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संडे व्यू: आधी सदी बाद भी ‘शोले’ का दबदबा, भारत के लिए अमेरिका-चीन चुनौतीपूर्ण

पढ़ें इस रविवार अतानु बिस्वास, विवेक मुखर्जी, रामचंद्र गुहा, अरुंधति रॉय, सुजान चेनॉय के विचारों का सार.

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<div class="paragraphs"><p>पढ़ें इस रविवार अतानु बिस्वास, विवेक मुखर्जी, रामचंद्र गुहा, अरुंधति रॉय, सुजान चेनॉय के विचारों का सार.</p></div>
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पढ़ें इस रविवार अतानु बिस्वास, विवेक मुखर्जी, रामचंद्र गुहा, अरुंधति रॉय, सुजान चेनॉय के विचारों का सार.

(फोटो: द क्विंट)

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आधी सदी के बाद भी पॉप कल्चर पर ‘शोले’ का दबदबा

अतानु बिस्वास ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि ‘शोले’ अपनी 50वीं वर्षगांठ पर नए संस्करण में पुनः रिलीज हुआ है. इसमें बिना सेंसर वाला अंत है जहां ठाकुर गब्बर को मारता है. यह पुनः रिलीज शोले की समयातीत अपील को दर्शाता है, जिसके संवाद (“ये हाथ हमको दे दो ठाकुर”) और किरदार (जय, वीरू, गब्बर) भारत की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं. आर.डी. बर्मन का साउंडट्रैक और वेस्टर्न-समुराई प्रभावों वाला कथानक आज भी प्रेरित करता है. शोले 2 की चर्चा रोमांचक मगर जोखिम भरी है.

अतानु बिस्वास लिखते हैं कि सलमान खान ने रामगढ़ की अगली पीढ़ी या किरदारों के भाग्य पर आधारित सीक्वल की इच्छा जताई, पर कोई ठोस योजना नहीं है. राम गोपाल वर्मा ने जैकी चैन को गब्बर के बेटे के रूप में प्रस्तावित सीक्वल का जिक्र किया, जो साकार नहीं हुआ.

शोले की सांस्कृतिक पकड़—मिनर्वा थिएटर में पांच साल का प्रदर्शन और बीबीसी इंडिया का “मिलेनियम की फिल्म” खिताब—सीक्वल को आकर्षक बनाती है, पर मूल की जादू को दोहराना मुश्किल है. हेमा मालिनी इसे असंभव मानती हैं.

2025 का पुनः रिलीज और 2004, 2014 की सफलता से शोले का बॉक्स ऑफिस आकर्षण साबित होता है. शोले 2 लाभ कमा सकता है, पर आधुनिक दर्शकों की मांगों को पूरा करना होगा. प्रशंसक-निर्मित ट्रेलर नए रामगढ़ की कल्पना करते हैं, पर X पोस्ट्स से मिले-जुले विचार सीक्वल की आवश्यकता पर सवाल उठाते हैं. शोले की पूर्णता को कमजोर करने का जोखिम है. इसकी सांस्कृतिक विरासत को सीक्वल की जरूरत नहीं; यह एक मील का पत्थर है. 

कुत्तों के साथ सहअस्तित्व सुनिश्चित हो

विवेक मुखर्जी ने द हिन्दू में लिखा है कि 11 अगस्त, 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के सभी आवारा कुत्तों को पकड़कर आश्रयों में बंद करने का आदेश दिया था जो कानूनी रूप से संदिग्ध और नैतिक रूप से गलत था. यह आदेश वास्तविक संकटों से ध्यान भटकाने का प्रयास था. 22 अगस्त को कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. यह आदेश लाखों संवेदनशील प्राणियों को दुख और मृत्यु की सजा देता, जबकि एनिमल बर्थ कंट्रोल (ABC) नियम, 2023 जैसे मानवीय समाधान लागू नहीं हो रहे. आश्रयों में कुत्तों को बंद करना भारत जैसे देश में अव्यवहारिक है.

विवेक मुखर्जी लिखते हैं कि दिल्ली में 5-10 लाख आवारा कुत्तों के लिए न तो पर्याप्त आश्रय हैं, न ही फंडिंग या प्रशिक्षित कर्मचारी. अमेरिका में भी “पाउंड” सिस्टम विफल रहा, जैसा कि समाजशास्त्री लेस्ली इरविन ने बताया. डेविड ट्यूबर की 1999 की स्टडी बताती है कि आश्रयों में भीड़भाड़ से कुत्तों में तनाव, आक्रामकता और बीमारियां बढ़ती हैं.

नसबंदी, टीकाकरण और कुत्तों को मूल स्थान पर छोड़ना उचित है जिसने देहरादून जैसे शहरों में कुत्तों की संख्या और रेबीज को कम किया. फिर भी, दिल्ली में नगर निगमों की उदासीनता से यह कार्यक्रम प्रभावी नहीं हो सका. 22 अगस्त को जस्टिस विक्रम नाथ की बेंच ने आदेश पर रोक लगाई, नसबंदी और टीकाकृत कुत्तों (रेबीज या आक्रामक को छोड़कर) को छोड़ने की अनुमति दी, और फीडिंग जोन व गोद लेने की योजनाएं बनाईं. लेकिन अंतिम सुनवाई में मूल समस्याएं—नगर निगमों की कमी, पशु चिकित्सा ढांचे की कमी और जनता की गलतफहमियां—हल होनी चाहिए. नसबंदी, टीकाकरण और सामुदायिक देखभाल ही समाधान है. नागरिकों को वैज्ञानिक और दयालु नीतियों की मांग करनी होगी, ताकि सह-अस्तित्व सुनिश्चित हो, न कि कैद. 

क्रिकेट में ‘विश्व गुरू’

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ मे लिखा है कि जब से नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बने, बीजेपी और आरएसएस ने भारत को ‘विश्व-गुरु’ बनाने की घोषणा की. लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विफलताओं के बावजूद, क्रिकेट में भारत सबसे शक्तिशाली है, हालांकि इसके कार्य खेल के हित में हों, यह सवाल है. 2017 में, मैं सुप्रीम कोर्ट की प्रशासक समिति में था, जो बीसीसीआई में जवाबदेही लाने की असफल कोशिश कर रही थी. बीसीसीआई अन्य बोर्डों पर हावी होने को उत्सुक थी. एक इतिहासकार के रूप में, मैंने चेतावनी दी थी कि अतीत में इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया का वर्चस्व क्रिकेट के लिए हानिकारक था, और भारतीय वर्चस्व भी होगा. 

गुहा लिखते हैं कि रॉड लायल की द क्लब बताती है कि 1909 में स्थापित इंपीरियल क्रिकेट कॉन्फ्रेंस (आईसीसी) पर इंग्लैंड और श्वेत उपनिवेशों का कब्जा था. भारत, पाकिस्तान, वेस्टइंडीज को तिरस्कार सहना पड़ा. 1950 के दशक में, स्वतंत्र देशों ने आईसीसी को लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश की. 1965 में ‘इंपीरियल’ ‘इंटरनेशनल’ हुआ, और 2005 में मुख्यालय दुबई चला गया.

हाल के दशकों में, भारत ने बीसीसीआई की वित्तीय ताकत से आईसीसी पर कब्जा किया. लायल की किताब में खामियां हैं, जैसे 1983 विश्व कप की अनदेखी. लेकिन बीसीसीआई की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं स्पष्ट हैं. शशांक मनोहर एकमात्र प्रशासक थे जो बीसीसीआई के संकीर्ण हितों से परे देखते थे. 2024 में जय शाह का आईसीसी चेयरमैन बनना राष्ट्रवादी और कॉरपोरेट एजेंडों को दर्शाता है. टोनी ग्रेग ने 2012 में क्रिकेट की भावना अपनाने की बात कही, पर बीसीसीआई ने वित्तीय शक्ति से आईसीसी को नियंत्रित किया. 

भारत का यह वर्चस्व दक्षिण अफ्रीका, वेस्टइंडीज और उपमहाद्वीप के अन्य देशों को अलग कर रहा है. विश्व टेस्ट चैंपियनशिप में भारत की असफलता (2021, 2023 में हार, 2025 में अयोग्यता) के बावजूद, बीसीसीआई विश्व-बुली बन गया है. भारत को क्रिकेट की भावना अपनानी होगी, वरना यह न तो खेल की, न ही प्रशंसकों की सेवा करेगा. 

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अरुंधति रॉय की कहानी उनकी ही जुबानी- मैंने मां को छोड़ा ताकि उनसे प्यार कर सकूं

अरुंधति रॉय ने टाइम्स ऑफ इंडिया में अपनी मां के साथ रिश्ते को लेकर भावुक लेख लिखा है. वह लिखती हैं कि सितंबर में, जब मानसून हट चुका था और केरल पहाड़ों व समुद्र के बीच चमक रहा था, मेरी मां ने विदा लिया. वह परिदृश्य—पहाड़, नदियां, सिमेंट से ढके खेत, और भयानक बिलबोर्ड्स—उनके बिना अधूरा था. वह मेरे दिमाग में सबसे ऊंची, नदी से खतरनाक, समुद्र से अधिक मौजूद थीं. बिना सूचना के उन्होंने विदा लिया, हमेशा की तरह अप्रत्याशित.  चर्च और उनका पुराना विवाद था. हमारे कस्बे में उनकी प्रतिष्ठा को देखते हुए, हमें उनके लिए उचित अंतिम संस्कार करना था. स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों ने उनके निधन को कवर किया. इंटरनेट पर उनके स्कूल के छात्रों और केरल में ईसाई महिलाओं के लिए समान विरासत अधिकारों की उनकी कानूनी जीत की प्रशंसा उमड़ी.

अरुंधति लिखती हैं कि सौभाग्य से, उनके निधन के दिन स्कूल बंद था, जिसने विदाई को आसान बनाया. उनकी मृत्यु की चर्चा मेरे तीन साल की उम्र से शुरू हुई थी. वह तब तीस की थीं, अस्थमा से पीड़ित, कंगाल, और मेरे पिता को छोड़ चुकी थीं.

89 की उम्र में उनकी मृत्यु तक, हमने उनकी वसीयत पर बार-बार चर्चा की. उनकी बार-बार की चेतावनियों ने हमें लापरवाह बना दिया था. उनकी मृत्यु ने मुझे तोड़ दिया. मेरे भाई ने कहा, “वह तुम्हारे साथ सबसे खराब थीं.” शायद, पर मैंने बचपन को पीछे छोड़ दिया था.  18 की उम्र में मैंने घर छोड़ दिया, दिल्ली के स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर में थी.

1976 में, 16 की उम्र में, मैं निजामुद्दीन स्टेशन पहुंची, बिना हिन्दी ज्ञान के. दिल्ली एक अलग देश थी. मैंने मां को छोड़ा ताकि उनसे प्यार कर सकूं. हमने सालों तक बात नहीं की. हमने एक झूठ गढ़ा: “उन्होंने मुझे जाने के लिए पर्याप्त प्यार किया.” यह मेरे उपन्यास की समर्पणा थी.  पुनर्मिलन के बाद, मैं उनसे नियमित मिली. हमारे रूढ़िवादी कस्बे में, वह एक गैंगस्टर की तरह थीं—प्रतिभाशाली, सनकी, दयालु, और क्रूर. उनकी मातृत्व के प्रति क्रोध मुझे आकर्षित करता था. यह नग्न क्रोध, संदर्भ से मुक्त, मुझे हंसाता था. 

भारत के लिए अमेरिका-चीन दोनों चुनौतीपूर्ण

सुजान चेनॉय ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की हालिया नीतियों ने भारत में राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक उथल-पुथल मचाई. ठीक उसी तरह जैसे  2020 में गलवान में चीन की कार्रवाइयों ने उधम मचाया था. भारत को अमेरिका और चीन दोनों के साथ अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है. विडंबनापूर्ण रूप से, चीन भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का समर्थन कर रहा है, जबकि पाकिस्तान ने ट्रम्प को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया और क्रिप्टोकरेंसी व खनिज सौदों की पेशकश की.  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों, डेयरी और मत्स्य क्षेत्र के हितों की रक्षा का संकल्प जताया.

सुजान चेनॉय आगे लिखते हैं कि अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, 2024-25 में 131.84 बिलियन डॉलर के व्यापार के साथ, जिसमें भारत को 41.18 बिलियन का अधिशेष मिला. भारत के 20% निर्यात, जिनमें 80% एमएसएमई से, अमेरिका जाते हैं. 50% शुल्क संवेदनशील क्षेत्रों को प्रभावित कर सकते हैं. अमेरिका से 30% प्रेषण (135 बिलियन डॉलर) आता है, और वीजा प्रतिबंध से यह घट सकता है, जिससे सेवा क्षेत्र (जीडीपी का 50% से अधिक) प्रभावित होगा. 2025 में F-1 वीजा में 44% कमी से STEM छात्रों को नुकसान होगा.  LEMOA, COMCASA, BECA जैसे रक्षा समझौतों से सहयोग बढ़ा है. SOSA पूरा हुआ, और RDP संबंधों को मजबूत कर सकता है.

अमेरिकी हथियार भारत की रक्षा क्षमता बढ़ाते हैं, पर विश्लेषक कहते हैं कि भारत बिना अमेरिका के चीन को नहीं रोक सकता. भारत की बहुध्रुवीयता ट्रम्प के वैश्विक प्रभुत्व की इच्छा से टकरा रही है. “मेक इन इंडिया” MAGA से विरोधाभासी नहीं है. रूसी तेल और हथियारों का हिस्सा 80% से 34% हुआ, पर पूरी तरह छोड़ना मुश्किल है. BRICS में भारत की मॉडरेशन की भूमिका को निशाना बनाना विडंबनापूर्ण है.  US-India COMPACT और TRUST पहल शुरू हुए, पर ट्रम्प का तकनीकी-राष्ट्रवाद और शुल्क विवाद चुनौती हैं. ट्रम्प 10 मई के भारत-पाकिस्तान युद्धविराम का श्रेय लेना चाहते हैं, पर यह मध्यस्थता नहीं थी. क्वाड में भारत की भागीदारी बढ़ाने का दबाव है. भारत और अमेरिका को व्यापार सौदे के जरिए इंडो-पैसिफिक में शांति और सुरक्षा के लिए साझेदारी बनाए रखनी होगी. 

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