Members Only
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Hindi Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019‘‘जो कानून मासूमों की हिफाजत के लिए है, उसी ने ली ‘पीहू’ की जान’’

‘‘जो कानून मासूमों की हिफाजत के लिए है, उसी ने ली ‘पीहू’ की जान’’

‘सबसे छोटे ताबूत सबसे भारी होते हैं...’

Vinod Kapri
नजरिया
Updated:
जीवन का सबसे बड़ा बोझ होता है, माता पिता की गोद में बच्ची का शव
i
जीवन का सबसे बड़ा बोझ होता है, माता पिता की गोद में बच्ची का शव
(फोटो: क्विंट हिंदी)

advertisement

माननीय प्रधानमंत्री जी और देश के सभी सम्मानिय मुख्यमंत्री जी,

ये खुला खत हम आपको बहुत ही भारी मन से व्यथित होकर लिख रहे हैं. इसे किसी पत्रकार की नहीं, बल्कि एक माता पिता की चिट्ठी समझकर पढ़िएगा, और आपको इसलिए लिख रहे हैं कि आप देश के प्रधानमंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री हैं और इस देश के हर नागरिक की जिम्मेदारी आपकी भी है.

क्या आप जानते हैं कि आज से 25 दिन पहले इस भारत देश में एक बच्ची ने जन्म लिया था जिसे नाम दिया गया अज्ञात शिशु और ठीक 25 दिन बाद उस अज्ञात ने दम तोड़ दिया.

वो अज्ञात क्यों थी?

उसने 25 दिन में ही दम क्यों तोड़ दिया? वो और क्यों नहीं जी पाई?

क्या उसे हमारे सिस्टम, हमारे कानून ने मारा?

या उसकी मौत तय थी?

आज उस फूल सी बच्ची के अंतिम संस्कार से जब हम जयपुर से दिल्ली की तरफ लौट रहे हैं और आठ लेन के नए भारत की सड़क पर हमारी गाड़ी दौड़ रही है, तो ये सारे सवाल मन में आ रहे हैं. हम सोच रहे हैं कि सुपरपावर बनने की दिशा में बढ़ता देश एक छोटी सी बच्ची को क्यों नहीं बचा पाया? आपको शायद इस घटना की पूरी जानकारी नहीं होगी, इसलिए संक्षेप में इसे हम यहां लिख रहे हैं:

14 जून को हमने ट्विटर पर एक वीडियो देखा, जिसमें एक नवजात बच्ची कूड़े के ढेर में पड़ी थी और बुरी तरह कराह रही थी. ये वीडियो किसी भी इंसान को द्रवित कर सकता था, हमें भी किया. हमने तुरंत ट्विटर पर लिखा कि क्या कोई ये बता सकता है कि ये वीडियो और बच्ची कहां की है? हम इसे गोद लेना चाहते हैं. ट्विटर पर सक्रिय लोगों की भलमनसाहत का नतीजा कि 14 जून 2019 को 2 घंटे के अंदर ही पता चल गया कि बच्ची 12 जून को राजस्थान के नागौर जिले में कूड़े के ढेर पर पड़ी मिली थी.

कुछ गांव वालों ने उसे अस्पताल पहुंचाया और फिलहाल नागौर के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है. हमने तुरंत अस्पताल के शिशु विभाग के प्रमुख डॉ आर के सुतार से बात की, उन्हें बताया कि हम इस बच्ची को गोद लेना चाहते हैं.

(फोटो: क्विंट हिंदी)

इसकी देखरेख और इसका उचित इलाज करना चाहते हैं. उस वक्त फोन करने का एकमात्र मकसद ये था कि ये सिस्टम, हमारे सरकारी कानून और उससे बंधे डॉक्टर कहीं इस गलतफहमी में न रहें कि इस बच्ची का कोई नहीं है और आगे भी कोई नहीं होगा. बच्ची की जो और जैसी भी हालत थी, हम उसे गोद लेने के अपने फैसले पर कायम रहे और अगले ही दिन 15 जून, 2019 को नोएडा से नागौर के लिए रवाना हुए.

