Members Only
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Hindi Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा का आर्थिक स्थिति, जाति या धर्म से कितना संबंध है?

महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा का आर्थिक स्थिति, जाति या धर्म से कितना संबंध है?

कम विकसित राज्यों में ज्यादा घरेलू हिंसा लेकिन अमीर राज्य में भी कम नहीं

केयूर पाठक & संतोष सिंह
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>महिलाओं के खिलाफ हिंसा में धर्म कहां खड़ा है?</p></div>
i

महिलाओं के खिलाफ हिंसा में धर्म कहां खड़ा है?

(फोटो: क्विंट हिंदी)

advertisement

बारबरा क्रूजर की प्रसिद्ध पंक्ति है- “सभी प्रकार की हिंसा खराब रुढियों का निरूपण है”. और महिला हिंसा के सम्बन्ध में यह बात सबसे अधिक लागू होती है. महिलाओं के साथ जो कुछ भी हिंसा या उत्पीड़न होते हैं वे ऐसे ही पूर्वाग्रही रूढ़ियों से प्रेरित होते हैं.

यह उल्लेखनीय है कि महिलाओं के साथ की जानेवाली विभिन्न प्रकार की हिंसा या उत्पीड़न वैश्विक स्तर पर मानवाधिकार हनन के मामलों के रूप में देखे जाते हैं. मानवाधिकार हनन के ऐसे मामले केवल एक दैहिक हिंसा ही नहीं होते, बल्कि अपनी प्रकृति और परिणाम में अत्यंत व्यापक होते हैं. घरेलू हिंसा भी इसी तरह का मामला है. वर्ष 1983 से ही इसे भारतीय दंड संहिता में कोड-498(A) के तहत एक अपराधिक मामला माना गया है. फिर भी इस कानूनी प्रावधान की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2005-06 में PWDV एक्ट लाया गया. लेकिन इन कानूनों के बावजूद इस तरह की प्रचलित हिंसा में कोई बड़ा बदलाव नहीं देखा गया है जिसे NFHS (2019-21) की रिपोर्ट के द्वारा समझा जा सकता है.

अमीर हो या गरीब हर राज्य में घरेलू हिंसा

पूरे भारत में करीब 32 प्रतिशत महिलाएं (18-49 वर्ष) घरेलू हिंसा का शिकार हुई हैं. अगर इसे राज्यों के सन्दर्भ में देखें तो सबसे अधिक मामले वालें दस सबसे बड़े राज्य क्रमशः कर्नाटक (48%), बिहार (43%), तेलंगाना (41%), मणिपुर (40%), तमिलनाडु (40%), उत्तर-प्रदेश (39%), आंध्र-प्रदेश (34%), असम (34%), झारखण्ड (34%), ओड़िसा (33%). और सबसे कम घरेलू हिंसा वाले राज्य क्रमशः लक्षद्वीप (2.1%), गोवा (10%), हिमाचल प्रदेश (10%), मिजोरम (11%), नागालैंड (12%), जम्मू-कश्मीर (13%), केरल (13%), पंजाब (13%), गुजरात (17%) आदि हैं.

राज्यों के आंकड़े इस बात को प्रमाणित करते हैं कि घरेलू हिंसा का सम्बन्ध इकनॉमी और विकास से भी है लेकिन एकमात्र यही बड़ा कारण नहीं है. मुख्य रूप से यह समाज, संस्कृति और धर्म की संरचना में मौजूद पितृसत्तात्मकता से भी संचालित हो रहा है. यह मान लेना कि महज आधुनिक शिक्षा और रोजगार आदि उपलब्ध करवा देने से घरेलू हिंसा पूरी तरह समाप्त हो जाएगी, असंगत है. हां यह इसके उन्मूलन में एक सहायक साबित होता है. जैसे, अगर भावनात्मक/दैहिक/यौनिक घरेलू हिंसा को शहरी और ग्रामीण सन्दर्भों में देखें तो गांवों (31%) में यह शहरों (27%) की तुलना में अधिक है, लेकिन यह अंतर बहुत अधिक का नहीं है, मात्र तीन प्रतिशत का ही है.

पति से लेकर पिता तक सता रहे

करीब 32 प्रतिशत महिलाएं/लड़कियां ऐसी हैं जिन्हें इसका शिकार पंद्रह वर्ष की आयु से ही होना पड़ा, या तो पति द्वारा या पिता द्वारा या सम्बन्धियों द्वारा वे घरेलू हिंसा को झेलती हैं. करीब तीन प्रतिशत ऐसी महिलाएं थी जिनके साथ-मारपीट और अन्य हिंसा उनके गर्भावस्था की अवधि में ही की गई; जिस समय उन्हें विशेष रख-रखाव की जरुरत होती है उस समय उनके साथ अमानवीय कृत्य किये जाते हैं.

32 प्रतिशत ऐसी महिलाएं थी जिन्हें इस तरह की हिंसा अपने पति के द्वारा ही झेलनी पड़ती हैं जिनसे वे प्रेम की आशा कर रही होती हैं. विवाहित महिलाओं के मामलों में NFHS-4 (31%) की तुलना में NFHS-5(29%) में एक गिरावट दर्ज की गई है, लेकिन यह गिरावट इतनी नहीं कि इसे कोई उपलब्धि मानी जाए.

ज्यादा उम्र, ज्यादा बच्चे, ज्यादा हिंसा

जैसे-जैसे लड़कियों/महिलाओं की आयु बढ़ती जा रही है उसके प्रति हिंसा की मात्रा और तीव्रता भी बढ़ती जा रही है. 18-19 वर्ष की अवधि में भावनात्मक/दैहिक/यौनिक हिंसा करीब 24.6 प्रतिशत है, जबकि क्रमशः बढ़ती हुई 40-49 वर्ष में जाकर यह लगभग 34 प्रतिशत हो जाती है. बढ़ती हुई आयु के साथ इसके बढ़ने की कई वजहें हो सकती है जैसे पारिवारिक जिम्मेवारियों का बढ़ना, आर्थिक तंगी आदि; उदाहरण के लिए जैसे-जैसे परिवार में बच्चों की संख्या बढ़ती जाती है इस प्रकार की हिंसा भी बढ़ती जाती है- बिना बच्चों के दम्पति में ये हिंसा 23 प्रतिशत है, तो 1-2 बच्चों वालों में यह बढ़कर 30 प्रतिशत, 2-4 वालों में 38 प्रतिशत और 5 और इससे अधिक वालों में 41 प्रतिशत हो जाती है.

भावनात्मक/दैहिक/यौन मामले में विवाहित लोगों की तुलना में तलाकशुदा या त्याग दी गई महिलाएं इसका अधिक शिकार होती है. विवाहित महिलाओं में इसका प्रतिशत 31 प्रतिशत है तो तलाकशुदा/परित्यक्त महिलाओं में लगभग 47 प्रतिशत है. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि महिलाओं की आत्मनिर्भरता पर अभी बहुत अधिक कार्य किये जाने की जरुरत है.

आज जब एकल परिवारों का चलन हो गया है, या यूं कहें कि एक तरह से संयुक्त परिवारों का अब अवशेष ही बचा है तो ऐसे में घरेलू हिंसा के मामले में संयुक्त परिवार (29%) एकल परिवारों (35%) की अपेक्षा अधिक सुरक्षित है. संयुक्त परिवारों की सामूहिकता अक्सर ऐसे अपराधों पर अंकुश लगा ही देती है. एकल परिवार की एकांतिकता अपने आप में ही अनगिनत अपराधों और मानसिक समस्याओं को जन्म देने की सम्भावना रखती है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

हर जाति, धर्म में घरेलू हिंसा

जाति और धर्मों में भावनात्मक/दैहिक/यौनिक हिंसा की व्यापकता को भी इस रिपोर्ट ने समेटा है. हिन्दू, इस्लाम, इसाई, सिख, बुद्धिज्म, जैन में क्रमशः यह 32, 30, 26, 12, 31, 20 प्रतिशत हैं. धार्मिक मूल्यों से ऐसी घरेलू हिंसा का कितना सम्बन्ध है यह तो दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन ये आंकड़े ये जरुर बताते हैं कि सभी धर्मों में महिलाओं को पुरुषों के बाद ही स्थान दिया गया है. इसलिए अनेकों नारीवादियों का दावा होता है कि महिलाओं का कोई धर्म नहीं, उनके धर्म की खोज अभी जारी है.

