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मैं काफी लंबे वक्त से कानूनी मसलों और पब्लिक पॉलिसी पर काम कर रहा हूं. इस दौरान एक चीज जो मुझे लगातार खटकती रही, वह है राजनीतिक प्रशासकों की तरफ से उचित सलाहों का न मिलना.
बड़े अधिकारी भी कई बार गलत दिशा में भटक जाते हैं, नतीजन गलत फैसले लिए जाते हैं. इससे पता चलता है कि सरकार में एकजुटता और इच्छाशक्ति की कमी है.
निचले सरकारी स्तर पर ही अधिकारियों की सीमित समझ पब्लिक पॉलिसी के रूप में लाखों लोगों पर थोप दी जाती है. अब चाहें ये नीतियां अच्छी हों या बुरी, बाद में सरकार को इनका बचाव करना ही पड़ता है, क्योंकि यह इसे मंजूर करने वाले लोगों की प्रतिष्ठा का मुद्दा बन जाता है.
इस कड़वी सच्चाई का अहसास मुझे 7 जून को हुआ, जब मैंने एक कानूनी मसले पर डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग का ऑफिस मेमोरेंडम देखा. मेमोरेंडम में बड़ी ही चालाकी से मौजूदा प्रशासन की कोशिशों को कम करके दिखाने की कोशिश की गई थी.
इसमें कानून मंत्री के प्रयासों और कानूनी रायों को भी खारिज करने का प्रयास किया गया था.
कई मौकों पर कोर्ट ने ऐसे आदेश दिए जो डीओपीटी की नीतियों के खिलाफ थे. कानून मंत्रालय का कहना था कि कोर्ट ने फैसलों को बिना कोई अपील दायर किए तुरंत लागू किया जाना चाहिए. अब डीओपीटी ने इसके लिए एक अनोखा हल ढूंढ निकाला है.
डीओपीटी अब मेमोरेंडम के पैराग्राफ 1 (A) की एक सुरक्षित लाइन का हवाला देते हुए कानून मंत्रालय के कानूनी मामलों के विभाग को रेफर ही नहीं कर रहा है. अगर डीओपीटी को लगता है कि फैसला उसकी ‘नीतियों के खिलाफ’ है, तो वह अपील भी दायर करेगा.
इसका जाहिर तौर पर यह मतलब है कि कर्मचारियों के हक में कोर्ट और ट्राइब्यूनल के दिए हर फैसलों के खिलाफ दोबारा अपीलें दायर की जाएंगी.
पहली बात तो यह कि फैसलों के खिलाफ दोबारा अपील तभी दायर की जाती होगी जब डिपार्टमेंट फैसलों को ‘नीतियों के खिलाफ’ बताते होंगे. इससे वास्तविक हालात का साफ पता चलता है कि कर्मचारियों से जुड़े मामले किसी ठोस वजह से नहीं बल्कि अहंकार और प्रतिष्ठा को सवाल बनाकर कोर्ट में घसीटे जाते हैं.
और जहां तक कानूनी मसलों की बात है तो सरकार हमेशा ऐक्शन लेने को तैयार रही है. कुछ मौकों पर जो इसे रोकता है, वह है लीगल अफेयर्स डिपार्टमेंट द्वारा दी जाने वाली बेबाक सलाह.
अब चूंकि मामलों को कानून मंत्रालय को रेफर ही नहीं किया जाता, प्रधानमंत्री और कानून मंत्री की कोशिशों को किनारे लगाते हुए अपनी मनमर्जी की जाती है.
हालांकि इस मसले का समाधान निकालना कोई आसान काम नहीं है, लेकिन इस दिशा में कुछ बुनियादी कदम उठाए जा सकते हैं. जैसे कि,
हमारी गवर्नेंस और नीतियां लंबे वक्त से बड़े पदों पर बैठे लोगों के हाथों में हैं. ऐसे हालात में, हमारे मंत्रियों को यह समझना जरूरी होगा कि नीचे के अधिकारी लोगों के हाथ में वे ताकत नहीं जाने देना चाहेंगे. ऐसे अधिकारियों को लालफीताशाही और लाइसेंस राज का इस्तेमाल करने में एक तरह की खुशी होती है. उन्हें नेताओं से अपनी पसंद के फैसले करवाने में खुशी मिलती है. ऐसे लोगों पर भरोसा करना हमारे देश और लोकतंत्र के साथ सबसे बड़ा नुकसान होगा.
भारत में मजबूत और लोगों के हक में बनी नीतियों की तूती बोलनी चाहिए. इसमें मजबूत इरादों वाले पॉलिटिकल एक्जिक्युटिव्स का नजरिया होना चाहिए न कि दिल्ली के किसी कमरे में बैठे बोर हो रहे बाबुओं के विचार, जो अपनी थोड़ी सी समझ हम पर थोप देना चाहते हैं.
जन प्रतिनिधियों को ऐसे लोगों पर भरोसा करने से पहले अपना दिमाग जरूर इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि लोग सवाल उनसे पूछेंगे, बाबुओं से नहीं. राजनीतिक प्रशासकों को अब निश्चित तौर पर जिम्मेदारी अपने हाथ में लेनी चाहिए.
(लेखक पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में वकील हैं. वह ब्रसेज्ल में इंटनैशनल सोसायटी फॉर मिलिटरी लॉ ऐंड द लॉ ऑफ वॉर के सदस्य भी हैं)
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