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धर्म परिवर्तन विरोधी कानून-सिर्फ हुड़दंगियों को हिंसा की इजाजत देते हैं

कोई व्यक्ति शिव के बाद विष्णु भक्त बन सकता है, लेकिन जिला अधिकारी की मंजूरी बिना अल्लाह को नहीं मान सकता!

संजय हेगड़े
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>धर्म परिवर्तन विरोधी कानून- सिर्फ हुड़दंगियों को हिंसा की इजाजत देते हैं</p></div>
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धर्म परिवर्तन विरोधी कानून- सिर्फ हुड़दंगियों को हिंसा की इजाजत देते हैं

(फोटो- क्विंट)

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ब्रिटिश दार्शनिक और लेखक फ्रांसिस बेकन ने कभी कहा था, “बहुत बोलने वाला जज, एक बेसुरे मजीरे जैसा होता है.” चौबीसों घंटे, सातों दिन वाले टेलीविजन और सोशल मीडिया के दौर में, सुप्रीम कोर्ट के किसी जज की हर टीका-टिप्पणी लोगों के बीच चर्चा का विषय बन जाती है.

बीजेपी के प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका की सुनवाई के दौरान जस्टिस एम.आर. शाह ने कहा:

"जहां तक धर्म के कथित परिवर्तन का मुद्दा है, अगर यह सही पाया जाता है, तो यह एक बहुत ही गंभीर मुद्दा है जो अंततः राष्ट्र की सुरक्षा के साथ-साथ नागरिकों की धर्म और विवेक की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है. इसलिए, यह बेहतर होगा कि केंद्र सरकार अपना रुख स्पष्ट करे और इस बात का जवाब दाखिल करे कि इस तरह के जबरन, बल, प्रलोभन या धोखाधड़ी के माध्यम से धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए संघ और/या अन्य द्वारा क्या कदम उठाए जा सकते हैं."

फिर नोएडा के शोरगुल करने वाले चैनलों ने अपना फर्ज निभाते हुए इन टिप्पणियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया और व्हॉट्सएप फॉरवर्ड्स, सोशल मीडिया हैशटैग्स के जरिए इन्हें दोहराया गया. इन टिप्पणियों ने उसी बात को पुख्ता किया कि मूल भारतीय धर्मों को अब्राहमिक धर्मों से खतरा है.  

यूं यह घबराहट कोई नई बात नहीं है. संविधान सभा में जब धर्म के प्रचार को मौलिक अधिकार बनाने पर चर्चा हो रही थी तो लोकनाथ मिश्र जैसे लोग यह आशंका जता चुके थे. तब मिश्र ने कहा था:

“अगर लोग अपने धर्म का प्रचार करना चाहें, तो उन्हें करने दें. मेरी प्रार्थना यह है कि संविधान इसे मौलिक अधिकार के रूप में न रखे और न इसे प्रोत्साहित करे. मौलिक अधिकार अपरिहार्य हैं और एक बार उन्हें स्वीकार कर लिया जाएगा पर यह लोगों के बीच नफरत पैदा करेगा. इसलिए मैं कहता हूं, हमें धर्म से संबंधित अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए. धर्म खुद अपने को दुरुस्त कर लेगा. कम से कम अनुच्छेद 19 में 'प्रचार' शब्द को छोड़ दें. सभ्यता में तेजी से परिवर्तन हो रहा है. सावधान रहिए और खुद को बचाने की कोशिश करते रहिए.”

धर्म परिवर्तन विरोधी कानूनों का इतिहास

आखिरकार संविधान सभा ने बहुत सूझबूझ से 'प्रचार' शब्द का इस्तेमाल किया और भारतीयों के अपने धर्म को मानने, उसका प्रचार करने और उसका पालन करने के हक को मौलिक अधिकार का अंग बनाया.  

इस स्पष्ट संवैधानिक प्रावधान के बावजूद ओड़िशा और मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकारों ने ही सबसे पहले धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बनाए और विडंबना ही है कि उन्हें '”धर्म की स्वंत्रता” के कानून नाम दिया.  

तब श्रीमती यूलिता हाइड और अन्य बनाम ओड़िशा राज्य (1972) मामले में ओड़िशा हाई कोर्ट ने ओड़िशा धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम, 1967 को असंवैधानिक ठहराया था.

