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पाकिस्तान की नई सरकार को मिलेगा कांटों भरा ताज, सत्ता की कुर्सी पर 'परिवारवाद' की वापसी

Pakistan में नई सरकार बनाने को तैयार दिख रहे शहबाज शरीफ को सबसे पहले वित्तीय मोर्चे पर चुनौतियों से दो-चार होना होगा

Commodore C Uday Bhaskar (retd)
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Pakistan Elections</p></div>
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Pakistan Elections

(फोटो- अल्टर्ड बाई क्विंट हिंदी)

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पाकिस्तान (Pakistan) में 8 फरवरी को आम चुनाव (Pakistan Elections) हुए. एक हफ्ते बाद पूर्व प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ (Shahbaz Sharif) के नेतृत्व में अब एक नई सरकार बनती दिख रही है. पाकिस्तान में एक ऐसा चुनाव हुआ जिसका कड़ा विरोध किया गया, जो स्पष्ट रूप से विवादास्पद रहा.

इस चुनाव में दो प्रमुख पार्टियों के बीच मुकाबला हुआ - शहबाज के बड़े भाई और तीन बार पीएम रहे नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग या पीएमएल (एन) और भुट्टो के नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी). दोनों का मुकाबला इमरान खान के नेतृत्व वाली पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) समर्थित स्वतंत्र उम्मीदवारों से रहा.

नतीजों ने पाकिस्तान और चुनाव को बाहर से देखने वाले - दोनों को आश्चर्यचकित कर दिया है.

शरीफ भाइयों का उदय

याद कीजिये कि पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट कप्तान से राजनेता बने इमरान खान को 2018 में पीएम नवाज शरीफ को पद से हटाने के लिए पाकिस्तान सेना द्वारा चुना गया था. जब कैप्टन खान रावलपिंडी (पाक सेना के हेडक्वाटर) से अत्यधिक 'स्वतंत्र' हो गए (यानी वे पाक सेना के खिलाफ जाने लगे), तो उन्हें 2022 में पीएमएल (एन) और पीपीपी के गठबंधन द्वारा संसद में अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से बाहर का दरवाजा दिखाया गया था.

उस समय, शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री के रूप में चुना गया था और पंजाब प्रांत के शरीफ परिवार के दोनों भाइयों को देश के सर्वोच्च पद पर 'निर्वाचित' होने का गौरव प्राप्त हुआ - जाहिर तौर पर ये सेना के आरशीर्वाद से ही हुआ - और उसके बाद देश ने एक बार फिर उतार-चढ़ाव भरा कार्यकाल देखा.

पाकिस्तान में परिवार और वंशवादी राजनीति के प्रमुख पैटर्न को ध्यान में रख कर बात करें तो, सिंध के मरहूम जुल्फिकार अली भुट्टो ने पीपीपी की स्थापना की जिसमें जुल्फिकार और उनकी बेटी बेनजीर दोनों प्रधानमंत्री थे. दामाद आसिफ जरदारी कुछ समय के लिए राष्ट्रपति बने और अब बेटे बिलावल भुट्टो छोटे सदस्य हैं जो पीपीपी का चेहरा और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं.

और फिर इमरान खान के नेतृत्व वाली पीटीआई है, जो नई पार्टी है. इसने भ्रष्टाचार-मुक्त विकल्प होने और अन्य मुद्दे पर चुनावी लोकप्रियता हासिल की. इमरान खान ने परिवारवाद के खिलाफ भी प्रचार किया, जिसकी वजह से युवा पाकिस्तानियों ने 2018 में क्रिकेटर से नेता बने खान को सत्ता तक पहुंचाया.

पाकिस्तान में परिवार आधारित राजनीति की फिर वापसी

2024 के चुनाव में, ऐसी उम्मीद थी कि पाकिस्तानी सेना पीटीआई को सत्ता से बाहर करने की अपनी साजिशों में सफल होगी, लेकिन जो अंतिम नतीजे आए वो इस उम्मीद के उलट निकले.

आधिकारिक परिणामों के अनुसार, पीटीआई समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों ने 93 सीटें हासिल कीं, पीएमएलएन ने 75 और पीपीपी ने 54 सीटें जीतीं. हालांकि, दोनों छोटे दल, पीएमएल (एन)-पीपीपी गठबंधन में शामिल हो गए, और 266 निर्वाचित सदस्यों वाली संसद में सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्या तक पहुंच गए.

उम्मीद है कि पीपीपी के वरिष्ठ नेता आसिफ जरदारी दूसरी बार राष्ट्रपति बनेंगे. और एक बार फिर 'परिवार' पाकिस्तान की राजनीति में शीर्ष पर होगा. लेकिन इस बार गठबंधन की सरकार है, जिससे नवाज शरीफ बचना चाह रहे थे. लेकिन सीटों की कमी के कारण मजबूरी में गठजोड़ किया गया है.

