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संडे व्यू: हैंडशेक से पीछे क्यों हटा भारत? मोदी-मुनीर की तुलना ना करें

पढ़ें इस रविवार मुकुल केसवान, तवलीन सिंह, महेश सचदेव, श्याम सरन, नमिता भंडारे के विचारों का सार

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संडे व्यू: हैंडशेक से पीछे क्यों हटा भारत? मोदी-मुनीर की तुलना ना करें

(फोटोः फाइल)

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हैंडशेक न करने का फैसला अफसोसजनक

मुकुल केसवान ने टेलीग्राफ में लिखा है कि एशिया कप में पाकिस्तानी खिलाड़ियों से हाथ न मिलाने के फैसले पर आक्रोश नहीं, अफसोस होना चाहिए. आधुनिक खेल राष्ट्र-राज्य से अभिन्न हैं—टेस्ट क्रिकेट से ओलंपिक तक. राष्ट्रवाद खेल को प्रभावित करता है, जैसे बॉडीलाइन सीरीज में ब्रिटिश साम्राज्य ने ऑस्ट्रेलिया को धमकाया या 1980 मॉस्को ओलंपिक का बहिष्कार भी इसका ही उदाहरण है. हालिया भारत-पाक तनाव, पहलगाम की घटना और ऑपरेशन सिंदूर के बाद, एशिया कप खेला गया. पाकिस्तान की भागीदारी पर भारत बहिष्कार कर सकता था, लेकिन नहीं किया.

मुकुल आगे लिखते हैं कि आईसीसी प्रमुख जय शाह के नेतृत्व में बीसीसीआई ने चतुराई बरती. टॉस से ठीक पहले नो-हैंडशेक की सूचना दी, पाक कप्तान सलमान आगा को घेर लिया. पाकिस्तान के लिए मैच से हटने का मौका न था. आईसीसी ने बीसीसीआई का साथ दिया. पाक की शिकायतें खारिज कीं. सरकार को देशभक्ति का ढिंढोरा पीटने का मौका मिला. दर्शकों को पाक पर आसान जीत पर आह्लादित होने का मौका मिला.

सुशांत सिंह के शब्दों में, “क्रिकेट जीत राष्ट्रीय उन्माद पैदा करती है.” सूर्यकुमार यादव ने कहा, खेल-भावना से ऊपर चीजें महत्वपूर्ण हैं. लेकिन राष्ट्रवाद खेल की शूरवीरता पर भारी न पड़े. खिलाड़ियों पर दबाव न डालें. खेल कला की तरह क्षणिक उत्कृष्टता देता है—1999 चेन्नई टेस्ट में पाक जीत पर तालियां इसका प्रमाण. क्रिकेट को युद्ध न बनाएं; यह शूटिंग-रहित युद्ध नहीं, उत्सव है. बीसीसीआई प्रभारी भूलते हैं, खिलाड़ी जानते हैं.

मोदी-मुनीर की तुलना ना करें

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में सवाल किया है कि क्या ट्रंप का पाकिस्तान की ओर झुकाव है? और, इसके पीछे का कारण क्या है? उन्होंने भारत के चुने हुए पीएम और 'जनरल जिहाद' उर्फ आसिम मुनीर जैसे सैन्य तानाशाह में कोई फर्क नहीं देखा. ट्रंप ने हाल में मुनीर के साथ ज्यादा समय बिताया, मोदी के साथ कम. नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तानी राजनेता, खिलाड़ी और आम नागरिक भी अचानक साहसी दिखने लगे और भारत को लोकतंत्र पर लेक्चर देने लगे. मुझे सबसे ज्यादा खराब लगा हीना खार का इंटरव्यू क्लिप, जहां उन्होंने 'पूर्वजों' की परमाणु बम बनाने की तारीफ की. ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत को बुरा भला कहने वाली खार ने कहा कि पहले वह उदारवादी थीं, बम पर पैसे बर्बाद न करने की वकालत करतीं. लेकिन 'भारत का दुस्साहस' देखकर मन बदल गया.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि उनके पाकिस्तानी दोस्त हिंदुत्व को नाजीवाद, मोदी को नेतन्याहू से जोड़ते हैं. वे पुराने 'धर्मनिरपेक्ष' भारत की नॉस्टैल्जिया करते हैं. यह तुलना घृणित है. भारत हिंदुत्व के बावजूद धर्मनिरपेक्ष बना रहा, लेकिन पड़ोसी इस्लामी गणराज्य में यह दिखाई नहीं देता. वे भूल जाते हैं कि सिंदूर पहलगाम नरसंहार का प्रतिशोध था, जहां जैश आतंकी पाकिस्तान में छिपे थे.