हालांकि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने रेव स्टैनिस्लास बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1977) मामले में ऐसे ही एक्ट को बहाल रखा था. दोनों फैसलों की अपील सुप्रीम कोर्ट में की गई और 17 जनवरी, 1977 को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारतीय संविधान में 'प्रचार' शब्द में, प्रचारक द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को अपने धर्म में परिवर्तित करने का अधिकार शामिल नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने तर्क में इस तथ्य पर जोर दिया था कि अनुच्छेद 25(1) के तहत 'प्रचार' शब्द किसी व्यक्ति को इस बात का अधिकार नहीं देता कि वह किसी अन्य व्यक्ति को अपने धर्म में धर्मांतरित करे. यह शब्द इस बात का अधिकार देता है कि लोगों को अपने धार्मिक विचारों और परंपराओं का प्रचार या प्रसार करने का अधिकार है, वह भी “विवेक की स्वतंत्रता” को ध्यान में रखते हुए.

अदालत ने फैसला सुनाया था:

"इस बात की सराहना की जानी चाहिए कि अनुच्छेद में निहित धर्म की स्वतंत्रता केवल एक धर्म से संबंधित गारंटी नहीं है, बल्कि इसमें सभी धर्म समान रूप से शामिल हैं, और इसे किसी व्यक्ति द्वारा उचित तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है, अगर वह उसे ऐसे इस्तेमाल करे जोकि दूसरे धर्म का पालन करने वाले व्यक्तियों की स्वंत्रता के अनुरूप हो. एक के लिए जो स्वतंत्रता है, वही दूसरे के लिए स्वतंत्रता है, बराबर मात्रा में, और इसलिए किसी व्यक्ति को अपने धर्म में परिवर्तित करने का मौलिक अधिकार जैसी कोई चीज नहीं हो सकती है.”

तब से यह औपचारिक रूप से समझा जाने लगा है कि संविधान लोगों को इस बात की इजाजत तो देता है कि वे अपने धर्म का प्रचार और प्रचार करें, लेकिन वे दूसरों का अपने धर्म में धर्मांतरण नहीं करा सकते.

लेकिन असल में 'प्रचार' का क्या अर्थ है?

स्टैनिस्लास मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत ही आपत्ति भरा है.

यह कहना कि आप किसी व्यक्ति को अपने धर्म का उपदेश दे सकते हैं लेकिन आप औपचारिक रूप से उसका उस धर्म में स्वागत नहीं कर सकते या उन्हें अपने विश्वास का अनुयायी नहीं बना सकते, यह प्रचार के अधिकार का अधूरा प्रयोग ही है.

'प्रचार' शब्द 'prɒpəɡeɪt' से लिया गया है जो एक लैटिन शब्द है. जबकि इस शब्द के कई अर्थ हैं, लेकिन जो अर्थ हमारे लिए महत्वपूर्ण है, वह यह है "एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति या एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रसारित करना या फैलाना; आगे ले जाना; फैलाना; विस्तार करना; किसी रिपोर्ट का प्रचार करना; ईसाई धर्म का प्रचार करना." जैसा कि सेंचुरी डिक्शनरी के अंक छह में लिखा है.

इस तरह संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत किसी धर्म का प्रचार करने की आजादी में यह आजादी भी शामिल है कि कोई व्यक्ति अपनी पसंद का धर्म माने और उसका पालन करे.  

हमें यह भी पता होना चाहिए कि स्टैनिस्लास का फैसला आपातकाल के दौरान आया था, जब मौलिक अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट की सोच बहुत संकुचित थी, जैसा कि एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) मामले में भी देखने को मिला था.

एडीएम जबलपुर मामले में अदालत ने कहा था कि मौलिक अधिकार केवल संविधान की देन है और उन्हें आपातकाल के दौरान कभी भी खत्म किया जा सकता है.

आपातकाल के तुरंत बाद मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के फैसले में यह नजरिया छिन्न-भिन्न हो गया. इस फैसले में संविधान के अनुच्छेद 21 को अनुच्छेद 14 और 19 से जोड़ा गया और उसका दायरा बढ़ाया गया.

इसने संविधान के भाग III को मजबूत किया और मौलिक अधिकारों को हर नागरिक का अंतर्निहित अधिकार बनाया, न कि सिर्फ राज्य द्वारा दिया जाने वाला विशेषाधिकार. 2020 में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम सुधीर कुमार सिंह मामले में कहा भी कहा था कि इस फैसले के बाद से "बहुत पानी बह चुका है". यह फैसला तब दिया गया था “जब आपातकाल के दौरान लोगों के मौलिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया था."
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हाल के दिनों में जस्टिस के.एस. पुट्टास्वामी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2018) मामले में सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों ने पसंद की स्वायत्तता, यानी ऑटोनॉमी ऑफ च्वाइस को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में शामिल किया है. यह मामला प्राइवेसी के हक से संबंधित था.

जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में प्राइवेसी को "अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार" माना और कहा कि यह "इसमें किसी आस्था को चुनने की क्षमता और दुनिया के सामने उस पसंद को जाहिर करने या जाहिर न करने की आजादी निहित है."

"इन तरीकों से प्राइवेसी आजादी को आगे बढ़ाती है और स्वतंत्रता के इस्तेमाल के लिए मूलभूत है."

इसके अलावा उन्होंने कहा कि "जबकि स्वतंत्र रूप से" धर्म को मानने, उसका पालन करने और प्रचार करने का अधिकार "अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत मिलने वाले मुक्त भाषण के अधिकार का एक अंग हो सकता है, किसी धर्म को मानने या उसकी आस्था का मामला, किसी व्यक्ति के विवेक से जुड़ा होता है, जोकि विशुद्ध रूप से निजी वैचारिक प्रक्रिया के दायरे में आता है, और स्वतंत्रता का एक पहलू है."

इस तरह जस्टिस चंद्रचूड़ ने प्राइवेसी की हिफाजत पर जोर दिया था ताकि यह सुनिश्चित हो कि धर्म की आजादी का इस्तेमाल करने में स्वाधीनता और गरिमा की भी रक्षा हो. इसलिए स्टैनिस्लास का फैसला एक संवैधानिक कालभ्रम है जिसकी समीक्षा सुप्रीम कोर्ट को खुद करनी चाहिए- शायद उसकी एक बड़ी बेंच को.

बड़े पैमाने पर धर्मांतरण? ऐसे दावों को पुख्ता करने के लिए कोई डेटा नहीं

सुप्रीम कोर्ट को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि किसी धर्म की कीमत पर दूसरे धर्म का विकास हुआ, इस तर्क को पुख्ता करने के लिए कोई अनुभवजन्य आंकड़ा नहीं है. आजादी के कुछ ही समय बाद धर्म के आधार पर जनसंख्या के फैलाव में ज्यादा बदलाव नहीं देखा गया है.

1951 की जनगणना के हिसाब से हिंदुओं की संख्या 35 करोड़ (84.1%), मुसलमानों की 3.54 करोड़ (9.8%), ईसाइयों की 83 लाख (2.3%), और सिखों की 68.6 लाख (1.89%) थी. इसके बाद 2011 की जनगणना बताती है कि देश में हिंदू 96.63 करोड़ (79.8%), मुसलमान 17.22 करोड़ (14.2%), ईसाई 2.78 करोड़ (2.3%) और सिख 2.08 करोड़ (1.7%) हैं. .

हिंदू और मुसलमान आबादी की विकास दर का अलग-अलग होना, धर्मांतरण की देन नहीं कही जा सकती, क्योंकि इसके कई दूसरे कारण हैं जैसे आर्थिक विकास, और गरीब वर्गों के परिवारों में ज्यादा बच्चे होना.  

फिर धर्म परिवर्तन विरोधी कानूनों का उद्देश्य क्या है?

मैं किस धार्मिक रीति का पालन करूं या किस परंपरा का अनुयायी बनूं, यह चुनने का अधिकार, व्यक्तिगत पसंद का मामला है, और उसका उस बड़े समुदाय पर कोई असर नहीं होना चाहिए जिस बड़े समुदाय का इससे कोई लेना-देना नहीं है. अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप के समय, जब मुसलमानों पर प्रतिबंध लगाया गया था, पूर्व विदेश मंत्री मेडेलिन अलब्राइट ने लिखा था, "मेरा लालन-पालन कैथोलिक के तौर पर किया गया था, मैं एपिस्कोप्लियन बनी और बाद में पता चला कि मेरा परिवार यहूदी था. मैं एकजुटता दिखाते हुए मुसलमान के रूप में खुद को रजिस्टर कराने के लिए तैयार हूं.”

