Members Only
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Hindi Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019गुजरात के नमक किसान: जमीन कंपनियों को मिली, खुद बन गए बेबस मजदूर

गुजरात के नमक किसान: जमीन कंपनियों को मिली, खुद बन गए बेबस मजदूर

गुजरात में नमक किसानों की बदहाली पर सीएजी रिपोर्ट ने चौंकाने वाले खुलासे किए हैं.

अनिल चमड़िया
नजरिया
Published:
(फोटो: क्विंट)
i
null
(फोटो: क्विंट)

advertisement

महात्मा गांधी ने अंग्रेजी सत्ता के कब्जे से नमक को आजाद कराने के लिए सत्याग्रह किया. अंग्रेजों के जाने के बाद नमक केंद्र सरकार के अधीन आ गया. 70 सालों के अंदर नमक के किसानों का बड़ा हिस्सा मजदूर बन गया. सीएजी ने नमक उत्पादन पर नवीनतम रिपोर्ट में बताया गया है कि मजदूर पीने के पानी के लिए भी तरह रहे हैं. बच्चे पढ़ने के लिए तरस रहे हैं, वो नहीं जानता है कि घर की छत्त क्या होती है, नमक उत्पादन के दुष्प्रभाव के कारण उसकी आंखें- अतड़ियां और जिस्म के दूसरे हिस्से नाकाम होते जाते हैं लेकिन, दवा और इलाज से दूर हैं.

नमक का किसान जब मजदूर बना तो लोगों के लिए भी नमक की कीमत दिन दुना रात चौगुना रफ्तार से बढ़ी, जो नमक चंद साल पहले रुपये में पांच किलो मिल जाता था वह नमक कंपनियों के कई ब्रांड में बदल गया है और उसकी कीमत हजार गुना से भी ज्यादा बढ़ गई हैं. 2012-2013 में नमक के उत्पादन पर 62 प्रतिशत बड़ी कंपनियों का कब्जा हो चुका था. भारत सरकार की सीएजी की रिपोर्ट निम्न तथ्य बता रहे हैं,

नमक का एक साल में उत्पादन देश भर में 300 लाख टन पहुंच गया है, इसका 81 प्रतिशत उत्पादन गुजरात में होता है. नमक के कुछ छोटे किसान है जो दस एकड़ तक नमक की खेती करते हैं, ज्यादातर बड़ी कंपनियों ने नमक की खेती कराने के लिए जमीन लीज पर ले ली है. कंपनियां सौ एकड़ से भी ज्यादा जमीन लीज पर ले सकती है.

कंपनियां किसान बन गई है और वे मजदूरों से नमक का उत्पादन कराते है.गुजरात में 1.10 लाख मजदूर हैं जिनका रिकार्ड हैं. 2014-2015 में 4.28 लाख एकड़ जमीन नमक की खेती के लिए रजिस्टर्ड थी, लेकिन अब वह बढ़कर 4.66 लाख हेक्टेयर हो गई है. मजदूरों को अक्टूबर के जाड़े से लेकर जून की गर्मी तक नमक तैयार करने के लिए अपने परिवार के साथ रुकना पड़ता है. इन मजदूरों को अपने लिए इंसान को मिलने वाली जरूरी चीजों के लिए भी तरसना पड़ता है. उनकी हालत के बदत्तर होने की रिपोर्ट भी कई संस्थाओं ने तैयार की है.

पीने के पानी की कहानी

पीने के लिए पानी का इंतजाम करने की जिम्मेदारी गुजरात जल आपूर्ति बोर्ड की है, नमक वाले इलाके में पीने के पानी की कहानी ये हैं.

अमरेली- यहां गुजरात जल आपूर्ति बोर्ड द्वारा नमक के मजदूरों के बीच पानी मुहैया कराने की कोई स्कीम नहीं है. 2013 में गुजरात मजदूर संघ और एक एनजीओ ने नमक मजदूरों के बीच पीने के पानी मुहैया कराने का अनुरोध किया था. सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि छह साल के बाद भी पीने का पानी मुहैया कराने की कोई स्कीम शुरू नहीं हुई है. रिपोर्ट में लिखा है कि मजदूरों को पानी जैसी बुनियादी जरूरत भी मुहैया नहीं है.

कच्छ- मजदूरों को खुद ही अपने लिए पानी का इंतजाम करना पड़ता है. सीएजी रिपोर्ट के अनुसार यहां ज्यादातर मजदूरों को पीने के पानी के लिए तरसना पड़ता है, वे वहां आसपास के इलाके में वैसे कुओं से अपनी पानी लेते हैं जो कि बेहद नुकसान देह हैं. पानी में पूरी तरह घुलनशील ठोस पदार्थों की काफी मात्रा होती है. 2007 से कागजों पर स्कीमों के शेर दौड़ रहे है और 72.11 लाख रुपये खर्च भी दिखाए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में स्वच्छ पानी को नागरिकों का मौलिक अधिकार माना है.

रिपोर्ट में यह भी जानकारी दी गई है कि जहां गुजरात जल आपूर्ति बोर्ड पीने का पानी मुहैया नहीं करवाता है वहां मजदूरों को पानी बेचने वाले ठेकेदारों से पानी खरीदना पड़ता है और इसके लिए मजदूरों को अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता है.