भारत ने 9 शिविरों पर सटीक हमला किया, 100 से ज्यादा उग्रवादी मारे. यह संतुलित था, युद्धविराम 'ड्रॉ'. लेकिन पाक के इको चैंबर्स में भारत आक्रामक है. रियाद पाक को अरबों देता है, बदले परमाणु छाया. ट्रंप की मुनीर से बार-बार मुलाकात और मोदी सिर्फ फोन! ट्रंप डील मेकर है. मोदी-मुनीर तुलना अपमानजनक है. भारत में 20 करोड़ मुस्लिम हैं. पाकिस्तान से ज्यादा मस्जिदें हैं. पाक में अहमदी 'गैर-मुस्लिम' हैं, ईशनिंदा की तलवार है. स्थिति ऐसी कि मलाला तक भाग निकलीं. पाकिस्तान में सेना प्रधानमंत्री चुनती है, प्रदर्शन कुचलती. आफरीदी की 'इस्लामी एकता', भुट्टो का मानवाधिकार लेक्चर जबकि बलूचों की चीख पर खामोशी है. पाकिस्तान में 30% महंगाई, आईएमएफ बेलआउट बहुत कुछ कहता है.

सऊदी अरब–पाक समझौता: चिंता ज्यादा, उम्मीद कम

महेश सचदेव ने हिन्दू में लिखा है कि 17 सितंबर 2025 को पाकिस्तान के फील्ड मार्शल आसिम मुनीर की उपस्थिति में रियाद में सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ द्वारा रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौते (एसएमडीए) पर हस्ताक्षर में भी आशा देखी जा सकती है. सुन्नी बहुल सऊदी अरब और पाकिस्तान कई समानताएं साझा करते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण मतभेदों ने पिछले रक्षा सहयोग को सीमित किया. उनकी खतरे की धारणाएं भी परस्पर विरोधी हैं. उनके बंधन का केंद्र सुन्नी इस्लाम में साझा पहचान है, जो सांस्कृतिक-विचारधारा का आधार रही. 1960 से पाकिस्तान सऊदी को सैन्य प्रशिक्षक भेजता रहा—यमन युद्ध में सैनिक तैनात किए और 1979 मक्का मस्जिद कब्जे के बाद पुनःकब्जा में मदद की.

हाल के वर्षों में सऊदी ने कंगाल पाकिस्तान को 3 अरब डॉलर से अधिक ऋण दिए. ईरान की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं का मुकाबला करने में भी वे संगठन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन जैसे मंचों पर जुड़े. फिर भी, मतभेद गहरे हैं. सऊदी का विजन 2030 आर्थिक विविधीकरण और सामाजिक उदारीकरण पर जोर देता है, जबकि पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता, आतंकवाद और कर्ज संकट से जूझता दिखता है. भू-राजनीतिक रूप से, रियाद वाशिंगटन पर निर्भर, जबकि इस्लामाबाद बीजिंग पर—चीन-पाक आर्थिक गलियारे के जरिए.

2015 यमन युद्ध में पाक संसद ने सऊदी की अपील ठुकराई थी. सऊदी हूती को ईरानी प्रॉक्सी मानते हैं, पाकिस्तान भारत सीमा को प्राथमिकता देता है. सऊदी के लिए ईरान का परमाणु कार्यक्रम, हूती मिसाइलें, इजरायल की कार्रवाइयां (कतर पर) अहम मुद्दे हैं. पाक के लिए नई दिल्ली, 170 वारहेड्स वाली परमाणु शक्ति अहम हैं. शहबाज शरीफ ने 'अटूट भाईचारे का नया युग' कहा है तो बिन सलमान ने 'गहन सहयोग' पर जोर दिया है. चीन त्रिपक्षीय ऊर्जा गलियारों देख सकता है, लेकिन अमेरिका के संदेह से तनाव पैदा होगा. भारत के लिए सूक्ष्म लेकिन चिंताजनक बात यह है कि सऊदी दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार (50 अरब डॉलर) है.

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नेपाल से पैदा होती है उम्मीद

बिजनेस स्टैंडर्ड में श्याम सरन ने लिखा है कि श्रीलंका, बांग्लादेश व नेपाल में हालिया हिंसा का मूल कारण युवाओं के लिए विकास-रोजगार अवसरों की कमी है. यह शिक्षित, वैश्विक रुझानों से परिचित 'जेन जेड' पीढ़ी इंटरनेट-सोशल मीडिया से जुड़ी है, जो निराशा-आक्रोश को बिना मकसद के बवंडर में बदल देती है. नेपाल में 73% घरों में मोबाइल, 55% आबादी इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं. यह अनुपात युवाओं में अधिक है. नेपाल में गुणवत्ता नेतृत्व चाहिए, जो अनुपलब्ध है. यह लोकतांत्रिक देश हैं, लेकिन लोकतंत्र कुलीन तंत्र या तानाशाही की ओर झुकता है. चुनावों में धनबल, पदों का निजी लाभ के लिए दुरुपयोग अभिजात को जनता से अलग करता है.

श्याम सरन लिखते हैं कि नेपाल का 'नेपो-बेबी' मीम राजनीतिक संतानों की ऐश्वर्यपूर्ण जिंदगी उजागर करता है. संकीर्ण राष्ट्रवाद से युवाओं को भटकाया जाता है. यह बात अहम है कि नेपाल में भारत-विरोधी साजिश का कथानक गायब दिखा. इससे स्थिति की गंभीरता झलकती है. पड़ोसी उथल-पुथल में विदेशी हाथ देखने वाली मानसिकता भी हानिकारक है. यह पड़ोसी लोगों को शक्तिहीन मानती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंतरिम सरकार के लिए नपे-तुले शब्द बोले हैं. हिंसक दंगाइयों से युवाओं ने खुद को अलग किया, यह अच्छी बात रही. मालदीव-श्रीलंका से सीख लेने की जरूरत है. इन देशों में 'भारत-मुक्त' अभियान पर प्रतिक्रिया न देकर निकटता अपनाई गयी. 'पड़ोस प्रथम' आकांक्षा मात्र है. द्विपक्षीय संबंधों के साथ क्षेत्रीय एकीकरण जरूरी है. भारतीय उपमहाद्वीप एकल भू-राजनीतिक क्षेत्र—साझा इतिहास, संस्कृति का आईना है. आधे-अधूरे प्रयास गलत होंगे. द्विपक्षीय संबंधों को क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य से मजबूत करने की आवश्यकता है.

राजनीतिक दल कार्यस्थल नहीं तो महिलाएं क्या करें?

नमिता भंडारे ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट ने तय किया कि राजनीतिक दल कार्यस्थल नहीं हैं, इसलिए महिलाओं के यौन उत्पीड़न (कार्यस्थल) अधिनियम (पॉश) के दायरे में नहीं आते. सुप्रीम अदालत ने 'ब्लैकमेल का हथियार' बनाने से रोकने के लिए याचिका खारिज की. लेकिन यह फैसला समाधान नहीं देता. राजनीतिक दलों को अब खुद आगे बढ़ना चाहिए और अपनी अच्छी नीयत दिखानी चाहिए. आधुनिक राजनीति पेशा बन चुकी है. यहां सत्ता के लाभ हैं जैसे मुफ्त आवास, चिकित्सा सुविधाएं. दलों में कार्यालय, पदाधिकारी, वेतनभोगी कर्मचारी, पदानुक्रम, फंड संग्रह, बैंक खाते हुआ करते हैं. याचिकाकर्ता एमजी योगमाया की वकील शोभा गुप्ता ने कहा, “इन्हें कार्यस्थल न कहना तर्कसंगत नहीं.” कांग्रेस की लीगल सेल सदस्य योगमाया ने बताया कि दलों में यौन उत्पीड़न आम है, लेकिन डर से अधिकांश मामले सामने नहीं आते.

नमिता लिखती हैं कि मौन की संस्कृति समस्या बढ़ाती है. 2014 में यूएन वुमन और सेंटर फॉर सोशल रिसर्च के अध्ययन में 58% महिला राजनेताओं ने बताया कि हिंसा के अपराधी उनके दल के सहयोगी थे. रंजना कुमारी ने कहा, “राजनेता यौन अनुग्रह मांगते हैं.” पॉश कानून उदार है—घरेलू कामगारों, असंगठित क्षेत्र को कवर करता है. यह 'पीड़ित महिलाओं' पर केंद्रित है. यौन उत्पीड़न की परिभाषा व्यापक है. आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) निष्पक्ष सुनवाई देती है.

लेकिन गुप्ता कहती हैं, “राजनीतिक दलों को जानबूझकर बाहर रखा जा रहा है.” यह संकीर्ण व्याख्या दुखद है, जो महिलाओं के अधिकारों पर न्यायिक संदेह दिखाती है. हाल में तलाक में गुजारा मांगने वाली महिलाओं को नौकरी करने को कहा गया, बलात्कार पीड़िताओं को राखी बांधने या अपराधी से शादी की सलाह दी गई. धारा 498ए पर 'नाराज गृहिणियों' की टिप्पणियां हैं. यौन उत्पीड़न असमान पदानुक्रम का रूप है, जहां कुछ पुरुषों के हाथों सत्ता है. 2,764 पंजीकृत दलों में सिर्फ सीपीआई(एम) के पास आईसीसी है. अन्य दलों को अपनाना चाहिए. राजनीतिक दल राष्ट्र-निर्माण के केंद्र हैं. महिलाओं का सशक्तिकरण नकद हस्तांतरण से आगे है—यह पार्टी कार्यालय से शुरू होता है, जहां महिलाएं गरिमा से, बिना डर के काम कर सकें.

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