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संडे व्यू: ठाकरे की तर्ज पर मराठे होंगे एक! राष्ट्रवाद महसूस कराता है ‘धुरंधर’

पढ़ें इस रविवार गिरीश कुबेर, प्रभु चावला, करन थापर, एम कल्याण रमन, संदीप दास और रामचंद्र गुहा के विचारों का सार.

मोहन कुमार
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू: पढ़ें इस रविवार गिरीश कुबेर, प्रभु चावला, करन थापर, एम कल्याण रमन, संदीप दास और रामचंद्र गुहा के विचारों का सार.  </p></div>
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संडे व्यू: पढ़ें इस रविवार गिरीश कुबेर, प्रभु चावला, करन थापर, एम कल्याण रमन, संदीप दास और रामचंद्र गुहा के विचारों का सार.

(फोटोः फाइल)

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ठाकरे की तर्ज पर मराठे भी होंगे एक?

गिरीश कुबेर ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत की राजनीति मुख्य रूप से दो खेमों में बंटे हैं - एक में वे दल हैं जो कभी भाजपा के साथ थे लेकिन बाद में उसके हाथों ठगे गए, दूसरे में वे जो भाजपा द्वारा निगले जाने से बचने की कोशिश कर रहे हैं. ठाकरे चचेरे भाई—उद्धव ठाकरे (शिवसेना यूबीटी) और राज ठाकरे (मनसे)—पूर्व खेमे से उत्तरार्ध में जाने का प्रयास कर रहे हैं. हाल ही में अलग रहे उद्धव और राज ने 24 दिसंबर 2025 को मुंबई में संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आगामी नगर निगम चुनावों, खासकर मुंबई बीएमसी, के लिए गठबंधन की घोषणा की. इससे पहले दोनों ने शिवाजी पार्क में बाल ठाकरे को श्रद्धांजलि दी.

गिरीश लिखते हैं कि 20 साल की दुश्मनी दफन कर दोनों ने 'मराठी मानुस' और महाराष्ट्र की रक्षा के लिए एकजुट होने का ऐलान किया. राज ठाकरे ने कहा कि मुंबई का अगला महापौर मराठी होगा और गठबंधन से आएगा, जबकि उद्धव ने मराठी वोटरों से एकता की अपील की. मुंबई की 227 सीटों में शिवसेना (यूबीटी) को 145-150, मनसे को 65-70 और कुछ सीटें शरद पवार की एनसीपी को मिलने की संभावना है. नासिक सहित अन्य नगर निगमों में भी गठबंधन लागू होगा.

कांग्रेस अलग लड़ेगी, जिससे महा विकास अघाड़ी में दरार उजागर हुई. यह गठबंधन भाजपा-शिंदे शिवसेना के लिए बड़ी चुनौती है, क्योंकि मराठी वोटों का ध्रुवीकरण हो सकता है. भाजपा ने इसे अवसरवादी बताया, जबकि विश्लेषक इसे ठाकरे ब्रांड के पुनरुद्धार और भाजपा के प्रभुत्व को चुनौती देने की रणनीति मानते हैं. 15 जनवरी 2026 को होने वाले चुनावों में मुंबई की सत्ता का फैसला रोचक होगा, जहां कभी अविभाजित शिवसेना का लंबा दबदबा रहा था.

राष्ट्रवाद महसूस कराता है धुरंधर

प्रभु चावला का न्यू इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित यह लेख 2025 में हिंदी सिनेमा के ऐतिहासिक बदलाव पर केंद्रित है, जिसकी धुरी फिल्म धुरंधर बनी. साल के अंत में रिलीज़ हुई यह फिल्म न केवल बॉक्स ऑफिस पर दहाड़ती दिखी, बल्कि इसने राष्ट्र की भावनात्मक लय निर्धारित की. 21 दिनों में विश्वव्यापी 1,000 करोड़ पार कर वर्ष की सबसे बड़ी भारतीय हिट और अब तक की पांचवीं सबसे सफल फिल्म बनी. दर्शकों का क्रेडिट्स पर खड़े होकर ताली बजाना केवल सिनेमाई कला का जश्न नहीं, बल्कि लंबे समय से दबी राष्ट्रवादी भावना की स्वीकारोक्ति था.