हमारा मकसद एक बार फिर सिस्टम और डॉक्टरों को ये बताना था कि बच्ची लावारिस नहीं है और उसे लावारिस न समझा जाए. चाहे कानूनी तौर पर वो हमारी बेटी न बनी हो.

15 जून की रात हम पहली बार बच्ची से मिले, उसका स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक था. उसे सिर्फ पीलिया की शिकायत थी, जो नवजात बच्चों में सामान्य बात है. तब तक बच्ची के बारे में सोशल मीडिया के जरिए देश और विदेश में बहुत चर्चा होने लगी थी और ट्विटर पर सक्रिय कुछ लोगों ने बच्ची को पीहू कहके पुकारना शुरु कर दिया था. अगले दिन 16 जून को हम एक बार फिर बच्ची से मिलने पहुंचे. शिशु विभाग के अध्यक्ष डॉ आर के सुतार भी हमारे साथ थे.

उन्होंने हमें आश्वासन दिया कि बच्ची की देखभाल अच्छे से हो रही है. हमारे पास उनकी बात पर भरोसा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. इतना ही नहीं, हमने देश के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन की भी डॉ सुतार से बात करवाई. मकसद फिर वही संदेश था कि बच्ची अनाथ नहीं है.

16 जून को ही हम नागौर के कलेक्टर दिनेश चंद्र यादव से मिले और बच्ची को गोद लेने की इच्छा जताई. कलेक्टर ने हमें बताया कि कानून के मुताबिक किसी भी बच्चे को तुरंत गोद देने का प्रावधान नहीं है और हमें CARA (Central adoption Resource Authority) में अप्लाई करना होगा. हमने पूछा कि जब तक बच्ची को परिवार नहीं मिल जाता क्या तब तक हम उसकी देख रेख कर सकते हैं?

तो उनका जवाब था कि कानून में इसका भी कोई प्रावधान नहीं है. बच्ची को सरकार के संरक्षण में ही रहना होगा. हमने उसी वक्त सोचा कि ये सरकार कौन है? इस सरकार का कौन सा वो चेहरा है या इस सरकार का कौन सा वो व्यक्ति है? और उस व्यक्ति का क्या नाम है जो इस बच्ची की देखभाल करेगा और सुबह शाम खबर लेगा.

जवाब न हमारे पास था न कलेक्टर के पास. यही वो सवाल है जिसका जवाब ढूंढने के लिए ये खत हम आपको लिख रहे हैं, क्योंकि आज जब बच्ची नहीं रही तो पता चल रहा है कि 'सरकार के संरक्षण में बच्ची है', इसका मतलब एक नहीं कई सारे विभाग हैं. बाल विभाग, सामाजिक कल्याण विभाग, पुलिस, अस्पताल और CARA. इतने सारे विभाग मिलकर सरकार बनती है और इतने सारे विभागों के बावजूद एक भी इंसानी चेहरा नहीं, जो बच्ची का खयाल रख सके. इस पर हम बाद में आएंगे.

तो नागौर में बच्ची से मिलने के एक दिन बाद 18 जून को हम CARA में रजिस्टर हो गए. हमें बताया गया कि नियम बड़े सख्त हैं. प्रकिया बड़ी लंबी है. बच्ची आपको मिलेगी भी या नहीं - ये भी बहुत मुश्किल है, लेकिन इन सब बातों की परवाह किए बिना हम दिन रात नागौर में पीहू की खबर लेते रहे. डॉ सुतार इस बात के गवाह हैं कि उनके पास दिन में रोज तीन फोन आते थे कि नहीं. मकसद एक बार यही बताना था कि बच्ची अनाथ नहीं है. हालांकि हम जानते थे कि कानूनी तौर पर हमारा बच्ची पर कोई अधिकार नहीं है और डॉक्टर जिस दिन चाहे हमें मना कर सकते थे.

इसी दौरान 23 जून के आसपास हमें पता चला कि बच्ची को जब भी दूध पिलाओ, उसका पेट फूल जाता है और वो पूरा दूध उल्टी की शक्ल में बाहर निकाल देती है. हमने डॉक्टर सुतार से पूछा कि खतरे की कोई बात तो नहीं? उन्होंने कहा, 'बिलकुल नहीं. हम भरोसा करने के अलावा और क्या कर सकते थे.'

फिर तकरीबन 28 जून को हमें पता चला कि उल्टी तो हो ही रही है, हीमोग्लोबिन भी गिर गया है और ब्लड ट्रांसफ्यूजन होगा. डॉक्टर सुतार से फिर पूछा कि कोई खतरा तो नहीं? उनका जवाब था कि ब्ल्ड ट्रांसफ्यूजन से हीमोग्लोबिन ठीक हो जाएगा. हमने फिर भरोसा किया. इसके बाद 30 जून को हमें फिर पता चला कि आज भी ब्लड ट्रांसफ्यूजन होगा.

समझ में नहीं आया कि 18 दिन की बच्ची के साथ ये क्यों हो रहा है? अपने एक दो जानने वाले डॉक्टरों से बात की तो उन्होंने संदेह जताया कि बच्ची की बीमारी या तो ठीक से पता नहीं चल पाई है या इलाज ठीक नहीं है.

यही बात हमने डॉक्टर सुतार को बताई और इसके ठीक एक दिन बाद 2 जुलाई को डॉ सुतार का फोन आया कि बच्ची को हम जोधपुर के उम्मेद अस्तपाल रेफर कर रहे हैं. हमने पूछा कि ऐसा अचानक क्या हुआ तो उन्होंने बस इतना बताया कि इंफेक्शन है. हमने फिर भरोसा किया. हमारे पास यही विकल्प भी था.

3 जुलाई तक आते आते हमने जोधपुर उम्मेद अस्पताल के डॉक्टर अनुराग सिंह से बात की तो उन्होंने जानकारी दी कि बच्ची की हालत वैसी नहीं है, जैसी उन्हें बताई गई थी. बच्ची की आंतों में बहुत इंफेक्शन है और उसके मुंह से दूध नहीं, बल्कि उसका अपना स्टूल बाहर निकल रहा है. उन्होंने ये भी बताया कि जोधपुर में बच्ची का इलाज संभव नहीं है. इसे तुरंत जयपुर के जेके लॉन अस्पताल भेजा जाना चाहिए, लेकिन हमारे पास बच्ची को जयपुर तक भेजने के लिए जैसी एंबुलेंस होनी चाहिए, वैसी एंबुलेंस नहीं है. हमने तुरंत अपने संपर्कों के जरिए राजस्थान के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुंचाई. ट्वीट किया और मदद की अपील की.

अगले दिन 4 जुलाई को राजस्थान के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट ने हमें ट्वीट करके सूचित किया कि बच्ची को जेके लॉन जयपुर में शिफ्ट कर दिया गया है और उसे अस्पताल के एमएस डॉ अशोक गुप्ता की निगरानी में बेहतरीन इलाज दिया जाएगा. कानूनी तौर पर हम उस बच्ची के कोई नहीं थे, लेकिन जब सार्वजनिक तौर पर हमें एक राज्य के उपमुख्यमंत्री की तरफ से सूचना दी गई तो हमें लगा कि अब सिस्टम काम करेगा.

इसके बावजूद एक दिन बाद 6 जुलाई को हम जयपुर पहुंचे. बच्ची से अस्पताल में मिले. एक बार फिर सबको ये बताने के लिए कि ये बच्ची लावारिस नहीं है. हालांकि तब तक सिस्टम को ये बात पता चल चुकी थी, लेकिन बच्ची के नाम के आगे फिर लिख दिया गया था: अज्ञात शिशु. कम से कम CARA की तरफ से दिया नाम गंगा ही लिख देते. हमने पूछा तो जवाब मिला कि हमारे रिकॉर्ड्स में ये अज्ञात ही है. हम भी कुछ नहीं कर सकते थे. सोचा कि इस वक्त बेहतर इलाज हो जाए - इतना काफी है.

