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EVM पर हंगामे के बीच प्रणब दा के बयानों ने दिमाग की बत्ती जला दी 

अब 48 घंटे के अंदर चुनाव आयोग को दो बार प्रणब दा के अलग-अलग रूप देखने को मिल गए.

अभय कुमार सिंह
नजरिया
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EVM पर हंगामे के बीच प्रणब दा के बयानों ने दिमाग की बत्ती जला दी
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EVM पर हंगामे के बीच प्रणब दा के बयानों ने दिमाग की बत्ती जला दी
(फोटो: पीटीआई)

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देश के पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे प्रणब मुखर्जी फिर सुर्खियों में हैं. सोमवार को उन्होंने एक कार्यक्रम में पहले चुनाव आयोग के कामकाज की जमकर तारीफ कर दी. कहा कि आप चुनाव आयोग की आलोचना नहीं कर सकते, फिर मंगलवार को वो आयोग को हिदायत देते नजर आए. प्रणब ने कहा कि वोटरों के फैसले से कथित छेड़छाड़ से परेशान हैं, आयोग को सभी अटकलों पर विराम लगाना चाहिए.

अब 48 घंटे के अंदर चुनाव आयोग को दो बार प्रणब दा के अलग-अलग रूप देखने को मिल गए. सोमवार को जिस कार्यक्रम में उन्होंने चुनाव आयोग की तारीफ की थी उसी कार्यक्रम में प्रणब ने कहा कि उन्होंने राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार वोट दिया है, लेकिन किसे दिया है वो ये नहीं बताएंगे.

क्या प्रणब दा के इस बयान में छिपा है कोई संदेश

अब प्रणब का अपने वोट पर ऐसा सस्पेंस तो राजनीतिक पंडितों के एंटीने को खड़ा करने के लिए काफी है. कुछ जानकार ये भी कहने लगे हैं कि प्रणब मुखर्जी ये संदेश देना चाहते हैं कि अगर हंग पार्लियामेंट की स्थिति बनती है, तो वो तैयार हैं.

आपको याद होगा कि पिछले साल 7 जून को प्रणब मुखर्जी आरएसएस के कार्यक्रम में हिस्सा लेने भी पहुंचे थे. साथ ही भाषण भी दिया. कांग्रेस, बीजेपी की नजर उस वक्त प्रणब दा के भाषण पर लगी थी, पूरे भाषण में प्रणब ने ऐसी कोई बात नहीं की जो संघ को तीखी लगे या उसके विचारों पर सीधा हमला हो. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि कई जानकार ये भी मान रहे थे कि प्रणब मुखर्जी संघ के गढ़ में घुसकर स्वयंसेवकों को खरी-खरी सुना सकते हैं.

अब 7 जून, 2018 की वो घटना और अब का राजनीतिक समीकरण सियासी पंडितों के दिमाग में चक्करघिन्नी की तरह घूम रहा है...अब एक चक्करघिन्नी हम आपको और दे दें, प्रणब दा का ईवीएम सुरक्षा पर चुनाव आयोग की जवाबदेही वाला बयान गैर-बीजेपी दलों की शिकायत को समर्थन देता माना जाए, तो पश्चिम बंगाल में ये समर्थन तो बीजेपी को चला जाता है. क्योंकि वहां बीजेपी ईवीएम सुरक्षा पर सवाल खड़ा कर रही है.

कुल मिलाकर प्रणब दा जब सक्रिय राजनीति में थे तो उन्हें नेता नहीं बल्कि 'राजनीति का स्कूल' कहा जाता था. अब उनके सक्रिय राजनीति से बाहर हो जाने के बाद अगर कुछ लोग मान रहे हैं कि वो स्कूल बंद हो गया है तो वो गलत हैं.....

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