जानकारी के मुताबिक, ऐसा हो सकता है कि पीपीपी कैबिनेट में शामिल नहीं होगी. लेकिन सत्ता किस तरह से साझा की जाएगी इसे लेकर अभी भी बातचीत चल रही है.

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पाकिस्तान की सेना मजबूत स्थिति में  

पाकिस्तानी मॉडल (सरकार बनाने का) को ध्यान में रखते हुए - सेना किंगमेकर बनी हुई है और लोगों द्वारा चुनी गई सरकार को इसी मॉडल को स्वीकार करना होगा. पाकिस्तान को लेकर खास बात ये है कि दुनिया के अधिकांश देशों के पास अपनी सेना है, लेकिन पाकिस्तान के मामले में, यहां की सेना ने देश को अपने अधीन कर लिया है.

क्या इसका मतलब यह है कि पाकिस्तान में वही शासन वापस आ गया है जो पहले से चलता आ रहा है. या कहें कुछ संशोधन के साथ वही शासन मॉडल वापस आ गया है, जहां 'परिवार' फिर से शीर्ष में है और सेना निर्वाचित व्यवस्था के पीछे वास्तविक शक्ति बनी हुई है? 2024 का मुकाबला कोई दो तरफा नहीं था यानी दो से ज्यादा मुख्य पार्टियां मैदान में थी. ऐसे और भी पहलू हैं जो बताते हैं यह चुनाव पाकिस्तान के लिए दूरगामी परिणाम लेकर आ सकते हैं.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इमरान खान ने जो सेना पर आरोप लगाए जिसके बाद पाक सेना अब बैकफुट पर है और मई 2023 में फौज के खिलाफ सड़क पर विरोध प्रदर्शन ने एक तरह से सेना को झटका दिया है.

इसके अलावा, सेना ने इमरान खान और उनकी पार्टी पर सख्त प्रतिबंध लगाए. पीटीआई को एक पार्टी के रूप में चुनाव लड़ने से रोका, उसके लोकप्रिय चुनाव चिन्ह (क्रिकेट बैट) से उन्हें वंचित किया और उसके उम्मीदवारों को निर्दलीय चुनाव लड़ने पर मजबूर किया - लेकिन फिर भी खान की जीत हुई.

क्या दक्षिण एशियाई राजनीति में ये शासन का एक नया चलन है?

पीटीआई द्वारा वोटों में धांधली के आरोप लगाए गए हैं और पार्टी का दावा है कि उन्होंने 170 सीटें जीतीं लेकिन अंतिम परिणामों में जबरदस्त हेरफेर के कारण उन्हें बड़ी जीत से वंचित कर दिया गया.

हालांकि यह मामला अदालतों में जा सकता है. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि पीटीआई ने टेक्नोलॉजी का भरपूर इस्तेमाल किया है, जिसमें सोशल मीडिया और एआई/डीप-फेक दोनों का स्पष्ट इस्तेमाल किया गया.

क्या दक्षिण एशिया के देशों की चुनावी प्रक्रिया में अब ये एक नया ट्रेंड है जहां साक्षरता दर कम हो सकती है लेकिन साइबर जागरूकता और सोशल मीडिया अभियान मानक से कहीं अधिक है?

फिलहाल, इस्लामाबाद में नई शहबाज शरीफ सरकार को एक तत्काल वित्तीय आवश्यकता के बारे में सोचना है. मार्च के अंत तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के कर्ज को लेकर फिर से बातचीत करनी होगी.

विवेकपूर्ण तरीके से, सेना के जनरलों ने ये निष्कर्ष निकाला है कि कर्ज देने वाले सेना की तुलना में नागरिकों द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री का अधिक सहानुभूतिपूर्वक स्वागत करेंगे.

अर्थव्यवस्था के हालात गंभीर हैं और महंगाई दर उच्च स्तर पर बनी हुई है और नई सरकार को इन सभी मुद्दों का सामना करना पड़ेगा.

यदि इमरान खान इस शरीफ-भुट्टो गठबंधन सरकार को स्वीकार करने से इनकार करते हैं और पीटीआई सड़कों पर उतरती है - जैसा कि अतीत में हुआ है - तो पाकिस्तान में और भी अधिक जटिल आंतरिक संकट मंडराने लगेगा और सेना फिर से उस स्थिति में पहुंच जाएगी जहां उसे डर है कि वह हार रही है.

भारत को अपने पश्चिमी पड़ोसी देश के घरेलू मामले के प्रति जागरूक और सतर्क रहने की जरूरत होगी.

(नौसेना में उच्‍च पदाधिकारी सी उदय भास्कर, सोसाइटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं और तीन थिंक टैंक का नेतृत्व कर चुके हैं. उनका ट्विटर हैंडल @theUdayB है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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