सुरेन्द्रनगर –सीएजी रिपोर्ट ने जानकारी दी है कि जून 2016 से अब तक पानी मुहैया कराने की योजना का प्रारुप भी तैयार नहीं हो सका है और पानी मुहैया कराने की कोई स्कीम भी नहीं बनी है.

भावनगर- सीएजी की टीम ने जब पांच वैसी जगहों का दौरा किया, जहां दस एकड़ जमीन लीज लेकर नमक उत्पादन करने वाले किसान हैं और वहां पीने का पानी का मिलना एक बड़ा मुद्दा था. चार साल बीत जाने के बावजूद गुजरात जल आपूर्ति बोर्ड यह तय नहीं कर पाया है कि वह पीने के पानी पहुंचाने की जिम्मेदारी को कैसे पूरी करें.

पाटन- रिपोर्ट में बताया गया है कि यहां के नमक उत्पादन वाले इलाके में 1631 मजदूरों को पीने का पानी मुहैया कराने का गुजरात जल आपूर्ति बोर्ड दावा करती है. यहां 2014 -15 में कोई पानी की आपूर्ति ( सप्लाई) नहीं की गई. 2015 से 2018 के बीच पानी या तो देर से आपूर्ति की गई, लेकिन वह भी थोड़ा बहुत ही. 2018-19 में पानी समय से आपूर्ति की गई, लेकिन पूरे सीजन भर पानी की आपूर्ति नहीं की गई.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

भारत सरकार के कल्याणकारी अभियान भी नहीं पहुंचते

नमक के मजदूरों को स्वास्थ्य की सुविधाएं नहीं पहुंच पाती हैं, क्योंकि सड़कें बुरी हालत में हैं. सीएजी रिपोर्ट में पीने के पानी की तरह सड़कों की भी कहानी बताई गई हैं, लेकिन गुजरात के विकास के मॉडल की सबसे दर्दनाक कहानी मजदूरों के लिए रहने की जगहों की हैं. वे अपने परिवार के साथ यहां रहते हैं. समुद्री इलाके में ठंड, हवा, धूप, गर्मी कितनी होती है, यह बस सोचा जा सकता है, रिपोर्ट में मजदूरों की झोपड़ियों की तस्वीरें छापी गई है.

सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक पिछले पांच सालों में नमक मजदूरों के लिए घरों के लिए सुविधाओं की कोई स्कीम नहीं बनी और मजदूरों के रहने के लिए जगह भी होनी चाहिए यह सोचना भी शायद सरकार के लोगों को मंजूर नहीं,इसीलिए 2014-2019 में 34.69 करोड़ रुपये सरकारी कोष में सड़ा दिए गए.

ठेके पर जमीन लेकर नमक का उत्पादन कराने वाली कंपनियों को सरकार जब पट्टा देती है, तो उसमें भी यह कहीं नहीं कहा गया है कि मजदूरों को रहने के लिए जगह देनी होगी. जबकि 2010 में ही सरकार ने नये नियम बनाए थे. मजदूरों के दवा इलाज की व्यवस्था कराने के लिए भी पट्टे में कोई शर्त नहीं रखी गई. कंपनियों की मर्जी के हवाले मजदूरों को कर दिया गया. पट्टे में प्लेग, हैजा और दूसरी महामारी के वक्त में भी कंपनियों को कुछ नहीं करने की छूट मिली हुई है.

2014-19 के दौरान बच्चों, गर्भवती महिलाओं के लिए एकीकृत समग्र बाल विकास सुविधाएं (आईसीडीएस) से मिलने वाली एक भी सुविधा इनके पास नहीं फटकने दी गई. भारत के नागरिकों के लिए चलने वाली दूसरी स्कीमें भी नमक के मजदूरों के लिए नहीं होती है. आंगन बाड़ी , सर्व शिक्षा अभियान देश के बाकी हिस्से लिए हो सकता है, लेकिन नमक के इलाके में बेहद मुश्किल है.

स्वच्छता अभियान: केन्द्र सरकार अक्टूबर 2014 से स्वच्छ भारत अभियान चलाने का दावा कर सकती है, लेकिन यह दावा नमक की खेती के इलाके में नहीं किया जा सकता है. सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि इस इलाके में ट़ॉयलेट मिलना आसान नहीं है. सीएजी की टीम ने मई और जून 2019 में भावगनर के 17 और कच्छ जिले में नौ नमक उत्पादन केन्द्रों का दौरा किया तो वहां नमक मजदूरों के लिए टायलेट का इंतजाम नहीं था. ऐसे में मजदूर महिलाओं का हाल समझा जा सकता है.

कंपनियों को मिलने वाले पट्टे में यह भी शर्त नहीं है कि मजदूरों को कम से कम न्यूनतम मजदूरी मिलनी चाहिए, मजदूरों का बीमा होना चाहिए और उनका पीएफ खाता ( भविष्य निधि) भी होना चाहिए.

गांधी ने बिहार के चंपारण में किसानों की जो कहानी सुनी थी वह कहानी गुजरात में नमक के किसानों के शरीर पर अभी भी खुदी हुई है, गांधी के वक्त सात समुद्र पार से कंपनी बहादुर आए थे , नमक आजाद हुआ, लेकिन समुद्र के किनारे कंपनियां जम गई और वहां भारत की कंपनी का बोर्ड लगा लिया.

Become a Member to unlock
  • Access to all paywalled content on site
  • Ad-free experience across The Quint
  • Early previews of our Special Projects
Continue

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT