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संभल हिंसा: 'सर्वे' की मांग वाले मुकदमे-आदेश पूजा स्थल कानून की अनदेखी करते हैं

पूजा स्थल कानून के लिए निष्ठा आवश्यक है ताकि ऐतिहासिक विवादों को राष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने को बाधित करने का हथियार नहीं बनाया जाए.

आरिब उद्दीन अहमद
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>'सर्वे' की मांग वाले मुकदमे और आदेश पूजा स्थल कानून की अनदेखी करते हैं</p></div>
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'सर्वे' की मांग वाले मुकदमे और आदेश पूजा स्थल कानून की अनदेखी करते हैं

(प्रतिकात्मक फोटो- क्विंट हिंदी)

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साल 1991 में लागू पूजा स्थल कानून (Places of Worship Act , 1991) में यह प्रावधान किया गया था कि आजादी के वक्त जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में था, उसे वैसे ही बरकरार रखा जाएगा. यह ऐसा कानून है जो 15 अगस्त 1947 को मौजूद किसी भी उपासना स्थल के धार्मिक चरित्र को बदलने पर पाबंदी लगाता है. लेकिन यह कानून पिछले दशक से विवाद का केंद्रीय विषय रहा है. जिला अदालतों ने इस दावे के आधार पर धार्मिक स्थानों (मस्जिदों) के सर्वे की अनुमति देते कई आदेश पारित किए हैं कि वहां पहले एक और धार्मिक संरचना (मंदिर) मौजूद थी.

18 नवंबर को, उत्तर प्रदेश के संभल जिले की सिविल अदालत ने शाही जामा मस्जिद के सर्वे का आदेश दिया. यह आदेश उस याचिका पर पारित किया गया था जिसमें दावा किया गया था कि मस्जिद एक मंदिर की जगह पर बनाई गई थी.

सर्वे की रिपोर्ट 29 नवंबर को कोर्ट में दाखिल करनी है. दो सर्वे हो चुके हैं.

एम सिद्दीक (डी) बनाम महंत सुरेश दास (अयोध्या-बाबरी फैसले) के बाद, ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें धार्मिक संरचनाओं का इतिहास ही मुकदमेबाजी का विषय रहा है. कुछ केस अलग-अलग अदालतों में लंबित हैं- जैसे वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद मामला, मथुरा में शाही ईदगाह और मध्य प्रदेश में कमल-मौला मस्जिद.

अगर हम कानून का सख्ती से पालन करें, तो ऐसे कदम पूजा स्थल कानून के तहत वर्जित हैं. अब, भले ही इस कानून की वैधता ही सवालों के घेरे में है, लेकिन ऐसा लगता है कि इसपर फैसला होने से पहले ही इसे ठंडे बस्ते में डाला जा रहा है.

कानून तो अपने आप में साफ-साफ है- पूजा स्थलों के 'वास्तविक चरित्र' के संबंध में सर्वे की मांग करने वाले हालिया मुकदमे न केवल कानून की अवहेलना करते हैं बल्कि धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सद्भाव के प्रति संवैधानिक प्रतिबद्धता को भी खतरे में डालते हैं.

संभल मामले में सिविल कोर्ट ने एडवोकेट कमिश्नर रमेश चंद राघव को चंदौसी में शाही जामा मस्जिद का सर्वे करने का निर्देश दिया. कथित तौर पर अदालत के आदेश के कुछ ही घंटों बाद शाम को मस्जिद का सर्वे शुरू हुआ.

यह अजीब है कि इस तरह के सर्वे का आदेश सुनवाई के पहले दिन ही दे दिया गया, यानी यह मुकदमा चलने लायक है या नहीं, इसपर विचार किए बिना. अन्य पक्षों को इसे चुनौती देने का अवसर मिलने से पहले ही आदेश लागू कर दिया गया.

यह आदेश आठ वादी द्वारा दायर एक मुकदमे में पारित किया गया था, जिन्होंने दावा किया था कि विचाराधीन मस्जिद 1526 में वहां मौजूद एक मंदिर को तोड़ने के बाद बनाई गई थी.