एक व्यक्ति की कई मान्यताएं हो सकती हैं क्योंकि शायद वह खुद को किसी एक पहचान में समेट न पाता हो. यह भी मुमकिन है कि कोई शख्स पहले किसी विशेष ईश्वर को मानता हो, फिर अज्ञेयवादी बन जाए और उसके बाद नास्तिक. और एक समय के बाद वह किसी अन्य परंपरा में आध्यात्मिकता को स्वीकार कर ले.  

धर्म की आजादी से जुड़े कानूनों का कोई मकसद नहीं, सिर्फ इसके कि वह विजलांटीज़ यानी हुड़दंगियों को इस बात की खुली छूट दे देते हैं कि वे दूसरों की धार्मिक पसंद में अपनी टांग अड़ाएं.

इवेंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया बनाम राज्य (2012) के मामले में जस्टिस दीपक गुप्ता के तहत हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने 2012 में हिमाचल प्रदेश धर्म की स्वतंत्रता एक्ट के सेक्शन 4 के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश धर्म की स्वतंत्रता नियम, 2007 के नियम 3 और 5 को रद्द कर दिया था. इनके तहत धर्मांतरण की तारीख से 30 दिन पहले जिला मेजिस्ट्रेट को अनिवार्य रूप से नोटिस देने का प्रावधान किया गया था. ऐसा न करने पर जुर्माना लगता था. तब अदालत ने कहा था कि ज्यादातर गरीबों और दलितों का “जबरदस्ती, धोखे से, या लालच देकर” धर्म परिवर्तन किया गया था.  

दूसरा पहलू क्षेत्राधिकार से जुड़ा हुआ था. इस पर अदालत ने प्रासंगिकता के साथ पूछा था, “अगर धर्म परिवर्तन दिल्ली में वैध है तो क्या होगा?” इस फैसले के बावजूद हिमाचल प्रदेश में बीजेपी सरकार ने हिमाचल प्रदेश धर्म की स्वतंत्रता एक्ट, 2019 के जरिए उन्हीं कानूनों को लागू किया और 2022 में उसमें संशोधन करके, कड़ी सजा का प्रावधान भी किया. जैसे 2022 के संशोधन कानून में अधिकतम सजा को सात वर्ष से बढ़ाकर 10 वर्ष किया गया है और इसके अलावा जुर्माना भी लगाया गया है. सात वर्ष की सजा का प्रावधान 2019 के एक्ट में था.

एक बहुसांस्कृतिक देश में, जहां बहुसंख्यक परंपरा बहुदेववादी है, कोई व्यक्ति बिना किसी कानूनी रुकावट के शिव की पूजा कर सकता है, और उसके बाद विष्णु का भक्त बन सकता है. लेकिन वही व्यक्ति जिला अधिकारी को सूचना दिए बिना, अपना विचार और मत बदलते हुए अल्लाह, सर्वशक्तिमान ईश्वर (यानी गॉड ऑलमाइटी), यावाहेह या पास्ताफरेन्स के फ्लाइंग स्पेगेटी मॉन्स्टर की पूजा नहीं कर सकता.

क्या नागरिकों की धार्मिक आस्था राज्य के लिए मायने रखती है? क्या नागरिक उसी आस्था को मानने के लिए मजबूर हैं जिसे उनके माता-पिता मानते हैं और अगर वे अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनते हैं तो क्या उन्हें राज्य की तरफ से रुकावट और हुड़दंगियों की हिंसा का सामना करना होगा?

भारतीय संविधान के निर्माता डॉ बीआर अंबेडकर ने 1935 में येओला में कहा था कि- "हालांकि मैं एक हिंदू पैदा हुआ क्योंकि इस पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं था, लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मैं एक हिंदू के तौर पर नहीं मरूंगा." उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ वक्त पहले 1956 में बौद्ध धर्म में धर्मांतरण कर लिया था.

क्या अंबेडकर के संविधान को विरासत में पाने वाले, दोयम दर्जे के नागरिक हैं? उन्हें सिर्फ उन देवताओं की पूजा करने की इजाजत है जिसे सरकारी अधिकारी मंजूर करें? जैसा कि महान सूफी कवि बुल्ले शाह ने लिखा है, "ऐ लोगों, तुम्हारा क्या, मैं जानूं, मेरा खुदा जाने."

(संजय हेगड़े भारतीय सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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Published: 26 Nov 2022,07:51 PM IST

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