है, बशर्ते कि इसके पांच स्थायी सदस्यों में से कोई भी आवेदन के विरुद्ध मतदान नहीं करे. यानी किसी देश की अंतराष्ट्रीय मान्यता, सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के मत पर काफी हद तक निर्भर है.

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इसके अलावा संबंधित देश का यूएन चार्टर में विश्वास व्यक्त करना सदस्यता के लिए जरूरी शर्तों में से एक है. एक तरफ यूएन चार्टर मानवाधिकार और महिला अधिकार को सुनिश्चित करने की बात करता है. वहीं, तालिबान अफगानिस्तान को शरिया कानून के हिसाब से चलाने की बात करता है. ऐसे में मौलवी ही तय करेंगे कि इस प्रक्रिया में नागरिकों के अधिकार क्या होंगे-खासकर महिलाओं और अल्पसंख्यकों के.

हाल ही में तालिबान ने अफगानी महिलाओं के UN के लिए काम करने पर बैन लगा दिया है. इस निर्णय के खिलाफ अफगान महिलाओं ने रैली कर, इसका विरोध जताया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से दोहा में होने वाले शिखर सम्मेलन में तालिबान शासन को मान्यता देने की अपील भी की है.

तालिबान का रुख धार्मिक अल्पसंख्यकों मसलन हजारा और ताजिक समुदाय के साथ भी बर्बरतापूर्ण रहा है. अफगानिस्तान से अमेरीकी वापसी के बाद कोई लोकतांत्रिक और निर्वाचित सरकार नहीं है. यानी राजनीतिक वैधता के संकट से गुजर रहे देश को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलना खासी चुनौती का विषय है.

यह चुनौती तब और गंभीर हो जाती है, जब इस्लामिक स्टेट (IS) खुरासान के सक्रियता ने अफगानिस्तान को प्रतिस्पर्धी कट्टरवाद में झोंक दिया है.

तालिबान और ISI एक-दूसरे के दुश्मन हैं. बाहरी दुनिया को भले ही यह एक धार्मिक कट्टरवाद मात्र लगे, लेकिन अफगानिस्तान की घरेलू राजनीति के अनेकों पहलूं को समझे बिना इससे संबंधित कोई भी समझदारी सतही होगी. अफगानिस्तान और यूरोप में राज्य की उत्पत्ति के भौगोलिक और सामाजिक आर्थिक आधार के बीच अंतर रहा है .

अतः यह स्पष्ट है कि उनकी प्रकृति भी भिन्न होगी. अफगान राज्य प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपनी दिन-प्रतिदिन की राजनीति में विभिन्न धार्मिक संस्थानों जैसे मस्जिदों और इस्लामी विद्वानों को शामिल करता है.

हालांकि, यह अपेक्षाकृत हाल की घटना है. मध्य पूर्व ऑन पॉलिटिकल इस्लाम के उदय से पहले, अफगानिस्तान में धर्मनिरपेक्षता पर आधारित एक जीवंत शहरी राजनीतिक संस्कृति थी. बाद में, जाकर देश जातीय संघर्षों और सांप्रदायिकता प्रतिद्वंद्विता के राजनीति का शिकार हुआ.

आज तालिबान के अंदर भी दो ग्रुप हैं. एक दोहा धड़ा, जो लंबे समय तक अफगानिस्तान के बाहर रहने के कारण पश्चिमी सभ्यता जीवनशैली के आदी होने के कारण उनका वैश्विक नजरिया थोड़ा बहुत उदार हुआ है और वो महिलाओं और अल्पसंख्यकों को अधिकार देने के पक्ष में है.

दूसरी तरफ कंधार धड़ा है, जो कठोर इस्लामी पश्तून कोड से ही व्यवस्था चलाने के पक्ष में है. इस्लामिक स्टेट खुरासान के बढ़ते प्रभाव ने तालिबान को भी अपनी रूढ़िवादी छवि पर टिके रहने को मजबूर कर दिया है.

लेकिन यदि हम दूसरे प्रमुख जातीय धड़ा के ताजिक नेता अहमद शाह मसूद के राजनीतिक इतिहास को देखें तो हम पाते हैं कि उनका नजरिया महिलाओं के लिए उदार था. अपने हर भाषण में अहमद शाह मसूद महिलाओं के अधिकारों और समाज भागीदारी पर जोर देते थे. उनका प्रयास था कि महिलाएं पुरुषों के साथ काम करें और सत्ता में भी शामिल हो. और शायद यही वजह है कि तालिबान ने यूनिवर्सिटी और शिक्षण संस्थाओं पर पाबंदी लगा रखा है, क्योंकि उनको लगता है कि इसका लाभ गैर पश्तून महिलाओं को अधिक होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि कठोर पश्तून कोड के कारण पख्तून महिलाएं के लिए यूनिवर्सिटी जाना संभव न हो सकेगा.

जहां तक भारत का प्रश्न है, तालिबान से अधिक खतरा आज की तारीख में इस्लामिक स्टेट खुरासान से है. पिछले वर्ष इस संगठन ने सिखों के गुरुद्वारे पर हमले किया. इसके अलावा इसकी नजर भारत के कई राज्यों में आतंकवादी घटना करने की है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में राजनीति विज्ञान के पूर्व फैकल्टी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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