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संडे व्यू: बिहार की राजनीति का उभरता चिराग;महाराष्ट्र-हरियाणा-MP दोहराएगा बिहार?

पढ़ें इस रविवार आसिम अली, शोभना के नायर, तवलीन सिंह, अदिति फडनीस और हर्षा भोगले के विचारों का सार.

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<div class="paragraphs"><p>पढ़ें इस रविवार आसिम अली, शोभना के नायर, तवलीन सिंह, अदिति फडनीस और हर्षा भोगले  के विचारों का सार.</p></div>
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पढ़ें इस रविवार आसिम अली, शोभना के नायर, तवलीन सिंह, अदिति फडनीस और हर्षा भोगले के विचारों का सार.

फोटो: फाइल 

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महाराष्ट्र, हरियाणा, मध्यप्रदेश दोहराएगा बिहार?

आसिम अली ने टेलीग्राफ में लिखा है कि सर्वेक्षणों के अनुसार, बिहार में एनडीए एक और जीत की ओर अग्रसर है, भले ही नीतीश कुमार की लोकप्रियता घट रही हो और सरकार के प्रदर्शन से असंतोष व्याप्त हो. यह महाराष्ट्र-हरियाणा (2024) तथा मध्य प्रदेश (2023) के पैटर्न को दोहराएगा. बिना स्पष्ट जनादेश के एनडीए की पुनरावृत्ति क्या चुपचाप कल्याणकारी/सांप्रदायिक बहुमत की संतुष्टि दर्शाती है, या निष्क्रिय जनता की यथास्थिति स्वीकृति? क्या यह 'स्थिर' या 'प्रबंधित लोकतंत्र' है? नीतीश 2015 के सात निश्चयों पर विफल रहे; 2020 का नारा था—“क्यों करें विचार… ठीक ही तो हैं नीतीश कुमार”. सात निश्चय 2 बॉलीवुड फ्रैंचाइजी जैसा लॉन्च हुआ. तीन बार गुट-बदलाव ने जवाबदेही कमजोर की. एनडीए का लाभ और सामाजिक गठबंधन चिन्ताजनक सवाल उठाते हैं.

आसिम अली लिखते हैं कि जेडीयू-भाजपा ब्रांड मोदी-नीतीश पर निर्भर है. नकद कल्याण हस्तांतरण फलदायी हो सकता है. कांग्रेस का अभियान पूर्व सलाहकार कृष्णा अल्लावरू संभाल रहे. प्रशांत किशोर अब स्वतंत्र, 'स्वदेश' शैली में बिहार बदलने का दावा कर रहे हैं. कॉर्पोरेट-शैली में डेटा एनालिटिक्स से चुनावी खेल.

बिहार में मुद्दे प्रचुर हैं. भूमिहीनता, बेरोजगारी, प्रवास, पुलिस हिंसा. ये असमानता-जाति पदानुक्रम से जुड़े, प्रगतिशील गठबंधन की संभावना. केवल भाजपा और सीपीआई(एमएल) लिबरेशन बाकी से अलग दिखते हैं. आरजेडी में यादव (14%) को 36% टिकट; ऊपरी जातियां (10%) को 34%. कांग्रेस में ईबीसी (36%) को मात्र 10%. टिकट भूमि-धन-प्रभाव से. सीपीआई(एमएल) के दलित-ओबीसी उम्मीदवार संघर्ष-केंद्रित. आरजेडी लालू की 1990 वाली रणनीति में कैद है. सिवान में शहाबुद्दीन पुत्र को टिकट—कम्युनिस्ट विरोध का प्रतीक. कांग्रेस मंडल के चार दशक बाद भी सामूहिक राजनीति के लिए वैचारिकता विकसित न कर पाई.

बिहार की राजनीति का उभरता चिराग

शोभना के नायर ने हिन्दू में लिखा है कि चिराग पासवान का नया लुक—माथे पर सिंदूर की लकीर, बांह पर पवित्र धागे, रत्नों वाली अंगूठियां, साफ-सुथरे काले बाल, सफेद कुर्ता-नीली जींस—उनकी पुरानी छवि से बिल्कुल अलग है, जो गोरे बालों वाली धारियों, मांसल शरीर और चटकीले सूटों वाली थी. यह परिवर्तन उनकी राजनीतिक यात्रा का प्रतिबिंब है. पिता राम विलास पासवान के वारिस से लेकर जो लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के संस्थापक थे, 2021 में चाचा पशुपति नाथ पारस के चार लोकसभा सांसदों को लेकर चले जाने के बाद पार्टी के टूटे अवशेष को पुनर्निर्माण करने वाले नेता तक. आज वे कैबिनेट मंत्री हैं और बिहार राजनीति के प्रमुख खिलाड़ी भी. उनका जीवन बॉलीवुड पॉटबॉयलर जैसा है. वे स्वयं मजाक में कहते हैं, "मुझे बुरी फिल्म की पहचान है, मैंने एक में अभिनय किया." हिंदी सिनेमा में उनका डेब्यू फ्लॉप होने के बाद वे राजनीति में उतरे. फिल्मी करियर असफल रहा, लेकिन राजनीतिक रूप से उन्होंने मजबूती हासिल की.

शोभना के नायर आगे लिखती हैं कि आने वाले चुनावों में एनडीए के तहत लोजपा को 29 सीटें मिलीं—जेडीयू से नौ अधिक—और उनकी पसंद की 80% सीटें. गठबंधन में नीतीश कुमार, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे सहयोगी इस उदार हिस्सेदारी पर असंतुष्ट हैं. इस बार लोजपा पहली दफा नीतीश के साथ चुनाव लड़ रही है. पासवान उनका कोर वोटबैंक हैं, लेकिन 2007 में नीतीश ने महादलित श्रेणी बनाई, जिसमें पासवान को बाहर रखा.

चिराग खुद नीतीश सरकार के आलोचक रहे हैं. राम विलास के पुत्र चिराग अभी दलित नेता के रूप में पूरी तरह स्थापित नहीं, लेकिन कैबिनेट के पहले दो महीनों में सरकार ने उनके दो प्रमुख मुद्दों—दलितों में क्रीमी लेयर को कोटा से बाहर न करने और लेटरल एंट्री रोकने—पर समर्थन दिया. वे 'दलित नेता' टैग को सीमित मानते हैं, खुद को 'बहुजन नेता' कहना पसंद करते हैं, जो व्यापक जाति-समुदायों को आकर्षित करता है. 30 अक्टूबर को 43 वर्ष के होने वाले चिराग कहते हैं, "मैं छोटी दौड़ के लिए नहीं हूं, मेरे पास 30 वर्ष का राजनीतिक सफर बाकी है." बिहार की उलझी राजनीति में वे लंबा खेल खेलने को तैयार हैं.

नेपाल में बवंडर से बेअसर दरभंगा

बिजनेस स्टैंडर्ड में अदिति फडनीस लिखती हैं कि दरभंगा और जनकपुर (नेपाल) के बीच मात्र 80 किलोमीटर की दूरी है, लेकिन राजनीतिक हलचल में जमीन-आसमान का फर्क. नेपाल में जेन Z के नेतृत्व में उथल-पुथल मची हुई है—प्रधानमंत्री का इस्तीफा, पार्टियों का पतन—जबकि दरभंगा की शांति पर इसका कोई असर नहीं. यहां निराशा है, लेकिन विद्रोह नहीं. दरभंगा के उमा सिनेमा के पास तिरपाल से ढंकी दुकान चलाने वाले कैटरर सूरज राय 30 साल से आलू परांठे बेच रहे हैं. स्वच्छता के अभाव में भी अपनी 20x20 फुट दुकान पर गर्व करते हैं. राजनीति पर उनकी राय साफ: "मोदीजी को वोट दूंगा. नीतीशजी को सिर्फ मोदी के लिए."

अदिति बताती हैं कि जसवाल कुर्मी होने के बावजूद, वे नीतीश की जातिगत एकजुटता तोड़कर राष्ट्रीय हित चुनते हैं. रोजगार-बेहाली पर कंधे उचकाते हैं—मिथिलांचल में ये मुद्दे उथल-पुथल नहीं लाते. वहीं, 100 किमी दूर नेपाल में क्रांति का बवंडर है. नेपाली कहावत 'कुक्कुर मारने गए, बाघ मारकर आए' चरितार्थ हुआ.

जेन Z आंदोलन ने PM को हटाया, सभी दलों को हिला दिया. पूर्व PM प्रचंड ने अध्यक्ष पद छोड़ा, बाबूराम भट्टराई ने राजनीति त्यागी. सीपीएन एमाले के ओली और कांग्रेस के देउबा पर इस्तीफे का दबाव है. राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी के रवि लामिछाने जेल में हैं, पूर्व राजा ज्ञानेंद्र को सम्राट बनाने की कोशिशें नाकाम. समर्थक दुर्गा प्रसाई राजा नई पार्टी की योजना बना रहे हैं. जेन Z नेता मिराज ढुंगाना की मांगें साफ हैं- सीधे निर्वाचित कार्यपालिका, विदेशी नेपाली को वोट का अधिकार, भ्रष्टाचार पर कार्रवाई.

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कल्याण बनाम रिश्वत

तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि चुनावी घूस बहुत उपयुक्त शब्द है जिसका इस्तेमाल हमें करना चाहिए. राज्य में हाल के दिनों में भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या ये वास्तविक भ्रष्टाचार के उदाहरण हैं या राजनीतिक साजिशों का हिस्सा? विपक्ष की रणनीति साफ नजर आ रही है—सरकार की कल्याणकारी योजनाओं को पटरी से उतारने के लिए बेबुनियाद आरोप लगाना. राज्य सरकार ने गरीबों, किसानों और महिलाओं के लिए कई महत्वाकांक्षी योजनाएं शुरू की हैं, जिनका लक्ष्य आर्थिक उत्थान और सामाजिक न्याय है. लेकिन विपक्ष इन्हें चुनावी जुमला बताते हुए भ्रष्टाचार के ठप्पे लगाने में जुटा है.

तवलीन सिंह सवाल पूछती हैं कि क्या यह रिश्वतखोरी है या महज राजनीति? विपक्ष का तर्क है कि ये योजनाएं केवल वोट बैंक मजबूत करने के लिए हैं, जिसमें अरबों का काला धन डूब रहा है. वहीं, सरकार इन आरोपों को खारिज करते हुए कहती है कि विपक्ष अपनी असफलताओं को छिपाने के लिए ऐसी चालें चला रहा है.

एक ताजा उदाहरण लें—एक कल्याण योजना में 10 करोड़ के कथित घोटाले का शोर मचाया गया. लेकिन जांच रिपोर्ट ने साबित कर दिया कि धन सही लाभार्थियों तक पहुंचा. विपक्ष ने बिना सबूत के हंगामा किया, सच्चाई उजागर होते ही खामोश हो गया. ऐसे दर्जनों मामले हैं, जहां आरोप राजनीतिक लाभ के लिए लगाए गए, बिना किसी ठोस जांच के. यह लोकतंत्र की कमजोरी दर्शाता है. विपक्ष को सशक्त होना चाहिए, लेकिन बिना आधार के हमले नुकसानदेह हैं. सरकार को पारदर्शिता बढ़ानी चाहिए—ई-ट्रैकिंग, त्वरित ऑडिट और जन-सहभागिता से. जांच एजेंसियों को स्वतंत्र बनाना जरूरी है, ताकि सच्चा भ्रष्टाचार पकड़ा जाए, न कि राजनीतिक खेल बने. विपक्ष को भी आत्ममंथन करना चाहिए—रचनात्मक आलोचना से लोकतंत्र मजबूत होता है, न कि षड्यंत्रों से.

पीयूष पांडे: विज्ञापन जगत के अग्रदूत

हर्षा भोगले ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पीयूष पांडे से उनकी मुलाकातें कम ही हुईं, लेकिन हर बार क्रिकेट ही पहली चर्चा का विषय बनता. वे ओगिल्वी एंड माथर के लिए खेलते थे, इससे पहले राजस्थान के लिए. मैं रेडिफ्यूजन के लिए खेलता था. लेकिन असल में मैं जानना चाहता था कि वे विज्ञापन में क्या कर रहे हैं. "लीजेंड" शब्द आसानी से इस्तेमाल होता है, लेकिन पीयूष हर मायने में एक थे. वे अग्रदूत बने. जब मैं रेडिफ्यूजन में युवा था, तो क्रिएटिव डायरेक्टर कमलेश पांडे को हिंदी का बेहतरीन लेखक मानता था. वे अंग्रेजी में कॉपी लिखते, क्योंकि तत्कालीन विज्ञापन अंग्रेजी-माध्यम था—सुंदर, सूक्ष्म और कल्पनाशील. लेकिन हिंदी में वे अद्भुत थे.

पीयूष ने विज्ञापन को देसी बनाया; मैंने एक्स पर श्रद्धांजलि में इसे "जायका" कहा. वे गहरी जड़ों वाले—"हिंदी" वाले—थे लेकिन तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश जैसे क्षेत्रों की संस्कृति से परिचित भी थे.

हर्षा लिखते हैं कि पीयूष का परिवार अनोखा है. बहन ईला अरुण बालाड गातीं, भाई प्रसून पांडे सुंदर फिल्में बनाते. सभी भारतीय रीति-रिवाजों और उत्सवों से जुड़े. पीयूष के काम में भारत की खूबसूरती झलकती—एशियन पेंट्स, फेविकॉल का लंबा कैंपेन, कैडबरी के शानदार विज्ञापन, यहां तक कि आईपीएल का प्रारंभिक ऐड. पीयूष की संवेदनाएं विशुद्ध भारतीय थीं. उन्होंने देश के विज्ञापन को हमेशा के लिए बदल दिया—सब "भारत" के संदर्भ में सोचने लगे. बाद में दक्षिण में तमिल-तेलुगु, लेकिन पीयूष के कारण हिंदी सोच प्रमुख हुई. पीयूष ने भारतीय विज्ञापन को वैश्विक पटल पर पहुंचाया—माइंड-ब्लोइंग काम, लेकिन अवधारणाएं सरल. हर मुलाकात में महानता की सादगी समझ आती. वे वैश्विक नाम बने, लेकिन भारतीयता से जुड़े रहे. उनका निधन भारतीय विज्ञापन के लिए अपूरणीय क्षति है.

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