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डॉ. मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाले पहले स्पेशलिस्ट या विशेषज्ञ थे. मनमोहन सिंह का 26 दिसंबर को 92 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. उन्हें एक अर्थशास्त्री के रूप में ट्रेंड किया गया था और उन्होंने भारत को विकास पथ पर ले जाना अपना मिशन बना लिया. उनकी DPhil भारतीय निर्यात के ट्रेंड और संभावनाओं पर ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से थी. आखिरकार उन्होंने इसका अच्छा उपयोग तब किया जब उन्होंने प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री के रूप में देश को गंभीर आर्थिक संकट से बाहर निकाला.
उनके द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने देश का चेहरा इस तरीके से बदल दिया कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. आर्थिक सुधारों के रूप में करार दी गई इन आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने देश को संयुक्त राज्य अमेरिका के करीब ला दिया, जिससे यह धीरे-धीरे अपनी समाजवादी जड़ों को इस तरह से त्यागने लगा, जिसकी पहले कभी कल्पना नहीं की गई थी.
हालांकि दिवंगत विजय भास्कर रेड्डी जैसे पुराने कांग्रेसी उनसे नाराज थे, जिन्होंने सोचा था कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक (WB) की सख्त शर्तों को पूरा करने की मांगों को पूरा करने के लिए गरीबों के हितों की अदला-बदली की गई है, लेकिन मनमोहन सिंह ने अपने प्रोग्राम को "मानवीय चेहरे के साथ सुधार" कहा.
आर्थिक सुधारों से जुड़े विवादों का सामना करने के अलावा, जिसमें उनके पूर्व बॉस, प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने दावा किया था कि अगर आईएमएफ-डब्ल्यूबी ने इस ऋण का वादा किया होता तो उन्हें इन नीतियों को शुरू करने में कोई आपत्ति नहीं होती.
चन्द्रशेखर के बयान के पीछे छिपे अर्थ ये थे कि IMF-WB नहीं चाहता था कि उनकी सरकार बनी रहे. इसके बाद जब गठबंधन चलाने की बात आई तो मनमोहन सिंह को भी चंद्रशेखर का साथ मिला जब मनमोहन सिंह अपने आर्थिक पैकेज के लिए सभी विपक्षी दलों से समर्थन जुटाने में कामयाब रहे. शुरुआत में, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी आर्थिक नीतियों के विरोधी थे, लेकिन जब शक्तिशाली मध्यस्थ उन पर हावी हो गए तो उनका विरोध दूर हो गया. यह उनके लिए विजय का क्षण था और बड़ी जिम्मेदारियों का रास्ता खुला.
यह एक दिलचस्प सरकार थी क्योंकि इसने सूचना का अधिकार (RTI) और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी पहल की शुरुआत की थी. उनकी नीतियों की शुरुआत उन दिनों हुई थी जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार में निर्णय लेने में वामपंथी दलों का प्रभाव प्रमुख था.
देश ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लाखों लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया. अचानक, देश में आशावाद का उभार देखना संभव हुआ और लाखों लोगों को सम्मानजनक रोजगार मिल सका. ग्रामीण गारंटी योजना ने मजदूरी दरों में सुधार किया था और ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों में लोगों के पलायन पर भी रोक दी थी.
2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा - नागरिक परमाणु समझौते के लिए समर्थन जुटाना. डॉ सिंह ने उसी नेटवर्क का इस्तेमाल किया जिसने उन्हें आर्थिक सुधारों के लिए वित्त मंत्री के रूप में समर्थन हासिल करने में मदद की, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व वाली बीजेपी ने उनका समर्थन करने से इनकार कर दिया. इससे भी बुरी बात यह है कि वामपंथी दल, जो यूपीए-1 में एक प्रमुख ताकत थे, ने इस समझौते का समर्थन करने से इनकार कर दिया. उसने इसके बजाय अपने कट्टर दुश्मन, बीजेपी से हाथ मिला लिया.
परमाणु समझौते के लिए ऐसी खिलाफत देखते हुए, डॉ सिंह ने अपने अमेरिकी समकक्ष से कहा कि नागरिक परमाणु समझौते के लाभों के बावजूद, वह इसे आगे नहीं बढ़ा सकते. इस लेखक को वाशिंगटन में विदेश विभाग द्वारा सूचित किया गया था कि जब डील को आगे बढ़ाने की बात आई तो उनके पास विचार खत्म हो रहे थे और वे इसे छोड़ने की दहलीज पर थे. लेकिन उसके बाद कुछ बदला.
इस करीबी मुकाबले में डॉ सिंह ने अपना धैर्य बनाए रखा. अगला चुनाव डील और मनमोहन सिंह के करिश्मे पर लड़ा गया.
आदर्श रूप से, मनमोहन सिंह चुनाव लड़ना पसंद करते. लेकिन उन्हें ऐसा करने से रोका गया, क्योंकि वे गांधी परिवार के लिए राजनीतिक खतरा बन गए थे. निष्पक्षता से देखें तो मनमोहन सिंह ने कभी भी कोई महत्वाकांक्षा प्रदर्शित नहीं की. लेकिन वह चुनाव लड़ना पसंद करते क्योंकि उन्हें राज्यसभा के रास्ते सरकार का नेतृत्व करना पसंद नहीं था.
उनके दूसरे कार्यकाल ने उनकी छवि को धूमिल कर दिया और नेहरूवादी विरासत को तार-तार कर दिया. कांग्रेस पार्टी और यूपीए गठबंधन के साथी भ्रष्टाचार का पर्याय बन गए, और पीएम के स्वाभाविक लोकतांत्रिक स्वभाव का इस्तेमाल उनके विरोधियों ने चीजों को बदतर बनाने के लिए किया. जब सरकार अपनी विश्वसनीयता खो चुकी थी तब भी उन्होंने सरकार की कमान संभाली. उन्होंने ऐसा क्यों किया?
जो लोग डॉ सिंह के करीबी होने का दावा करते हैं, उनका दावा है कि वह अपनी पार्टी की नेता सोनिया गांधी को निराश नहीं करना चाहते थे. सोनिया गांधी ने उन्हें गठबंधन सरकार चलाने का कठिन काम सौंपा था. इस गठबंधन सरकार में साझेदार अपने-अपने प्रांत की चिंताओं से प्रेरित होकर अलग-अलग दिशाओं में भाग रहे थे.
जब एक कांग्रेस मंत्री ने इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की, तो उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष के एक वरिष्ठ सहयोगी ने बताया कि एक बड़े गठबंधन को चलाने के लिए, उन्हें इस बात को नजरअंदाज करने की जरूरत है. उनसे यह भी कहा गया कि यदि ये डील अरुचिकर साबित हुए तो वह मंत्रिमंडल छोड़ने पर विचार कर सकते हैं. आपत्ति करने वाले मंत्री ने अपनी बात खुद तक रखने का फैसला किया. यदि डॉ सिंह वास्तव में "अनिच्छुक प्रधानमंत्री" थे तो उन्होंने इस्तीफा क्यों नहीं दिया?
अपने लंबे राजनीतिक करियर में इन अंधेरे क्षेत्रों के बावजूद, मनमोहन सिंह एक अत्यधिक सम्मानित राजनेता थे. जिन राष्ट्राध्यक्षों ने जलवायु समझौते या उन दिनों के किसी भी मुद्दे पर उपदेश देने की कोशिश की, उन्हें इस बात पर व्याख्यान देते देखा गया कि भारत जैसे देश में अलग सिद्धांतों को लागू करने की आवश्यकता क्यों है.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें अपना "गुरु" कहा. आर्थिक मंदी के दौरान हुई सभी बैठकों में उन्होंने अपनी बात रखी. किसी ने भी उनको दबाकर बात करने की हिम्मत नहीं की, कम से कम विश्व के सभी नेताओं में से किसी की भी हिम्मत नहीं हुई. दरअसल, जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने अपने लोगों को निर्देश दिया था कि वे भारत के साथ आर्थिक सहयोग के सभी प्रस्तावों को मंजूरी दें.
वह काबुल में नाश्ता, लाहौर में लंच और दिल्ली में रात के खाने का सपना दिखाकर एक स्थायी इतिहास बनाने की इच्छा रखते थे, लेकिन मुंबई में हुए आतंकवादी हमले से उनके पवित्र विचारों पर पानी फिर गया.
उन्होंने तब भी सहानुभूति दिखाई जब उन्होंने हवाना, क्यूबा जाते समय इस लेखक से स्पष्ट रूप से कहा कि पाकिस्तान भी "आतंकवाद का शिकार" था. बाद में मिस्र के शर्म-अल-शेख में उन्होंने पाकिस्तान-नियंत्रित बलूचिस्तान में भारत के हस्तक्षेप के आरोप पर गौर करने के लिए एक बड़े दिल वाले पड़ोसी की तरह उदारता दिखाई. जब पार्टी ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की तो मामले को आनन-फानन में वापस ले लिया गया.
यह बात उस महान विचार को नष्ट करने वाली साबित हुई जो 2004 में शुरू हुआ था और जिसने देश का चेहरा बदल दिया. लेकिन बाद में यह एक आपदा बन गया और इसने धर्मनिरपेक्षता को बदनाम कर दिया.
दुख की बात है कि वह कई बलिदान देने के बावजूद बीजेपी के रथ को रोकने में विफल रहे. उनके बलिदान में कई लोगों द्वारा "गांधीवादी" कहे जाने वाले को स्थान और विश्वसनीयता देना भी शामिल था, जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया और दिल्ली और उसके बाहर कांग्रेस को नष्ट कर दिया. मनमोहन सिंह को कई चीजों के लिए जाना जाएगा, जिनमें लोकतंत्र के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता भी शामिल है.
(लेखक दिल्ली की हार्डन्यूज पत्रिका के एडिटर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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