चावला लिखते हैं कि 2025 में हिंदी सिनेमा ने ब्लॉकबस्टर-निर्भर बूम-बस्ट चक्र से बाहर निकलकर “स्थिर प्रदर्शन” का दौर देखा. पहले छमाही में ही 17 फिल्में 100 करोड़ पार कर गईं (2024 में केवल 10 थीं). छावा जैसी फिल्मों ने भारतीय इतिहास और नायकों को मुख्यधारा बनाया. धुरंधर ने इसे चरम पर पहुंचाया—इसकी स्पष्टता, विद्रोही-उत्सवपूर्ण लहजा और प्रामाणिकता ने दर्शकों को राहत दी, जो व्यंग्य और नैतिक हिचक से थक चुके थे.

लेखक तर्क देते हैं कि वर्षों तक हिंदी सिनेमा ने कॉस्मोपॉलिटन सावधानी और पश्चिमी मान्यता की चाह में व्यापक दर्शकों से संपर्क खो दिया था. देशभक्ति को हाशिए पर रखा जाता या मजाक उड़ाया जाता. 2019 से बदलती राजनीतिक-सांस्कृतिक भाषा ने यह खालीपन भरने का मौका दिया. उरी, कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी ने संकेत दिए, लेकिन धुरंधर ने राष्ट्रवाद को नई भावनात्मक मुख्यधारा बनाया. इसने उद्योग को अपनी भाषा बोलने की अनुमति दी, छोटे शहरों के फिल्मकारों को सशक्त किया और पुराने नेटवर्क की एकाधिकार ढीली की. सफलता आक्रामकता की नहीं, बल्कि सटीक अभिव्यक्ति की थी—आत्मविश्वास बिना तिरस्कार का. चुनौती आगे है: यह मुखरता फॉर्मूला न बने, मानवीय गहराई बनी रहे. 2025 वह वर्ष था जब बॉलीवुड ने नकली वैश्विक आवाज़ छोड़ अपनी सुनी और राष्ट्र को अपनी भावनाएं महसूस करने का साहस दिया.

अंग्रेज की अंग्रेजी : बुझो तो जानें

करण थापर का यह कॉलम लंदन से लिखा गया है, जहाँ वे क्रिसमस और न्यू ईयर की छुट्टियाँ मना रहे हैं. वे ब्रिटेन से गहरा लगाव और प्रशंसा रखते हैं, खासकर ब्रिटिश लोगों की अंग्रेज़ी बोलने की शैली से, जो बेहद परोक्ष और शिष्टाचारपूर्ण होती है. लेखक बताते हैं कि ब्रिटिश वाक्य अक्सर ठीक उल्टा मतलब रखते हैं, और बिना लंबे समय वहाँ रहे व्यक्ति को यह समझना मुश्किल होता है.

उदाहरणस्वरूप, “सॉरी, क्या आप आखिरी हिस्सा दोबारा कह सकते हैं?” का मतलब है कि उन्होंने कुछ सुना ही नहीं. “आई हियर व्हाट यू आर सेइंग” असल में पूर्ण असहमति दर्शाता है. “साउंड्स फन, आई विल लेट यू नो” का अर्थ है कि व्यक्ति आने का बिल्कुल इरादा नहीं रखता. “आई एम श्योर इट्स जस्ट मी” से बोलने वाला दोष आप पर डालता है, लेकिन बड़ी नरमी से. “आई विल बेयर इट इन माइंड” मतलब आपकी बात तुरंत भुला दी जाएगी.

थापर द टाइम्स के एक लेख का हवाला देते हैं जो ऐसे दर्जनों परोक्ष अभिव्यक्तियों की व्याख्या करता है. वे अपने निजी अनुभव साझा करते हैं—स्कूल के ट्यूटर और ऑक्सफोर्ड की दोस्त के उदाहरण से—जिनसे उन्हें यह शैली समझ आई. भारतीय अंग्रेज़ी की तुलना में वे कहते हैं कि हम सीधे-सादे और स्पष्टवादी होते हैं, जबकि ब्रिटिश अपने असली इरादे को शिष्ट वाक्यों में छिपाते हैं. यह कोई चाल नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति है—वे ज़बरदस्ती नहीं चाहते, बस विनम्रता से मना करते हैं. लेख के अंत में लेखक अंग्रेज़ी उच्चारण की जटिलता पर हल्का-फुल्का व्यंग्य करते हैं और दो मजेदार कविताएँ उद्धृत करते हैं जो अंग्रेज़ी के अनियमित उच्चारण को उजागर करती हैं. अंत में सलाह देते हैं कि इसे सही बोलना लगभग असंभव है—बेहतर है हार मान लो!

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छुआछूत से बचने के लिए धर्मांतरण!

एम कल्याण रमण ने द हिन्दू में 1997 की घटना पर आधारित अपना संस्मरण लिखा है. रामनाथपुरम के निकट पलकराई दलित गांव में लगभग 10 लोगों के इस्लाम धर्म अपनाने की छोटी-सी खबर नवोदित रिपोर्टर को बड़ी स्टोरी लगी. धार्मिक रूपांतरण की संवेदनशीलता के कारण उन्होंने चेन्नई के वरिष्ठों से सलाह ली और मदुरै के राजन को साथ लिया. राजन परियार (दलित) परिवार से थे और मार्क्सवादी विचारक एंटोनियो ग्राम्शी के 'ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल' की मिसाल थे—परिवेश और किताबों से राजनीति सीखी. इलाके के लोगों को गहराई से समझते थे. पलकराई में ग्रामीण पत्रकारों से डरते और बात करने से इनकार कर रहे थे.

एम कल्याण रमण लिखते हैं कि राजन ने छुआछूत की दीवार तोड़ने के लिए पानी मांगा और खुद पीकर विश्वास जीता. ग्रामीणों ने खुलकर बताया कि पड़ोस के थेवर गांव के युवा उन्हें अपमानित करते हैं, बसें उनके गांव पर नहीं रुकतीं. पुलिस ने उनके लड़कों पर झूठे केस किए, जिससे सरकारी नौकरी में आरक्षण का हक छिन जाता. इस्लाम अपनाना उनके लिए विरोध और सम्मान का तरीका था—“दाढ़ी और टोपी पहनूंगा तो कोई अपमान नहीं करेगा, बसें रुकेंगी.

राजन ने रिपोर्टर को समझाया और ग्रामीणों की बात सुनकर सहानुभूति दिखाई, जिससे स्टोरी गहराई वाली बनी. राजन का नाम कभी बाइलाइन में नहीं आया, वे निस्वार्थ थे. बीस साल बाद लेखक ने फिर पलकराई का दौरा किया—रूपांतरित परिवार अब समृद्ध और सम्मानित जीवन जी रहे थे. लेख राजन जैसे ग्रासरूट कार्यकर्ताओं को श्रद्धांजलि है, जो ग्रामीण भारत की वास्तविकताओं को पत्रकारिता तक पहुंचाते हैं, लेकिन खुद परदे के पीछे रहते हैं.

टेक से थके लोग आध्यात्मिकता की ओर

संदीप दास ने टाइम्स ऑफ इंडिया में बताया है कि 2026 के लिए उपभोक्ता बाजार कैसा रहेगा? वे लिखते हैं कि भविष्य की किसी भी चर्चा की शुरुआत AI से करनी होगी, जो टेक्नोलॉजी की सबसे अत्याधुनिक धार है. इसके लगभग समानांतर चल रही है रहस्यवाद और 'ऑल थिंग्स गॉड' की बढ़ती लोकप्रियता. AI अब हर क्षेत्र में घुस चुका है—स्मार्ट होम डिवाइस से लेकर पर्सनलाइज्ड शॉपिंग तक. उपभोक्ता AI-पावर्ड प्रोडक्ट्स की ओर आकर्षित होंगे जो जीवन को आसान बनाते हैं, जैसे वॉइस असिस्टेंट, ऑटोमेटेड हेल्थ मॉनिटरिंग या AI-ड्रिवन एंटरटेनमेंट.

संदीप आगे लिखते हैं कि यह भी सच है कि टेक की इस तेज रफ्तार से थके लोग आध्यात्मिकता की ओर मुड़ रहे हैं. योगा रिट्रीट, मेडिटेशन ऐप्स, क्रिस्टल हीलिंग, एस्ट्रोलॉजी कंसल्टेशन और देवी-देवताओं से जुड़े प्रोडक्ट्स की डिमांड बढ़ेगी.अन्य ट्रेंड्स में सस्टेनेबिलिटी प्रमुख रहेगी—इको-फ्रेंडली प्रोडक्ट्स, ऑर्गेनिक फूड और रिसाइक्लेबल फैशन.

युवा मिलेनियल्स और जेन Z लग्जरी की बजाय एक्सपीरियंस खरीदना पसंद करेंगे: ट्रैवल, कॉन्सर्ट्स, वेलनेस पैकेज. हेल्थ और फिटनेस पर खर्च बढ़ेगा—जिम मेंबरशिप, न्यूट्रिशन सप्लीमेंट्स और मेंटल हेल्थ सर्विसेज.इकोनॉमिक अनिश्चितताओं के बीच लोग वैल्यू-फॉर-मनी प्रोडक्ट्स चुनेंगे, लेकिन प्रीमियम सेगमेंट में भी ग्रोथ होगी जहां क्वालिटी और ब्रांड वैल्यू मायने रखती है. ई-कॉमर्स और क्विक डिलीवरी का बोलबाला रहेगा, लेकिन लोकल और आर्टिसनल प्रोडक्ट्स की भी वापसी होगी.संक्षेप में, 2026 उपभोक्ता दो ध्रुवों के बीच झूलेंगे—हाई-टेक इनोवेशन और आध्यात्मिक सादगी. जो ब्रांड्स इन दोनों को बैलेंस करेंगे, वे जीतेंगे.

गांधी और लेनिन

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में गांधी और लेनिन की तुलना पर केंद्रित विभिन्न ऐतिहासिक किताबों और लेखों की चर्चा की है. लेख की शुरुआत ऑस्ट्रियाई लेखक रेने फुलोप-मिलर की 1927 की किताब लेनिन और गांधी से होती है, जो दोनों नेताओं की समानताओं (मध्यम वर्गीय पृष्ठभूमि, गरीबों के उत्थान की इच्छा) और विभिन्नताओं (हिंसा बनाम अहिंसा) पर जोर देती है. लेखक बताते हैं कि इससे पहले भी ऐसी तुलनाएं हुई थीं. 1921 में कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे ने गांधी बनाम लेनिन नामक पर्चा लिखा, जिसमें लेनिनवाद को प्राथमिकता दी लेकिन गांधीवाद की मानवीयता को स्वीकार किया.

गुहा लिखते हैं कि 1925 में अमेरिकी मंत्री हैरी वार्ड ने दोनों को युग के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति माना और पूछा कि मानवता का भविष्य हिंसा पर आधारित क्रांति पर निर्भर करेगा या अहिंसा पर. फुलोप-मिलर ने लेनिन की क्रूरता और घृणा को ट्रैजिक बताया, जबकि गांधी की अहिंसा और प्रेम की क्रांति को ऐतिहासिक रूप से अनोखी माना.

लेख में ब्रिटिश कम्युनिस्ट फिलिप स्प्रैट की कहानी भी है, जो भारत क्रांति फैलाने आए, जेल गए और वहां भारतीय दर्शन पढ़कर गांधी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण हुए. उनकी किताब ‘गांधीवाद: एक विश्लेषण’ में उन्होंने गांधी की विधि को अधिक मानवीय लेकिन धीमी माना. बाद में स्प्रैट ने लोकतंत्र की उपयोगिता पर जोर दिया और लेनिन की बुर्जुआ लोकतंत्र को धोखा मानने की आलोचना की. लेख का समापन वर्तमान संदर्भ से होता है: आज दुनिया भर में लोकतंत्र पर संकट है (ट्रंप, ओरबान, मोदी आदि का उदाहरण). इसका समाधान लेनिनवादी हिंसक क्रांति नहीं, बल्कि स्वतंत्र संस्थाओं वाले मजबूत बुर्जुआ लोकतंत्र को पुनर्जीवित करना है.

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