इसी तरह जातीय संरचना में यह अनुसूचित जातियों में सबसे अधिक लगभग 37 प्रतिशत जबकि अन्य उच्च मानी जानी वाली जातियों में यह 25 प्रतिशत है. ऐसा माना जाता है कि जनजातीय समुदायों में यह अप्रचलित है जबकि आंकड़े ऐसे दावों के विरुद्ध हैं. जनजातीय समुदायों में भी यह हिंसा लगभग 35 प्रतिशत है जो अनुसूचित जातियों के ही आसपास है. इन समुदायों में ऐसी हिंसा के लिए सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को एक बड़ा कारण माना जा सकता है, जैसा कि जिसे संपत्ति के आधार पर दिए गए आंकड़ों से समझा जा सकता है जिसमें सबसे कम संपत्ति वालों के बीच यह सबसे अधिक करीब 41 प्रतिशत तो इसके उलट सबसे उच्च वर्गों के बीच सबसे कम लगभग 19 प्रतिशत ही है. संपत्ति या “अर्थ” सबकुछ नहीं, लेकिन फिर भी इसका प्रभाव व्यापक है और इसे नकारा नहीं जा सकता खासकर ग्लोबल पूंजीवाद के दौर में.

जो नाइंसाफी करते वहीं इंसाफ के लिए पनाह

अब सवाल है कि इस तरह की हिंसा पर सर्वाइवर न्याय के लिए कहां जाती है? आमतौर पर ऐसी हिंसा को समाज द्वारा वैधता मिली होती है जिस कारण बहुत ही कम ऐसे मामले होते हैं जिसमें महिला सरकारी या अन्य सामाजिक संस्थाओं के पास जाती है. इस हिंसा के विरुद्ध आमतौर पर निकटतम लोगों से ही मदद ली जाती है. इसमें सामाजिक सेवा संस्थान, वकीलों, पुलिस चिकित्सक, धार्मिक गुरुओं का हस्तक्षेप बहुत ही कम होता है.

आज भी इस तरह की हिंसा इतनी सामान्य है कि संभवतः इन सरकारी व गैरसरकारी संगठनों की सहायता लेना उचित नहीं माना जाता. सबसे अधिक जो मदद ली गई उनमें अपने परिवार (60.01%), पति के परिवार वाले (29.3%), पति (1.3%), मित्र (16.6%), पड़ोसी (8.3%) आदि हैं. हाल ही में आई फिल्म ‘थप्पड़’ एक उदाहरण है यह समझने के लिए. ‘थप्पड़’ गाल पर ही नहीं पड़ते, बल्कि यह स्त्री के अस्तित्व पर प्रहार है और घरेलू हिंसा के विरुद्ध लड़ाई भी अस्तित्व बचाने का संघर्ष है.

(लेखक डॉक्टर केयूर पाठक, स्तंभकार और शोधकर्ता हैं. आईसीएसएसआर अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद, तेलंगाना से सामाजिक विकास परिषद में पोस्ट-डॉक्टरेट हैं.

डॉक्टर संतोष सिंह प्रोफेसर हैं और रैफल्स विश्वविद्यालय, नीमराना में स्कूल ऑफ सोशल साइनसेज के सामाजिक विज्ञान विभाग के प्रमुख हैं.)

Become a Member to unlock
  • Access to all paywalled content on site
  • Ad-free experience across The Quint
  • Early previews of our Special Projects
Continue

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT