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खाने की चीजों की कीमत बढ़ रही,फिर किसानों की कमाई क्यों नहीं बढ़ती

बीते महीने लासलगांव थोक मंडी में प्याज की कीमत 10-12 रुपए किलो थी. इस हफ्ते यह 30 रुपए किलो तक पहुंच गई

अनिंद्यो चक्रवर्ती
नजरिया
Updated:
प्याज की कीमतें क्यों बढ़ रही हैं?
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प्याज की कीमतें क्यों बढ़ रही हैं?
(फोटो- क्विंट हिंदी)

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जब अवध के नवाब वाजिद अली शाह को कंपनी बहादुर ने देश निकाला देकर अपनी राजधानी कलकत्ता बुलवा लिया, तो उनके खानसामे को लखनऊ के मांस और भारी व्यंजनों को फिर से बनाने में काफी मुश्किल आईं. हालांकि नवाब के ऐशो-आराम में कोई कटौती नहीं हुई थी, लेकिन जितनी रकम अंग्रेजों द्वारा नवाब को दी जानी मुकर्रर हुई थी, उसमें नवाब के नौकरों-चाकरों का पेट भरना मुश्किल था. यही वजह थी कि अवधी बिरयानी के कोलकाता संस्करण में आलू का इस्तेमाल किया जाने लगा. चूंकि आलू सस्ते थे, इसलिए शाही खानसामों ने मीट के स्थान पर रेसिपी में तले हुए आलुओं का प्रयोग किया.

(Image: The Quint)

प्याज की कीमतें क्यों बढ़ रही हैं?

ये 2020 है और अच्छी चीजें इस साल लंबे समय तक चलने वाली नहीं हैं. बीते दो हफ्ते में प्याज की कीमत तेजी से बढ़ी हैं. बीते महीने देश के सबसे बड़े प्याज के हब कहे जाने वाले महाराष्ट्र के लासलगांव थोक मंडी में प्याज की कीमत 10-12 रुपए किलो थी. इस हफ्ते यह 30 रुपए किलो तक पहुंच गई, और मेरे और आप तक पहुंचने पर इसमें 20 रुपए और जुड़ जाते हैं.

इसमें ट्रांसपोर्ट की लागत, लोकल थोक मंडी में ट्रेडर का कमीशन, सड़ने से बर्बादी, सूखने के कारण वजन में कमी और आखिर में स्थानीय सब्जीवाले का अपना मार्जिन शामिल होता है.

वैसे प्याज ज्यादातर सर्दियों की फसल है, इस वजह से जनवरी से अप्रैल तक इसकी सप्लाई की जाती है. मई और जून तक बड़े थोक व्यापारी इसका स्टॉक कर लेते हैं, इस वजह से जुलाई तक प्याज की कीमतें बढ़ जाती हैं. हर साल अगस्त में प्याज की छोटी फसल कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु से आती है. इस साल बेमौसम बारिश ने गर्मी की फसल का एक प्रमुख हिस्सा खराब कर दिया और इससे कीमतों में तेजी आई.

  • बीते महीने महाराष्ट्र के लासलगांव थोक मंडी में प्याज की कीमत 10-12 रुपए किलो थी. इस हफ्ते यह 30 रुपए किलो तक पहुंच गई.

  • हर साल अगस्त में प्याज की छोटी फसल कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु से आती है. इस साल बेमौसम बारिश ने गर्मी की फसल का एक प्रमुख हिस्सा खराब कर दिया.

  • प्याज की थोक की कीमत इस साल की शुरुआत में काफी ज्यादा थी.

  • कीमतें पहले नरम हुईं और फिर तेजी से गिर गईं, व्यापारियों ने भारी मात्रा में प्याज का निर्यात शुरू कर दिया. इससे निपटने के लिए सरकार ने दोबारा से प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी.

भारत की इकनॉमी को प्याज ने रुलाया

दिलचस्प रूप से, प्याज की थोक की कीमत इस साल की शुरुआत में काफी ज्यादा थी. मार्च तक थोक बाजार में पिछले साल की तुलना में इसकी कीमत में 112% का उछाल आया. अप्रैल तक कीमत में 72% की बढ़ोतरी हुई, लेकिन मई तक इसमें 5.8% की नरमी रही, इसका नतीजा ये हुआ कि मार्केट में प्याज की कीमत गिर गई. थोक मार्केट में जून में प्याज की कीमत 15% तक गिरी, जुलाई 26% और अगस्त में 34% की कमी आई.

कीमतें पहले नरम हुईं और फिर तेजी से गिर गईं, व्यापारियों ने भारी मात्रा में प्याज का निर्यात शुरू कर दिया. 2019-20 में भारत से 2,340 करोड़ रुपए कीमत की प्याज निर्यात की गई. इस साल शुरू के अकेले तीन महीनों में 1200 करोड़ रुपए की प्याज निर्यात की जा चुकी है.

इसका एक कारण ये भी था कि सर्दियों में कीमत बढ़ने के बाद पिछले साल के आखिर में प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. फिर मार्च में इससे पूरी तरह पाबंदी हटा ली गई. जब गोदामों में पड़ा प्याज हम लोगों के लिए हो सकता था, उस वक्त सरकार ने निर्यात बढ़ा दिया. इसके बाद फिर प्याज की किल्लत हो गई. इससे निपटने के लिए सरकार ने दोबारा से प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी.

भारतीय परिवार में औसतन एक महीने में 4 से 5 किलो प्याज की खपत होती है. इसमें उन लोगों को रखा जा सकता है जो शुद्ध शाकाहारी हैं- जैसे हमारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण. फिर भी परिवार में औसतन प्याज की खपत 7 से 8 किलो होती है. प्याज ऐसी चीज है, जिसे हर सब्जी की करी बनाने में इस्तेमाल किया जाता है और सब्जियों को स्वादिष्ट बनाता है. ठीक इसी तरह की भूमिका टमाटर की भी है. बेशक, जब महंगी सब्जी या मांस खाने की बात आती है तो आलुओं के सामने ये फीके पड़ जाते हैं.

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लॉकडाउन ने खाने की कीमतों को कैसे प्रभावित किया

तीन प्रमुख सब्जियां - आलू, प्याज और टमाटर का एक समय में महंगा हो जाना असामान्य बात है. विडंबना यह है कि लॉकडाउन के शुरुआती समय में किसानों की फसलों को भारी नुकसान हुआ, जिस वजह कीमतों में असामान्य उछाल देखने मिला है. टमाटर तेजी से खराब होते हैं, इसलिए 1 से 2 रुपए किलो भाव से बेचे गए, अप्रैल और मई महीने में ट्रांसपोर्ट भी ठप था. अभी बाजार में टमाटर की आमद महाराष्ट्र और दक्षिणी राज्यों से आ रही है, क्योंकि लॉकडाउन के दौरान वहां इसकी फसल लगाई गई थी.

रिपोर्ट्स से पता चलता है कि किसान इस मौसम में टमाटर को कम ही उगा रहे हैं, क्योंकि उन्हें यकीन नहीं है कि इसका सही दाम मिलेगा भी या नहीं.

यह अभी तक लॉकडाउन का अनुमानित प्रभाव है, जिसे मोदी सरकार दूर करने में विफल रही है. हालांकि, सरकार का सपोर्ट करने वाले लोग दावा करेंगे कि जिन खाने के दाम बीते कुछ महीनों में बढ़े हैं, वो उपभोक्ताओं के लिए खराब हो सकते हैं, लेकिन ये किसानों के लिए अच्छा है, जो ज्यादा कमाई करते हैं. अगर ये बात सच थी तो खाने की चीजों की थोक कीमतों को भी खुदरा कीमतों के मुताबिक बढ़ाने की जरूरत है.

प्याज की चढ़ती कीमतों से अमीर नहीं हो रहा किसान

हालांकि ऐसा नहीं है. खाद्य सामग्री की थोक कीमत इस वित्त वर्ष के पहले तीन महीनों में 2.4% थी, जबकि खुदरा कीमतों में 8% की बढ़ोतरी हुई थी.

तब से, खाद्य सामग्री का होलसेल प्राइज इंडेक्स (WPI) 4.1% हो चुका है, लेकिन अगस्त में इसमें 3.8% की कमी आई है. वहीं, इसी दौरान खुदरा कीमतें 9.3% और 9.1% की दर से बढ़ी हैं.

दूसरे शब्दों में कहें, तो सब्जियों और फलों की बढ़ी हुई कीमतों से किसानों ने एक पैसा भी नहीं कमाया. अगर बारिश ने किसानों की फसल का कुछ हिस्सा खराब कर दिया है तो फिर किसानों की स्थिति बेहद खराब है. वहीं, इस बात की संभावना है कि कुछ बड़े व्यापारियों ने आलू और प्याज की जमाखोरी करके बढ़ी कीमतों से फायदा उठाया और खुदरा कीमतें बढ़ने से वह अपना स्टॉक बाहर निकालेंगे.

अगर केंद्र और राज्य सरकार सही प्लानिंग और तालमेल के साथ काम करतीं तो इन सबसे बचा जा सकता था या इसके प्रभाव को कम किया जा सकता था. मोबाइल का विशाल नेटवर्क और सस्ता डेटा होने के साथ ऐसा कोई कारण नहीं बनता कि फसलों की जानकारी लगातार और व्यवस्थित तरीके से इकट्‌ठा नहीं की जा सकता थी. अगर हम फसल की कमी की प्लानिंग नहीं कर सकते और किसानों को उचित दाम की जानकारी नहीं दे सकते तो फिर हमारे डिजिटल होने का क्या फायदा?

अगर सरकार किसानों की आय घटाए बिना वाकई खाद्य सामग्री की कीमतों को स्थिर रखने के लिए गंभीर है तो उसे कृषि के लिए आधारभूत सरंचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) बनाने की जरूरत है, इसके लिए उसे आम किसानों को उचित भंडारण की सुविधा भी देनी होगी. ऐसा हो जाने तक उपभोक्ता और किसान दोनों को मानसून और बड़े थोक व्यापारियों की दया पर रहना होगा.

(लेखक एनडीटीवी इंडिया और एनडीटीवी प्रॉफिट के सीनियर मैनेजिंग एडिटर थे। वह इन दिनों स्वतंत्र तौर पर यूट्यूब चैनल देसी डेमोक्रेसी चला रहे हैं। आप उन्हें यहां @AunindyoC कर सकते हैं। यह एक ओपनियन लेख है। ये लेखक के निजी विचार हैं। क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है।)

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Published: 17 Sep 2020,07:33 PM IST

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