अदालत ने आदेश में लिखा है, “यदि (संबंधित स्थल पर) स्थिति के बारे में एक रिपोर्ट (अदालत के सामने) प्रस्तुत की जाती है, तो मुकदमे का फैसला करने के लिए अदालत को मदद होगी. इसलिए, न्याय के हित में, आवेदन 8 सी को इस शर्त के साथ स्वीकार किया जाता है कि सर्वे के समय, नियुक्त एडवोकेट कमिश्नर को पूरी कार्यवाही की मौके पर फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी करानी चाहिए.“ कोर्ट ने यह रिपोर्ट 29 नवंबर तक मांगी है.

24 नवंबर को, जब अदालत द्वारा नियुक्त एडवोकेट कमिश्नर और उनकी टीम के छह सदस्य जब सुबह 7 बजे के आसपास दूसरे सर्वे के लिए मस्जिद में घुसी तो उसके बाद झड़प हो गईं. रिपोर्टों के अनुसार, हिंसा में मरने वालों की संख्या छह हो गई, जिसमें एक 19 वर्षीय लड़का भी शामिल है, जिसकी गोली लगने से मौत हो गई.

ज्ञानवापी मामले के दौरान, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि "पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र का पता लगाना पूरी तरह से वर्जित नहीं है". यानी, यह नोट करते हुए कि किसी पूजा स्थान का चरित्र नहीं बदला जा सकता है, उन्होंने कहा कि संरचना का "मूल" चरित्र" हमेशा निर्धारित किया जा सकता है. बाद में उन्होंने स्पष्ट किया कि यह सिर्फ एक डॉयलॉग था, अदालत की राय नहीं.

जस्टिस चंद्रचूड़ के इसी ऑब्जर्वेशन ने मुकदमों की बाढ़ ला दी है. भले ही यह सिर्फ एक डॉयलॉग था, यह अभी भी प्रथम दृष्टया बताता है कि एक धार्मिक स्थल की वैधता निर्धारित की जा सकती है, भले ही ऐसा करना कानून द्वारा वर्जित हो.

जैसा कि अजॉय कर्पुरम ने सही तर्क दिया है, "सुप्रीम कोर्ट द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे की अनुमति देना, 2019 के अयोध्या निर्णय में विवादित पूजा स्थलों पर उसके विचारों का खंडन कर सकता है."

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2019 में अयोध्या विवाद का फैसला करने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि पूजा स्थल कानून "भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा के लिए बनाया गया एक विधायी उपकरण है, जो संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक है."

"पूजा स्थल कानून आंतरिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के दायित्वों से जुड़ा है. यह सभी धर्मों की समानता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है. सबसे बढ़कर, पूजा स्थल कानून उस पवित्र कर्तव्य की पुष्टि है जो एक आवश्यक संवैधानिक मूल्य के रूप में सभी धर्मों की समानता को संरक्षित करने के लिए राज्य पर डाला गया था- यह एक ऐसा मानदंड है जिसे संविधान की मूल विशेषता होने का दर्जा प्राप्त है. पूजा स्थल कानून को लागू करने के पीछे एक उद्देश्य है. कानून हमारे इतिहास और राष्ट्र के भविष्य के बारे में बात करता है. चूंकि हम अपने इतिहास और राष्ट्र द्वारा इसका सामना करने की आवश्यकता से अवगत हैं, स्वतंत्रता अतीत के घावों को भरने के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण था. ऐतिहासिक गलतियों को लोगों द्वारा कानून अपने हाथ में लेने से ठीक नहीं किया जा सकता. सार्वजनिक पूजा स्थलों के चरित्र को संरक्षित करने में, संसद ने स्पष्ट रूप से आदेश दिया है कि इतिहास और उसकी गलतियों का उपयोग वर्तमान और भविष्य पर अत्याचार करने के साधन के रूप में नहीं किया जाएगा."
अयोध्या-बाबरी फैसले में सुप्रीम कोर्ट

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस डीवी शर्मा द्वारा की गई टिप्पणियों की भी आलोचना की, जो 2010 में अयोध्या-बाबरी फैसला सुनाने वाली इलाहाबाद हाई कोर्ट की बेंच का हिस्सा थे. जस्टिस डीवी शर्मा ने कहा था,

1 (C). धारा 9 बहुत विस्तृत है. किसी भी कलीसियाई कोर्ट की गैरमौजूदगी में किसी भी धार्मिक विवाद पर कोर्ट सुनवाई कर सकता है, बहुत ही दुर्लभ मामलों को छोड़कर जहां मांगा गया आदेश धार्मिक अनुष्ठान का गठन कर सकता है. पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) कानून, 1991 उन मामलों पर रोक नहीं लगाता है जहां कानून लागू होने से पहले की अवधि के लिए या उस अधिकार को लागू करने के लिए घोषणा की मांग की जाती है जिसे कानून के लागू होने से पहले मान्यता दी गई थी.

उपर दी गई टिप्पणी के संबंध में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “सबसेक्शन (2) के प्रोविजो में एकमात्र अपवाद वह है जहां एक मुकदमा, अपील या कार्यवाही इस आधार पर शुरू की जाती है कि धार्मिक चरित्र को 15 अगस्त 1947 के बदला गया था और ऐसी कार्रवाई पूजा स्थल कानून के प्रारंभ में लंबित थी. स्पष्ट रूप से, वैधानिक आदेश के सामने, जस्टिस डीवी शर्मा द्वारा जो अपवाद बताया गया है वह कानून की शर्तों के विपरीत है और इसलिए गलत है."

इसके बावजूद, पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को निर्धारित करने के लिए सर्वे की बढ़ती स्वीकार्यता पूजा स्थल कानून के मूलभूत सिद्धांतों के लिए महत्वपूर्ण जोखिम पैदा करती है.

ज्ञानवापी मामले के बाद, अलग-अलग स्थलों की धार्मिक पहचान पर सवाल उठाने वाले कई मुकदमें सामने आए हैं. उदाहरण के लिए, मथुरा जिला न्यायालय ने शाही ईदगाह मस्जिद में हिंदू 'कलाकृतियों' की उपस्थिति का आरोप लगाने वाली एक याचिका पर विचार किया है. इसी तरह, कर्नाटक में, नरेंद्र मोदी विचार मंच ने श्रीरंगपट्टनम में एक मस्जिद के अंदर प्रार्थना करने की अनुमति मांगी है, यह दावा करते हुए कि इसका निर्माण टीपू सुल्तान के शासन के दौरान एक हनुमान मंदिर के ऊपर किया गया था.

ऐसे मामले अक्सर 'सर्वे' पर निर्भर होते हैं, जो अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट के निष्कर्षों की स्पष्टता और अधिकार को ताक पर रखते हैं.

अयोध्या फैसले में एक नाजुक संतुलन बनाया गया था. अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि यह कानून सभी धर्मों की समानता के लिए भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है, और इसे स्थानीय अदालत के आदेशों के बीच खोना नहीं चाहिए, जो सर्वे की अनुमति देते हैं और ऐसे मुकदमे चलाने लायक हैं या नहीं, इसपर विचार किए बिना सुनवाई करते हैं.

जब सुप्रीम कोर्ट इस कानून की संवैधानिक वैधता पर निर्णय लेने की तैयारी कर रहा है, उसे कानून के शासन और धार्मिक सद्भाव पर इन मुकदमों के व्यापक निहितार्थों पर भी ध्यान देना चाहिए.

न्यायिक संयम और पूजा स्थल कानून में निहित सिद्धांतों के प्रति निष्ठा यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि ऐतिहासिक विवादों को राष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने को बाधित करने के लिए हथियार नहीं बनाया जाए.

जब तक सुप्रीम कोर्ट निर्णायक रूप से हस्तक्षेप नहीं करता, तब तक कानून के उद्देश्यों और राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को अनिश्चित भविष्य का सामना करना पड़ेगा.

(अरीब उद्दीन अहमद इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले एक वकील हैं. वह तमाम कानूनी मुद्दों पर लिखते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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