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संडे व्यू: शांति के लिए दुनियाभर में प्रदर्शन, गाजा संघर्ष के 30 दिन, मणिपुर हिंसा के 6 महीने

पढ़ें आज करन थापर, रामचंद्र गुहा, तवलीन सिंह, प्रभु चावला और टीएन नाइनन के विचारों का सार।

क्विंट हिंदी
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू: शांति के लिए दुनियाभर में प्रदर्शन, गाजा संघर्ष के 30 दिन, मणिपुर हिंसा के 6 महीने </p></div>
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संडे व्यू: शांति के लिए दुनियाभर में प्रदर्शन, गाजा संघर्ष के 30 दिन, मणिपुर हिंसा के 6 महीने

(फोटो: क्विंट)

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बीट! बीट! ड्रम्स!

करन थापर ने वॉल्ट ह्विटमैन की कविता बीट! बीट! ड्र्म्स! की याद दिलाते हुए इन दिनों लंदन की सड़कों पर हो रहे प्रदर्शन की तरफ सबका ध्यान खींचा है. लंदन ही नहीं पेरिस, बर्लिन और अमेरिकी के विभिन्न शहरों में भी ऐसे प्रदर्शन हो रहे हैं, जो गाजा में फंसे 23 लाख फिलीस्तीनियों के साथ किए जा रहे इजरायली व्यवहार के खिलाफ हैं. ये प्रदर्शन लोकतंत्र के सुंदर दृश्य हैं.

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह सामूहिक नैतिक विवेक है. इसने मनुष्य की आत्मा को और वास्तव में मानवीय अस्तित्व की गहराइयों को झकझोर दिया है. ये प्रदर्शन अहसास कराते हैं कि मनुष्य जानवरों से ऊपर हैं.

अमेरिका में शांति के लिए यहूदियों की ओर से उठाई गई आवाज बेहद उल्लेखनीय है. ग्रैंड सेंट्रल स्टेशन में यह सामूहिक विवेक की ताकत को दर्शाता है. 7 अक्टूबर को हमास ने जो बर्बरता दिखलाई वह बिल्कुल निंदनीय और अक्षम्य है. लेकिन, एक महीने बाद ऐसा लगता है कि वह केवल अधूरा सच है. जवाब में इजरायल ने 9200 लोगों को मार डाला है और 22 हजार से ज्यादा लोग घायल हैं. चालीस प्रतिशत मृतक बच्चे हैं. न बिजली है, न पानी. न ईंधन है न भोजन. और अब एयर स्ट्राइक के हफ्तों बाद दूसरे स्तर का जमीनी आक्रमण चल रहा है.

प्रदर्शनकारी पूछ रहे हैं कि दंड और बदला न्यायोचित हो सकता है लेकिन बात कहीं इससे बहुत आगे नहीं निकल चुकी है? इजरायल ने उत्तरी गाजा के लोगों से दक्षिण जाने को कहा लेकिन खान युनिस और रफाह में शरणस्थल पर भी बम गिराए गए.

अल जजीरा के संवाददाता के परिजनों की नुसीरत रिफ्यूजी कैंप में बमबारी से मौत हुई. गाजा के लोगों के सदमे को बीबीसी के संवादादाता ने इन शब्दों में व्यक्त किया है- “लोग यह नहीं पूछ रहे हैं कि कहां चलें. वे पूछ रहे हैं कहां मरें.“

छह महीने बाद भी मणिपुर अशांत

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि बीते पखवारे में दो खबरें सुर्खियों में रही हैं. एक विश्वकप क्रिकेट और दूसरी गाजा पर इजरायल का जवाबी हमला. मणिपुर में जारी संकट के भी छह महीने पूरे हो चुके हैं, जिस ओर लोगों का ध्यान नहीं है. मणिपुर में हिंसा भड़कने के कुछ हफ्ते बाद लेखक ने टेलीग्राफ में लिखा था और एक वेबसाइट को इंटरव्यू भी दिया था कि हमें वहां की स्थिति की गंभीरता पर ध्यान देना चाहिए.

किसी ऑब्जर्वर की प्रतिक्रिया थी कि बीजेपी मणिपुर को राष्ट्रीय आपदा नहीं मानती. फ्रांस में प्रदर्शन, पाकिस्तानी महिला का भारतीय पुरुष से शादी कर लेना या किसी मुसलमान का हिन्दू से विवाह कर लेना उनकी नजर में राष्ट्रीय आपदा है.

गुहा ने लिखा है कि एक इतिहासकार और एक यात्री के रूप में उन्होंने घटना के 6 महीने बाद भी वहां मौजूद तनाव को महसूस किया है. मैतेई और कुकी के सशस्त्र लोग एक दूसरे को स्थाई दुश्मन मान चुके हैं. जमीन की हिंसा ऑनलाइन हो चुकी है, जहां एक-दूसरे को गालियां दी जा रही हैं. गोदी मीडिया ने मणिपुर संकट को पूरी तरह नजरअंदाज किया है.

मई 2023 से पहले तक कुकी और मैतेई शांतिपूर्ण तरीके से एक-दूसरे के साथ रहते आए थे. कुकी ईसाई हैं और मैतेई हिन्दू. कुकियों को लगता है कि मैतेई राजनीतिज्ञ का भाव ऐसा है, मानो वे हमें संरक्षण दे रहे हों. मैतेई लोगों की शिकायत है कि कुकियों को आदिवासी का दर्जा मिलने से उन्हें सरकारी नौकरी आसानी से मिल जाती है.

मई 2023 के बाद से मैतेई-कुकी संबंध बेहद जहरीला हो चुका है. मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के पक्षपाती नजरिए ने उनकी प्रशासकीय क्षमता को लगभग खत्म कर दिया है.

इंडियन एक्सप्रेस के दस्तावेज बताते हैं कि हिंसा भड़कने के तुरंत बाद राज्य सरकार ने बड़े पैमाने पर हथियारों की लूट कराई. छह महीने बाद भी लूटे गए हथियारों का बहुत छोटा हिस्सा ही रिकवर हो सका है. गृहमंत्री दूसरे व्यक्ति हैं, जो बुरे हालात के लिए जिम्मेदार हैं.

तीसरे व्यक्ति स्वयं प्रधानमंत्री हैं, जो अब तक मणिपुर नहीं गए हैं. मोहन भागवत के दशहरा रैली में दिए गये बयान से पहले भी हिन्दुत्ववादी कहते रहे हैं कि मणिपुर की घटना के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ है. मणिपुर में डबल इंजन की सरकार असफल होती दिखती है.

कश्मीर पर सोचने की जरूरत

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि दुनिया में इतनी अशांति है, इन दिनों कि हम अपने देश की अंदरूनी समस्याओं को भूल गए हैं. जबसे हमास के दरिंदों ने इजरायल में घुस कर निहत्थे लोगों को मार डालने के बाद दो सौ से ज्यादा बच्चे, बुजुर्ग और महिलाओं को बंदी बनाकर अगवा किया है, भारतवासियों को ऐसा लगा है, जैसे यह हमला हम पर हुआ है. शायद इसलिए कि हमने इस तरह के जिहादी आतंकवाद दशकों से देखा है. या शायद इसलिए कि इंटरनेट ने दुनिया की सीमाएं मिटा दी हैं.

लेखिका को लगता है कि पश्चिमी देशों में जहां आम लोगों की हमदर्दी गाजा के लोगों के साथ ज्यादा है, भारत के लोगों की सहानुभूति इजरायल के साथ है. इस बीच हम जैसे भूल गए हैं कि गाजा की तरह खुली जेल कश्मीर घाटी को भी कहा जाता है.

तवलीन सिंह ने अपनी कश्मीर यात्रा के हवाले से लिखा है कि श्रीनगर में दोस्तों और पत्रकारों से पता चला कि लोग धारा 370 हटाए जाने से इतने दुखी नहीं हैं जितना राजनीतिक अधिकारों के छीने जाने से. लेखिका का मानना है कि जितनी जल्दी कश्मीर को पूर्ण राज्य फिर से बनाया जाए, उतना अच्छा होगा. जितनी जल्दी चुनाव होते हैं, उतना अच्छा होगा.

इतिहास गवाह है कि राज्यपाल अक्सर कश्मीर घाटी में असली शांति लाने में विफल रहे हैं. तवलीन सिंह लिखती हैं कि दिल्ली से आए हिंदू पत्रकार अपने आपको भारत के ‘वायसराय’ समझते रहे हैं. अक्सर ये ‘वायसराय’ घाटी की असलियत दिल्ली के शासकों से छिपाने का काम करते आए हैं. आज भी तकरीबन वही हाल है. उन्हीं मीडिया वालों को लिखने-बोलने की आजादी है, जो नरेंद्र मोदी और भारत सरकार की तारीफ करते हैं.

यह भी उल्लेखनीय है कि अंधेरा होने के बाद पुराने श्रीनगर के उन इलाकों में घूम सकी थी, जहां कभी मिलते थे सिर्फ आतंकवादी और लेखिका को लगता है कि कश्मीर घाटी में लोकतंत्र वापस लाने का समय आ गया है.

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पांच प्रदेशों में चरम पर चुनाव प्रचार

प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के बारे में लिखा है कि चुनाव प्रचार में आक्रामकता आ चुकी है. फोकस नई दिल्ली से राज्यों की राजधानियों की ओर हो चला है, जहां चुनाव होने हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और दूसरे प्रमुख केंद्रीय मंत्री व नेता चुनाव मैदान में उतर चुके हैं. घोषणापत्रों में मोदी की गारंटी दी जा रही है. कांग्रेस भी समान तरीके से जीत के लिए कोशिशों में लग चुकी है. क्षेत्रीय क्षत्रपों और मुद्दों का भरोसा है.

"राजस्थान में सरकार बदलने का रिवाज रहा है. अशोक गहलोत 15 साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं. एक बार फिर बनने की कोशिशों में जुटे हैं. मध्यप्रदेश शुरूआती 30 साल कांग्रेस के कब्जे में रहा था, जबकि बीते दो दशक से यहां बीजेपी है. राजनीति सवर्ण से ओबीसी तक पहुंची है. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के समांतर कोई चुनौतीपूर्ण नेतृत्व उभर नहीं सका. रमन सिंह का कद पहले की तुलना में छोटा हो चुका है. तेलंगाना में लगातार दूसरी बार प्रचंड बहुमत से जीते केसीआर को कांग्रेस के रेलवंत रेड्डी के नेतृत्व में चुनौती मिल रही है."

बीजेपी एक समय चुनौती के लिए खुद को तैयार कर रही थी लेकिन ऐसा हो नहीं सका. इन चार राज्यो के नतीजे राष्ट्रीय राजनीति को नया आकार देंगे. बघेल, नाथ, पायलट और गहलोत जैसे क्षत्रपों की मदद से गांधी परिवार कांग्रेस को जीत का बुके दे सकते हैं. अगर मध्यप्रदेश में सत्ता बरकरार रखते हुए बीजेपी कोई एक प्रदेश भी जीत लेती है तो यह उसके लिए उपलब्धि मानी जाएगी.

दमघोंटू जीवन दे रही हैं महानगरों की निर्माण योजना

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि दशकों तक एनसीआर यानी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र देश की निर्माण राजधानी भी रहा है. बीते 15 वर्षों में दुनिया के सबसे बड़े हवाई अड्डों में से एक का यहां चरणबद्ध विकास हुआ है और मेट्रो नेटवर्क का भी. आसपास के उपनगरों में आवासीय और कार्यालयों वाले टावर बनाए गए और उन्हें जोड़ने वाले एक्सप्रेसवे और मेट्रो लिंक भी तैयार किए गए.

इस बीच नियमों में परिवर्तन करके एक मंजिला आवासों को बहुमंजिला आवासीय अपार्टमेंट में बदला गया. इससे आबादी का घनत्व बढ़ा और नये फ्लाईओवर तथा शहरों के ऊपर से गुजरने वाले क्रॉस सिटी फ्रीवे आबादी और यातायात के बढ़ते दबाव से निपटमे में नाकाम रहे. इस बीच शहर का दम खराब हवा में घुटता गया.

अब मुंबई की बारी है. कीमत जलवायु प्रदूषण के रूप में चुकानी पड़ रही है. प्रदूषण की स्थिति यह है कि कुछ दिन तो दिल्ली से भी बुरे हालात रहते हैं.

उपनगरीय इलाकों में तीन मेट्रो लाइन शुरू हो चुकी हैं और विस्तारित लाइन निर्माणाधीन हैं. तटवर्ती सड़क परियोजना भी है. अलग से बस लेन होगी जो मौजूदा ट्रैफिक कॉरिडोर को बाईपास करेगा और मौजूदा शॉर्ट सी-लिंक के चार गुना यातायात को संभालेगा.

22 किमी लंबा ट्रांस हार्बर लिंक बनाया जा रहा है, जो मिड टाउन मुंबहई को मुख्य भूमि से जोड़ेगा. नया हवाई अड्डा निर्माणाधीन है. शहर के पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों को जोड़ने वाली ओवरहेड कनेक्टिंग रोड बनाई जा रही हैं और शहर तथा समुद्र के नीचे कई कमी की सुरंग तैयार की जा रही हैं.

बेंगलुरू और दिल्ली का अनुभव बताता है कि नया परिवहन ढांचा भी बढ़ती जरूरतों के साथ शायद ही तालमेल बिठा पाए.

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