जयपुर में जेके लॉन के अधीक्षक डॉक्टर अशोक गुप्ता ने बताया कि कि आंतों में इंफेक्शन इस कदर बढ़ गया है कि सारी आंते उलझ गई हैं. शरीर के जिस हिस्से से स्टूल पास होना चाहिए, वहां से ना हो कर मुंह से हो रहा है. इंफेक्शन रोकने के लिए दी जा रहीं एंटी-बायोटिक्स काम नहीं कर रही हैं. अब उपाय बस एक ही है कि जल्द से जल्द सर्जरी की जाए.

रविवार, 7 जुलाई की सुबह 9.30 बजे का वक्त तय हुआ. डॉक्टरों की पूरी टीम सर्जरी के लिए 8.30 बजे ही पहुंच गई थी. सर्जरी से पहले के सारे जरूरी टेस्ट किए जाने लगे. एनेस्थीसिया की तैयारी शुरू हुई और फिर तकरीबन सुबह 9 बजे आई एक बुरी खबर... बच्ची के प्लेटलेट काउंट गिर कर 8000 तक पहुंच गए हैं और कम से कम आज तो सर्जरी नहीं हो सकती है.

वो सर्जरी, जिसका 7 जुलाई को होना बेहद जरूरी था. डॉक्टरों की टीम दुखी थी, लेकिन साथ ही उन्हे विश्वास भी था कि ये बच्ची लड़ाका है... अभी और लड़ेगी और खुद को तैयार कर लेगी ऑपरेशन के लिए... तभी

जेके लॉन अस्पताल के आईसीयू में पीहू की उम्र के ही 25-30 बच्चों में से एक बच्चे के रोने की आवाज आई... पांच सेकेंड के अंदर दूसरा बच्चा रोने लगा... और फिर तीसरा... और चौथा... मानों सब अपनी इस बच्ची के साथ खड़े हो गए हों.

पीहू की बीमारी बेहद गंभीर थी. ऑपरेशन ही एकमात्र सहारा था. वो लगातार वेंटिलेटर के सपोर्ट पर थी. आधे फीट जितने शरीर को चारों तरफ से तारों ने जकड़ा हुआ था. इतनी तारें कि उसमें शरीर तक नहीं दिख रहा था. पेट के पास एक पाइप लगा कर ड्रेन बना दिया गया, ताकि उसका स्टूल उस पाइप के जरिए शरीर से बाहर आ सके. सोचिए, इतनी छोटी सी बच्ची को क्या-क्या देखना पड़ रहा था.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

और फिर 8 जुलाई को सुबह 11.30 बजे हमें खबर मिली कि बच्ची नहीं रही. हमें किसी ने बताया हो, ऐसा बिलकुल नहीं था. हम ही बार बार फोन करके पूछ रहे थे. हमारे पूछने पर डॉ विष्णु ने बताया कि शायद वो बच्ची कल शाम ही एक्सपायर कर गई है. हम सन्न थे. कल शाम तक तो हम जयपुर में ही थे. फिर हमें क्यों नहीं पता चला? हमने पूछा, क्या आपको 100 प्रतिशत यकीन है?

(फोटो: क्विंट हिंदी)

उनका जवाब था कि रुकिए फिर से कंफर्म करता हूं. हमने आनन-फानन में अस्पताल के अधीक्षक डॉ अशोक गुप्ता को फोन लगाया कि क्या उस बच्ची की मौत हो गई है?, तो डॉ गुप्ता का जवाब था कि मुझे इसकी जानकारी नहीं है. मैं आपको पता करके बताता हूं. तकरीबन 25 मिनट बाद दोपहर 12 बजे हमें बताया गया कि हां... बच्ची नहीं रही. सुबह 4 बजे उसने आखिरी सांस ली थी. 8 जुलाई को सुबह चार बजे वो बच्ची ये दुनिया छोड़ कर चली गई.

खबर मिलते ही हम जयपुर के लिए रवाना हो गए.

रास्ते भर यही कॉआर्डिनेट करते रहे कि उसे जन्म के बाद तो सम्मान नहीं मिला. कम से कम मृत्यु के बाद तो सम्मान मिले. उसे जन्म के बाद तो माता-पिता नहीं मिले. कम से कम मृत्यु के बाद तो उसके ऊपर मां-बाप का साया हो.

तमाम नियम-कानून से हटकर. शाम 6 बजे हम जयपुर पहुंच कर सीधे शवगृह गए. देखकर व्यथित हो गए कि 25 दिन की एक फूल सी बच्ची 10-12 और क्षत-विक्षत शवों के बीच रखी गई थी. लग रहा था कि वो गहरी नींद में है और परियों के सपने देख रही है. 16 जून के बाद एक बार फिर अपनी बच्ची को गोद में उठाया, उसके बाल सहलाए, उसके गाल सहलाए. उसे बहुत सारा प्यार किया तो गोद में रखे-रखे पहली बार एहसास हुआ कि 'सबसे छोटे ताबूत सबसे भारी होते हैं...' दुनिया का सबसे भारी बोझ... माता पिता की गोद में बच्ची का शव और वो भी 25 दिन की बच्ची.

उसे फिर से अंदर ले जाया गया और पोस्टमार्टम हाउस का दरवाजा बंद हो गया. हमने डॉक्टरों से पूछा कि क्या ये बच्ची रात भर इन्हीं शवों के बीच रहेगी? तो जवाब था कि हां जब तक सारी औपचारिकताएं पूरी नहीं हो जातीं, तब तक. औपचारिकता ये कि पहले जिस जगह नागौर ये बच्ची लावारिस मिली, पहले वहां की पुलिस जयपुर आएगी. पंचनामा बनाएगी. मेडिकल बोर्ड बैठेगा. बच्ची के पोस्टमार्टम तय करेगा. तब जा कर पोस्टमार्टम होगा और फिर अंतिम संस्कार.

अगले दिन 9 जुलाई को हमारी बस एक ही मंशा थी कि जिस बच्ची को जन्म के बाद मां-बाप नहीं मिले, उसे कम से कम मृत्यु के बाद तो माता-पिता मिल जाएं. हम दो दिन से जयपुर में थे. सरकार, पुलिस, बाल विभाग का दिल पसीजा और पोस्टमार्टम के बाद सरकार के नुमांइदो की मौजूदगी में हमने माता-पिता के तौर अपनी बच्ची को विदा किया. क्या विडंबना है कि जिस बच्ची को जीते जी मां-बाप नहीं मिल सके, उसे मृ्त्यु के बाद ये सब नसीब हो पाया. काश... जीवन रहते उसे मां-बाप मिल जाते तो वो हमारे बीच होती.

तो ये थी इस बच्ची की 25 दिन की इस दुनिया में यात्रा, लेकिन इस छोटी सी बच्ची ने इस देश के गोद लेने के कानून और हमारे सिस्टम पर कुछ बेहद बड़े सवाल किए हैं:

  • ये सरकार कौन है और उसका इंसानी चेहरा कौन है जो ऐसे बच्चों का खयाल रख सके?
  • अगर कोई सरकार है और उसके पास इंसानी चेहरे हैं तो 25 दिन तक इनमें से एक भी चेहरा हमारी बच्ची के पास एक बार भी क्यों नहीं आया?
  • इन पूरे 25 दिनों के दौरान सरकार यानी पुलिस, प्रशासन, बाल शिशु गृह, CARA अस्पताल कहां थे?
  • डॉक्टरों का तो काम था इलाज करना, लेकिन क्या एक बार भी शिशु गृह, बाल कल्याण समिति (CWC), CARA से कोई भी इस बच्ची को देखने आया और आया तो उसने क्या किया?
  • कौन नागौर के डॉ सुतार और वहां के डॉक्टरों के काम पर नजर रख रहा था और अगर रख रहा था तो 13 जून से 2 जुलाई तक नागौर में बच्ची की बिगड़ती हालत पर सब चुप क्यों रहे?
  • बच्ची मुंह से दूध उलट रही है या मुंह से अपना स्टूल निकाल रही है, ये बात नागौर के डॉक्टरों को बात क्यों नहीं समझ आई? और इस पूरे घटनाक्रम में CWC, CARA कहां था?
  • बच्ची को नागौर से जोधपुर और जोधपुर से जयपुर भेजने का फैसला इतनी देर से क्यों लिया गया?

नागौर के अस्पताल में पहुंचने के दूसरे दिन ही देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने डॉ सुतार को फोन करके बच्ची का खयाल रखने की हिदायत दे दी थी. जब स्वास्थ्य मंत्री की हिदायत के बावजूद बच्ची नहीं बची, तो सोचिए देश के बाकी अनाथ बच्चों का क्या हाल होता होगा?

एक लावारिस बच्ची को जब पहले ही दिन उसकी देखभाल करने के लिए माता पिता मिलने जा रहे थे तो उन्हें क्यों कानून की बेड़ियों में जकड़ा गया?

(फोटो: क्विंट हिंदी)

पहले दिन ही ऐसे माता-पिता को ये अघिकार (भले ही वो अस्थायी हो) क्यों नहीं दे दिया गया कि वो बच्ची के भले के लिए फैसले करे और जो भी अच्छा-बुरा होगा, उसके जिम्मेदार वो होंगे? जैसे मां-बाप अपने बच्चों के लिए करते हैं.

जो खतरे की बात जोधपुर के डॉ अनुराग को 3 जुलाई को कुछ ही घंटो में पता चल गई थी, वो बात नागौर को 20 दिन तक क्यों नहीं पता चली? और समझ में नहीं आ रहा था तो पहले ही रेफर क्यों नहीं कर दिया गया?

ये गोद लेने का ही कानून का ही असर है कि बच्ची का ढाई हफ्ते तक नागौर के छोटे से अस्पताल में इलाज चलता रहा, उसकी हालत बिगड़ती ही चली गई. ये भी गोद लेने का कानून का ही असर है कि उसे नागौर से जयपुर ना भेजकर जोधपुर भेजा गया और जोधपुर को भी 24 घंटे ही समझ आ गया कि हालात ठीक नहीं हैं, और ये भी गोद लेने का कानून का ही असर है कि जब बच्ची जयपुर पहुंची तो बुरी तरह इंफेक्शन में जकड़ी हुई थी और जो सर्जरी एक हफ्ते पहले हो जानी चाहिए थी, वो हो ही नहीं पाई.

गोद लेने के इस कानून में पहले दिन से ही कोई इंसान क्यों नहीं जुड़ जाता, जो बच्चे के बारे में फैसले ले सके? एक नवजात बच्चे को भी सरकार सिर्फ एक फाइल क्यों मान लेती है कि जैसे फाइल आगे बढ़ती रहती है, वैसे ही बच्चे भी बढ़ जाएंगे ? वो भी इतने छोटे और गंभीर बीमार बच्चे?

क्या कोई एक भी व्यक्ति, विभाग, एजेंसी बताएगी कि पीहू या इस जैसे बच्चे ऐसे हालात तक क्यों पहुंचते हैं कि वो सर्जरी के लायक भी नहीं रही?

वो क्यों अकेले ही नागौर के अस्पताल में लड़ती रही बिना ये जाने कि उसका छोटा सा इंफेक्शन कुछ दिन बाद उसकी जान लेने वाला है?

हम नोएडा से दिन में तीन-तीन बार नागौर फोन करके बच्ची की खबर ले सकते थे, तो CWC और CARA जिसकी जिम्मेदारी थी, वो क्या कर रहे थे?

CARA के CEO ने तो बकायदा ट्वीट करके लिखा था कि बच्ची का नाम गंगा रख दिया गया है, तो वो क्यों मृत्यु तक 'अज्ञात शिशु' का टैग लिए घूमती रही? वो क्यों अज्ञात शिशु के तौर पर अस्पताल से लेकर पोस्टमार्टम हाउस तक जानी गई? सुबह 4 बजे मृत्यु होने के बावजूद 14 घंटे में शाम 6 बजे तक उसका पोस्टमार्टम क्यों नहीं हुआ? उस छोटी सी बच्ची को क्यों पूरी रात तमाम शवों के बीच गुजारनी पड़ी? अगर उसके माता-पिता होते या हमें ही अस्थायी तौर पर उसके माता-पिता बनने का अधिकार मिलता तो ये हम कभी होने देते? हरगिज़ नहीं.

