Members Only
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Hindi Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019CJI के नेतृत्व में न्यायपालिका को स्वतंत्रता बनाए रखने और आजाद दिखने में भूमिका निभानी चाहिए

CJI के नेतृत्व में न्यायपालिका को स्वतंत्रता बनाए रखने और आजाद दिखने में भूमिका निभानी चाहिए

भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कार्यपालिका या उससे जुड़े व्यक्तियों के करीब लाने के प्रयास पर जजों ने खुले तौर पर अपनी नाराजगी दिखाई है.

जस्टिस गोविंद माथुर
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>पीएम मोदी सीजेआई और उनकी पत्नी के साथ गणेश पूजा करते नजर आ रहे हैं.</p></div>
i

पीएम मोदी सीजेआई और उनकी पत्नी के साथ गणेश पूजा करते नजर आ रहे हैं.

(फोटो: अल्टर्ड बाई द क्विंट)

advertisement

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ (CJI DY Chandrachud) और उनकी पत्नी कल्पना दास को अपने घर में हाथ जोड़कर पीएम मोदी का स्वागत करते हुए देखे जाने के बाद सोशल मीडिया पर काफी हंगामा हुआ. इसके वीडियो और तस्वीरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर की गईं. पीएम मोदी ने भी इन्हें शेयर किया.

एक दूसरे वीडियो में पीएम मोदी सीजेआई और उनकी पत्नी के साथ बगल में खड़े होकर गणेश पूजा करते नजर आ रहे हैं.

भारत के संविधान के अनुच्छेद 50 में दिया राज्य का नीति निर्देशक सिद्धांत न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए राज्य पर दायित्व रखकर हमारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है. इसमें लिखा है, "राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए राज्य कदम उठाएगा."

संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के लिए कई अन्य अंतर्निहित प्रावधान भी हैं. शक्ति के इस पृथक्करण में यह अलगाव पूरी तरह से नहीं है, जांच और संतुलन सुनिश्चित करने के लिए कुछ कामों में ओवरलैप के उदाहरण भी हैं.

ये सभी प्रावधान सामूहिक रूप से जजों को कार्यपालिका से उचित दूरी पर रखते हैं, न केवल उनके कर्तव्यों को निभाते समय बल्कि उनके व्यक्तिगत जीवन में भी.

भारतीय जजों में खुद को कार्यपालिका के अधिकारियों और यहां तक ​​कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं से भी दूरी बनाकर रखने की परंपरा है.

भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कार्यपालिका या उससे जुड़े व्यक्तियों के करीब लाने के प्रयास पर जजों ने खुले तौर पर अपनी नाराजगी दिखाई है.

पचास के दशक की शुरुआत में, जब एक समारोह में प्रधान मंत्री नेहरू ने कहा कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को सद्भाव से काम करना चाहिए, तब जस्टिस पतंजलि शास्त्री तुरंत उठे और कहा, "नहीं मिस्टर नेहरू, हमारा रिश्ता अनिवार्य रूप से विरोधी है."

यह नजरिया न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए बल्कि हमारी न्याय प्रणाली में आम आदमी के विश्वास को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक था.

लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह बदल गया है. अब, न्यायपालिका के भीतर बड़ी संख्या में नेताओं में साहस और दृढ़ विश्वास की कमी है, और हमारे पास न तो कोई नेहरू है और न ही कोई शास्त्री.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

पहले के सालों में, रिटायर्ड और वर्तमान जजों को आयोगों के प्रमुख के रूप में नियुक्त करना एक सामान्य प्रथा थी. विधिवत नियुक्त राज्यपालों की अनुपलब्धता की स्थिति में हाई कोर्ट्स के चीफ जस्टिस को कार्यवाहक राज्यपाल नियुक्त करने की भी प्रथा थी.

आगे जजों को कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त रखने की दृष्टि से ही इन प्रथाओं को बंद किया गया था. लेकिन अब रिटायर्ड जजों को कई आयोगों और न्यायाधिकरणों के प्रमुखों और सदस्यों के रूप में नियुक्त करके कई कानूनों के तहत इस तरह की प्रथाओं को फिर से शुरू किया गया है.

रिटायरमेंट के बाद जजों को ऐसे पद मिलने से उनके कुर्सी पर रहते हुए के दृष्टिकोण और रवैये पर गंभीर चोट पहुंच रहा है.

विधायिका को रिटारमेंट के बाद मिलने वाले पद को रेगुलेट करने के लिए हमारे संविधान में आवश्यक संशोधन लाने के बारे में सोचना चाहिए. अन्यथा, उनकी गतिविधियों से हमारी न्यायिक प्रणाली में लोगों का विश्वास कम हो जाएगा.

इन चिंताओं को देखते हुए, मेरा मानना ​​है कि प्रधान मंत्री की सीजेआई के आवास पर यात्रा नहीं होनी चाहिए थी, और यदि किसी घनिष्ठता की वजह से यह आवश्यक था, तो इसे "सार्वजनिक" बनाना अनुचित था.

मुझे नहीं पता कि किसने किसे आमंत्रित किया, लेकिन मैं कह सकता हूं कि ऐसी यात्राओं से जनता की नजर में न्यायपालिका की छवि पर असर पड़ सकता है. अब तक का नियम यह रहा है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका ने स्वतंत्रता के स्थापित सिद्धांतों के आधार पर दूरी बनाए रखी है.

सीजेआई के नेतृत्व वाली न्यायपालिका को इसे इसी तरह बनाए रखने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए.

(जस्टिस गोविंद माथुर इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है. इस आर्टिकल को स्पष्टता और लंबाई के लिए एडिट किया गया है. मूल आर्टिकल अंग्रेजी में है जिसे हिंदी में ट्रांसलेट किया गया है.)

Become a Member to unlock
  • Access to all paywalled content on site
  • Ad-free experience across The Quint
  • Early previews of our Special Projects
Continue

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT