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पार्थ सिन्हा ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि जब भी भारत और पाकिस्तान की टीमें खेलती हैं, अतीत की पकड़ थोड़ी ढीली पड़ जाती है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सवाल—क्या भारत को पाकिस्तान से खेलना ही चाहिए?—का जवाब मिल जाता है. यह सवाल बना रहना चाहिए. कुछ सवाल क्रिकेट के वेश में आते हैं. कुछ कूटनीति की चादर ओढ़े. लेकिन एक सवाल हर टूर्नामेंट सीजन में लौटता है, जैसे खांसी जो न रुके—कर्कश, असहज और गहरी परिचित: क्या भारत को पाकिस्तान से खेलना चाहिए? यह पूछताछ नहीं. यह आईना है. जो हमारी हर चीज को प्रतिबिंबित करता है—और जो हम छिपाना चाहते हैं. मैदान पर, दुबई इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम की बाढ़ वाली रोशनी में, जहां 14 सितंबर को एशिया कप 2025 का ग्रुप ए का प्रमुख मुकाबला होगा, बाउंड्री रस्सियां नाजुक संधि बन जाती हैं.
2007 से कोई द्विपक्षीय सीरीज नहीं, सुरक्षा और राजनीतिक दुश्मनी की वजह से. सिर्फ एशिया कप या वर्ल्ड कप जैसे बहुपक्षीय टूर्नामेंट मजबूरन हाथ मिलवाते हैं. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था इन मुकाबलों पर टिकी; उनके खिलाड़ी बड़े लीग से वंचित, हर भारतीय गेंदबाज को एवरेस्ट मानते. जीत वर्चस्व पक्का करे, हार ट्विटर पर साजिशों का तूफान लाए. याद है 2011 वर्ल्ड कप सेमी? तेंदुलकर का शतक मैच न जीता, खोया भाई लौटाया. लेकिन जर्सी उतारें, तो असली खेल मैदान से बाहर. खेल घाव भरता है या नफरत को मानवीय बनाता है? बाज की जीत, राजनीति को पिच का कठपुतली बनाना. 2010 के दशक में खाली स्टेडियम, द्विपक्षीय दौरों का ढहना, फैंस को यूट्यूब रीप्ले और 'क्या होता'. 1936 के पहले टेस्ट में जिन्ना एकता का सपना देख रहे थे, जो बाद में कड़वा हो गया. रविवार का मैच स्कोर न सुलझाए. अगर भारत 18 ओवर में 180 का पीछा करे, तो सोशल मीडिया पर बाबर आजम के शर्मीले मुस्कान के मीम्स. अगर शाहीन अफरीदी के यॉर्कर जीतें, तो 'कर्मा' और 'अधूरी जंग' पर लेख. कड़वा सच यह है कि पाकिस्तान से खेलना रन-विकेट का खेल भर नहीं होता.
अदिति फडणवीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि इस सप्ताह नेपाल में 40 घंटे से अधिक चले उग्र आंदोलन ने व्यापक तबाही मचाई, जिसका आकलन कठिन है. काठमांडू का ऐतिहासिक सिंह दरबार, जो 1908 में बारोक शैली में बनाया गया था और बाद में सचिवालय व प्रधानमंत्री कार्यालय बना, अब खंडहर है. सर्वोच्च न्यायालय, संसद का अधिकांश हिस्सा तथा 77 जिलों के अधिकांश सीडीओ कार्यालय भी ध्वस्त हो चुके हैं. निजी क्षेत्र में भाट भटेनी (नेपाल का एकमात्र संगठित रिटेल चेन), हिल्टन होटल, आधा दर्जन मंत्रियों के आवास व अन्य संरचनाएं बर्बाद हैं. 20 से अधिक मौतें हुईं, जिनमें सबसे छोटा पीड़ित 13 वर्ष का बच्चा था. नेपाल शोकाकुल है, किंतु उत्सुकता भी है. यह सिलसिला जारी रह सकता था, पर रुक गया—कारण नेपाल की राजनीतिक अर्थव्यवस्था.
सामाजिक संकेतक भी बेहतर हुए हैं. जीवन प्रत्याशा 1990 के 54.77 से 72 वर्ष, प्राइमरी नामांकन 100%, साक्षरता 59% से 76%, 81% के पास अपना घर, हर 5 में 4 परिवारों का सदस्य विदेश में. मूल समस्या राजनीति में दिखाई देती है जहां घोटाले समृद्धि का रास्ता अवरुद्ध करते हैं. जेनजी आंदोलन से जुड़े एक नेता को 50,000 लोगों ने जेल से छुड़ाया, जो कर्ज डिफॉल्ट के 5 मामलों में फंसे थे; वे गृह मंत्री बने. पूर्व गृह मंत्री ने नेपालियों को नकली भूटानी शरणार्थी दस्तावेज बेचे. वर्तमान उथल-पुथल में इस्तीफा देने वाले गृह मंत्री पर मानव तस्करी की जांच. जेनजी का उभार कुलीन युवाओं व नाकाम व्यवस्था के खिलाफ है.
टेलीग्राफ में स्वपन दास गुप्ता ने लिखा है कि दिल्ली में पिछले सप्ताह विवेक रंजन अग्निहोत्री की 'द बंगाल फाइल्स' देखी, जो 5 सितंबर 2025 को रिलीज हुई. फिल्म में मुर्शिदाबाद का एक पुलिस अधिकारी दिल्ली से आई सीबीआई अधिकारी को लापता लड़की के मामले में बताता है: “यहां दो संविधान चलते हैं—एक हिंदुओं के लिए, दूसरा मुसलमानों के लिए.” कुछ लोगों को यह पंक्ति या 1946 के मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड के भड़काऊ भाषण 'द कश्मीर फाइल्स' की उत्तराधिकारी को पश्चिम बंगाल में कठोर बनाते हैं. दशकों की धर्मनिरपेक्ष शासन से पली 'स्नोफ्लेक' पीढ़ी के लिए सुरक्षित क्षेत्र की जरूरत ने—अनौपचारिक रूप से—कानून संरक्षकों को सिनेमा हॉल मैनेजरों को फुसफुसाया कि ऐसी 'हॉरर शो' से युवा दिमागों को दूर रखें. क्षतिग्रस्त संपत्ति बहाल करने की लागत संवैधानिक मूल्यों के 'ब्राउनी पॉइंट्स' से ज्यादा.
जिन्ना के संवैधानिकता त्याग ने विभाजन को जन्म दिया, जो बंगाल-असम तक फैला. कलकत्ता 'लड़के लेंगे पाकिस्तान' का केंद्र, नोआखाली इसका खूनी परिणाम. लोक-स्मृति राजनीतिक सजावटों से मैली; उत्तरी भारत के संग्रहालयों के विपरीत, बंगाल में कोई स्मृति स्थल नहीं. बंगाली बुद्धिजीवियों ने इन्हें 'अनकही त्रासदियां' माना; फिल्में पूर्वी बंगाल शरणार्थियों की उदासी दिखातीं, पर स्वतंत्रता सेनानियों की संतानें शरणार्थी क्यों? नोआखाली में गोलाम सरवर हुसैनी-भड़काई भीड़ ने लक्ष्मी पूजा पर राजेंद्र लाल रॉयचौधरी का परिवार कत्ल किया, महिलाओं का अपहरण-धर्मांतरण. क्या इन्हें 'सबाल्टर्न एसर्टशन' कहकर भुलाएं?अग्निहोत्री ने अतीत को वर्तमान मुर्शिदाबाद से जोड़ा, गोलाम को आज के राजनेता-गुंडे में बदल दिया. संदेश यह है कि 1946 का अंतिम अध्याय जारी है. राजनीतिक संदेश स्पष्ट, जैसे 'गरम हवा' या 'तमस' में. बंगाल में प्रतिबंध रुश्दी के 'सैटेनिक वर्सेज' जैसा; इतिहासकार नाराज—कम्युनिस्टों का जिक्र नदारद, सुहरावर्दी मुख्य दोषी. फिल्म ने भूमिगत धाराओं को उजागर किया; यही इसे देखने लायक बनाता.
हिन्दुस्तान टाइम्स में अभिषेक अस्थाना ने लिखा है कि 1915 में हार्नेस विक्रेता एड क्लाइन ने कैनसस के 'लॉरेंस जर्नल वर्ल्ड' में विज्ञापन छापा. इस विज्ञापन में कार न खरीदकर घोड़ों को जारी रखने की अपील की. डोबिन नामक घोड़े को भावुक बनाकर बताया—कम मेंटेनेंस, बिना फॉसिल ईंधन, मूल्यह्रास-रहित एसेट. लेकिन हताशा साफ थी. हेनरी फोर्ड ने 1913 में असेंबली लाइन शुरू की थी, 93 मिनट में कार तैयार. उनका कथन: “लोग तेज घोड़े मांगेंगे.” सही थे—पिछले 100 वर्षों की रिसर्च घोड़ों को तेज-मजबूत बनाने पर. गोबर की बदबू से शहर बदबूदार मीटिंग रूम जैसे. 1877 के घोड़े 1876 से मुश्किल से अलग—शायद 4% तेज?
1899 में पेटेंट कमिश्नर चार्ल्स ड्यूल बोले, “सब आविष्कार हो चुके.” 4 साल बाद राइट ब्रदर्स की फ्लाइट. “घर में कंप्यूटर कौन चाहेगा?” आज जेब में. ऐसी राय दशकों बाद याद रहतीं—यह लेख भी 40-50 साल बाद साबित करे, स्वागत. बचपन में मोहल्ले का एक फोन; रबर बटन वाला सामान अमीरी का चिन्ह. ज्यादा बटन, ऊंची स्टेटस. चिल्लाकर बातें, नेटवर्क फेल तो आवाज पहुंचे. पीपी नंबर (पड़ोसी का फोन) से स्मार्टफोन की शोभा तक. iPhone आइटेरेशन्स से पैसा कमाना बाकी. किशोर अभी, विवाह योग्य उम्र तक इंतजार. घोड़े वाले कार न बनाएं, सांस न थामें. इस सदी के फोर्ड का इंतजार.
प्रशांत भूषण ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि लोकतंत्र सुधार संघ (ADR) के सह-संस्थापक जगदीप एस छोकर लोकतंत्र के तीक्ष्ण, अथक और निर्भीक योद्धा रहे. 12 सितंबर 2025 को 80 वर्ष की आयु में हृदयाघात से उनका निधन हो गया. वे अपनी पत्नी किरण को छोड़ गए, जो उनके 50 सुखद वर्षों और सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों को याद करती हैं. कोविड के बाद श्वसन समस्या से जूझ रहे थे, लेकिन कभी शिकायत न की, न ही सार्वजनिक कार्यों में बाधा डाली.
आपराधिक उम्मीदवार प्रतिशत, संपन्न दल-उम्मीदवार. मतदाताओं के सूचित निर्णय में अमूल्य. इलेक्टोरल बॉन्ड योजना रद्द, स्टेट बैंक को खरीदार-दल खुलासा. रिश्वत के quid pro quo बेनकाब. फिर चुनाव आयुक्त चयन कानून चुनौती (मुख्य न्यायाधीश हटाकर मंत्री जोड़ा)—लंबित, सरकार को छूट. 2016-18 FCRA संशोधन (विदेशी फंडिंग अनुमति) व RTI में दलों को जवाबदेह बनाने की याचिकाएं लंबित. चुनाव आयोग की SIR (मतदाता सूची संशोधन), खास बिहार में जल्दबाजी को चुनौती—पारदर्शिता आई, लेकिन समस्याएं बाकी.जगदीप अदालती दलीलों पर नजर रखते. आखिरी सुनवाई (आधार प्रमाण) पर सहकर्मी को: “इतने प्रयास से इतना कम, बदलाव को कितना बाकी. दुखद स्थिति.” निर्भीक जगदीप ने सत्ता-बुराइयों पर आवाज उठाई, कार्यकर्ताओं को प्रेरित. उनके निधन से भारत ने लोकतंत्र चैंपियन खोया, निर्णायक मोड़ पर महत्वपूर्ण आवाज.