जयपुर में बच्ची की सर्जरी की तारीख 7 जुलाई तय हुई, लेकिन तब तक उसकी हालत इतनी बिगड़ चुकी थी कि सर्जरी असंभव थी. इस जानलेवा देरी के लिए कौन जिम्मेदार है? नागौर के डॉक्टर? नागौर का CWC? राजस्थान की सरकार?? दिल्ली का CARA? या केंद्र में बैठे लोग? या हमारे जैसे माता-पिता जो दिल से तो बच्ची को अपना मान चुके हैं पर कानूनी तौर पर कुछ नहीं कर सकते?

इतना ही नहीं, अगर बच्ची के संरक्षण की जिम्मेदारी सरकार की थी और खुद राज्य के उपमुख्यमंत्री की नजर इस मामले पर थी, तो जेके लॉन अस्पताल के अधीक्षक तक को बच्ची की मौत की खबर हम से क्यों मिली? कहां थी वो सरकार ओर कहां है वो सरकार जिसे इस बच्ची को संरक्षण देना था?

और एक सवाल तो सब के लिए... पूरे देश के लिए... जिस बच्ची को दो पत्रकार गोद लेना चाहते हों, जिस बच्ची पर पूरी दुनिया की नजर थी, जिस बच्ची के लिए देश के स्वास्थ्य मंत्री ने फोन किया हो, जिस बच्ची पर राज्य के उपमुख्यमंत्री हों, अगर ऐसी बच्ची को हम नहीं बचा पाए तो हमें समझ लेना चाहिए कि इस देश का सिस्टम बुरी तरह सड़ और गल गया है.

आदरणीय प्रधानमंत्री जी और तमाम मुख्यमंत्री जी,

ये ही हमारा आखिरी सवाल है. जब सरकार थी तो जो बच्ची आराम से बच सकती थी, उसे क्यों नहीं बचाया जा सका? हमारे हिसाब से बच्चे की स्वाभाविक मृत्यु नहीं हुई है. उसे हमारे घिसे-पिटे संवेदनहीन कानून और सड़ चुके सिस्टम ने मारा है. हमारी मांग है कि हमारी बच्ची की मृत्यु की न्यायिक जांच होनी चाहिए.

आप सब नीति निर्धारक है. देश और लोगों के लिए अच्छा ही सोचेंगे. हमारा बस एक ही सुझाव है. और वो ये कि अगर किसी बच्चे को पहले दिन ही तुरंत अस्थायी गार्जियन या फोस्टर पेरेंट्स मिल रहे हैं, तो बिना देर किए कानूनी लिखा-पढ़ी करके बच्चे/बच्ची को तुरंत ऐसे पेरेंट्स को सौंप देना चाहिंए... भले ही ये व्यवस्था अस्थायी क्यों ना हो. हम ये दावे के साथ कह सकते हैं कि हमारी पीहू के बारे में फैसले करने का अधिकार पहले दिन से हमारे पास होता तो हम इसे बचा ले जाते.

दूसरा ,प्लीज जिस बच्चे को कुछ भी समझ नहीं है उसे अज्ञात या अज्ञात शिशु लिखना बंद कीजिए.

कोई बच्चा कैसे अज्ञात हो सकता है. अज्ञात तो उसके मां-बाप हैं. बच्चा तो सामने है और अज्ञात नहीं, विख्यात है. पीहू आप लोगों के लिए बहुत सारे सवाल छोड़ गई है. आपका काम है उन सवालों के जवाब ढूंढना और हल निकालना, वरना देश की तमाम पीहू यूं ही असमय मृत्यु की शिकार होती रहेंगी और आप सब ऐसी मौत के जिम्मेदार ठहराए जाते रहेंगे?

सारे भ्रष्टाचार कर लीजिए. कम से कम शिशु वध का पाप तो अपने सिर मत लीजिए. सामने आइए और बचाइए: एक नहीं, हजारों पीहू/गंगा को.

आपकी पहल और कानून में सुधार के इंतजार में...

Become a Member to unlock
  • Access to all paywalled content on site
  • Ad-free experience across The Quint
  • Early previews of our Special Projects
Continue

Published: 10 Jul 2019,05:52 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT