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मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के मायने, पार्टी को कितना फायदा?

कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव से उम्मीद थी कि पार्टी बड़े सुधार करेगी, लेकिन क्या हुआ?

चैतन्य नागर
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>मल्लिकार्जुन खड़गे बने कांग्रेस अध्यक्ष</p></div>
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मल्लिकार्जुन खड़गे बने कांग्रेस अध्यक्ष

(फोटो:Twitter)

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राजनीति में कई ऐसे काम भी होते हैं जिनका प्रतीकात्मक महत्त्व तो होता है, पर उनकी जमीनी हकीकत को खंगाला जाए, तो पता चलता है कि तमाम जद्दोजेहद के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया. मल्लिकार्जुन खड़गे की कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर जीत ऐसी ही एक घटना है.

सालों बाद कांग्रेस को नेहरू-गांधी परिवार के बाहर का अध्यक्ष तो मिला पर जैसा कि कहा जाता है ‘ज़िन्दगी जितनी बदलती है, उतनी ही पहले जैसी बनी रहती है. यह बात कांग्रेस पार्टी पर भी लागू होती है. थरूर और खड़गे के बीच की लड़ाई सिर्फ दिखावटी दिखती है, यह बात लेखक ‘क्विंट’ पर अपने पहले के लेख में भी व्यक्त कर चुका है'. मल्लिकार्जुन खड़गे राहुल/सोनिया गांधी का ही एक और नाम हैं.

अस्सी वर्षीय खड़गे पार्टी में यथास्थिति का प्रतीक हैं. शशि थरूर की उपस्थिति से परिवर्तन की एक उम्मीद जगी थी, पर नतीजों के बाद ये सवाल पूछा जा रहा है कि क्या कांग्रेस को ऐसा ही नेता चाहिए था जो एक रबर स्टैम्प की तरह राजा की ‘हां में हां’ मिलाता रहे.

कोई बेवकूफ ही होगा जो नहीं समझता होगा कि कांग्रेस के नेतृत्व की क्षमता वास्तव में किसके हाथों में है. नए भारत के सपनों से अलग थलग पड़ी किसी पार्टी से इससे अधिक की उम्मीद की जा सकती है कि वह अपने समूचे राजनीतिक भविष्य को एक अस्सी पार नेता के हाथों में सौंप देगी. प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण लेकिन घटिया सिद्धांत है जिसके अनुसार मालिक या मैनेजर सभी उपलब्धियों का श्रेय खुद लेता है, और हर पराजय या गलती का दोष अपने मातहतों के सर पर मढ़ देता है.

सवाल है कि क्या खड़गे को अध्यक्षता इसी नियम के तहत सौंपी गई है? यदि कांग्रेस अप्रत्याशित रूप से जीत भी जाए, तो उसका श्रेय राहुल गांधी को जाएगा और अगर हार गई तो खड़गे के माथे इसका ठीकरा फोड़ दिया जाएगा? अगर दूसरी स्थिति होगी तो उम्र के इस मकाम पर खड़गे को इस बात से फर्क भी क्या पड़ेगा!

कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव उन दो लोगों के बीच था जिनमें थरूर बदलाव के हिमायती, सम्भ्रांत लोगों के प्रतिनिधि थे और खडगे पुरातनपंथी, आम जनता से अलग-थलग पड़े लोगों के.

खड़गे की जीत यही दर्शाती है कि कांग्रेस में बड़ी उम्र के नेताओं का वर्चस्व बना हुआ है, जो नए भारत के युवाओं और उनके सपनों से दूर छिटक गई है. राहुल गांधी ही कांग्रेस के मुखिया बने हुए हैं और उनकी पदयात्रा पार्टी को चुनावी जीत के निकट ले जा सकेगी इसमें गन्भीर संदेह लगातार बने हुए हैं.

लोग पूछ रहे हैं कि राहुल की पदयात्रा में हिमाचल प्रदेश और गुजरात में होने वाले चुनावों पर कोई गौर क्यों नहीं किया जा रहा?

राजस्थान कांग्रेस में हो रही उठापटक पर इस पदयात्रा का असर क्यों नहीं?

कई लोग महसूस कर रहे हैं कि राहुल गांधी की पदयात्रा प्रधान मंत्री मोदी या भाजपा की खिलाफ न होकर कांग्रेस के भीतर सुलग रही बगावत को शांत करने के मकसद से शुरू की गई है. हकीकत तो यह है कि कांग्रेस पार्टी बुजुर्ग नेताओं को पार्टी छोड़ने से नहीं रोक पाई है, और न ही युवाओं को आकर्षित कर पा रही है.

अपने चिर प्राचीन धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी एजेंडा के अलावा पार्टी के पास और कोई तरकीब नहीं अगले चुनावों में कूदने के लिए.

भारतीय समाज एक तरफ सांस्कृतिक पुनरुत्थान में रूचि दिखा रहा है और दूसरी ओर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे दल समाज की आकांक्षाओं को नजरंदाज कर रहे हैं, भले ही वे बुनियादी रूप से वे पूरी तरह गलत हों .

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कांग्रेस पार्टी का कोई व्यापक सामाजिक जनाधार बनता दिखाई नहीं दे रहा है. यह अपने पुराने खेल में लगी हुई है जो जाति, धर्म और सामाजिक क्लेशों के आधार पर निर्मित किया गया हैं, पर इसके लिए दुर्भाग्य की बात यह है कि बीजेपी अब इस खेल को बेहतर तरीके से खेलने में सक्षम है. खड़गे के लिए यथास्थिति बनाए रखना तो आसान होगा, पर आम जनता के साथ जुड़ना उनके लिए आसान काम साबित नहीं हो सकता.

हिंदुत्व के सन्दर्भ में पार्टी का वैचारिक रूख क्या है, उसकी आर्थिक नीतियां कैसी होंगी, और बीजेपी द्वारा परिभाषित राष्ट्रवाद के प्रति कांग्रेस कौन सा रवैया अपनाएगी, ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन्हें लेकर खड़गे को बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, बीजेपी के आक्रामक रूख के सन्दर्भ में भी और अपनी पार्टी की परंपरागत रूख को लेकर भी.

खडगे को यह भी साबित करना होगा कि वे स्वतंत्र हैं, गांधी परिवार का भोंपू नहीं. यह एक बड़ी चुनौती होगी.

शशि थरूर के मैदान में उतरने से कुछ युवा कांग्रेसी शायद उत्साही महसूस कर रहे थे; उन्हें प्रतीत हो रहा था कि थरूर परिवर्तन का प्रतीक हैं और पार्टी में कुछ बुनियादी बदलाव लाने की कोशिशें करेंगे जरुर. पर ऐसे उत्साही कांग्रेसी यह भूल गए कि भले ही सोनिया गांधी पीछे हट जाएं, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और उनके समर्थक अभी मैदान में डटे हुए हैं और अपने अधिकारों को इतनी जल्दी त्यागने वाले नहीं. नये लोगों की आकांक्षाओं और पुराने लोगों के बीच खड़गे कैसे संतुलन बनायेंगे, यह समय बताएगा और वह भी बहुत जल्दी.

खड़गे की जीत को लेकर कई लोग यह भी मान रहे हैं कि यह पार्टी का दलित आधार मजबूत करने में सहायक होगी. कांग्रेस दशकों से दलित वोट पर जीत के लिए निर्भर रही है. 1970 के दशक में दलितों के मसीहा बाबू जगजीवन राम कांग्रेस के अध्यक्ष थे. क्या कांग्रेस पार्टी खड़गे को दलितों के वोट जीतने के लिए इस्तेमाल कर सकती है? गौरतलब है कि खड़गे ने कभी भी अपनी दलित पहचान का उपयोग वोट बटोरने की लिए नहीं किया है. खडगे के दक्षिण भारतीय होने का यह फायदा है कि आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में उनके दलित वोट उसे मिल सकते हैं जो परम्परागत रूप से कांग्रेस समर्थक रहे हैं. इसमें भी चुनौती यह होगी कि दलित वोट के लिए कुछ और दावेदार राजनीतिक स्पेस को भरने के लिए आगे आ चुके हैं. खड़गे उनको हलके में नहीं ले सकते.

दक्षिण भारत में दलित वर्गों को कांग्रेस में भरोसा रहा है पर उनके अपने विभाजन हैं और कांग्रेस पार्टी को दलितों को आकर्षित करने के लिए फिर से नए प्रयास करने पड़ेंगे. उत्तर भारत में खड़गे की वजह से वह असर नहीं दिखेगा जो दक्षिण भारत में दिखने की संभावना है.

हिंदी पट्टी के दो बड़े राज्यों---उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस की सांगठनिक उपस्थिति लगभग नहीं के बराबर है. गौरतलब है कि इन दोनों राज्यों से 120 संसद लोकसभा के लिए चुने जाते हैं. उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी भी है और उसकी मौजूदगी को पूरी तरह से अनदेखा नहीं किया जा सकता. बीजेपी ने भी जमीनी स्तर पर लगातार काम करते हुए दलितों को जीतने की भरपूर कोशिश की है. पंजाब और दिल्ली जैसी जगहों पर आम आदमी पार्टी ने भी दलितों को आकर्षित करने में कोई कसर नहीं रख छोडी है.

कांग्रेस को जमीनी स्तर पर मजबूत संगठन की दरकार है. जहां पार्टी का संगठन मजबूत है, वहीं खड़गे की अध्यक्षता काम आएगी. कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनना एक तरह से तो बड़ी राजनीतिक घटना है, पर यदि सांगठनिक मजबूती का अभाव हो, तो यह झूठे लोकतंत्र का एक दिखावटी आडम्बर मात्र बन कर रह जाती है.

बड़े इवेंट आयोजित करने या सोशल मीडिया की राजनीति करने के अपने फायदे हैं, पर संगठन की अनुपस्थिति में यह कारगर नहीं रह जाते. राहुल गांधी की पदयात्रा और खड़गे के चुने जाने से कांग्रेस में थोड़ी जान तो आई है.

लोगों का ध्यान उसकी तरफ गया जरूर है, पर पार्टी को अपने सामाजिक धरातल को बहुत मजबूत करने की जरूरत है.

इसके बगैर इसके सभी प्रयास व्यर्थ जाएंगे इसकी आशंका ही अधिक है.

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