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मिजोरम (Mizoram) में पूरे दो दिनों तक चले राहुल गांधी के धुआंधार चुनाव अभियान ने - जहां 7 नवंबर को मतदान होना है - एक स्पष्ट संदेश दिया है कि कांग्रेस पार्टी सुदूर पूर्वोत्तर में सबसे कम आबादी वाले राज्य पर कब्जा करने के लिए उतनी ही गंभीर है, जितना मुख्य राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना को जीतने के बारे में है.
मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरामाथांगा, जो सत्तारूढ़ मिजो नेशनल फ्रंट (MNF) के अध्यक्ष भी हैं, को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि बड़े पैमाने पर ईसाई राज्य में सत्ता 1989 से ही कांग्रेस और एमएनएफ के बीच घूमती रही है.
कांग्रेस के ललथनवाला- जो अब 80 वर्ष के हो चुके हैं- ने 1989 और 1993 में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, उसके बाद 1998 और 2003 में जोरमाथांगा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली; ललथनवाला 2008 और 2013 में वापस आ गए थे, लेकिन जोरमाथांगा ने 2018 में जीत हासिल की और अब लगातार दूसरे कार्यकाल पर नजर गड़ाए हुए हैं.
मौजूदा स्थिति के अनुसार, MNF बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए और नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (NEDA) में भागीदार है.
लेकिन इंफाल और दिल्ली में “डबल इंजन” बीजेपी सरकार के शासन में मई से मणिपुर में कुकी ईसाइयों के नरसंहार और रेप और चर्चों पर हमले के बाद मिजोरम में गठबंधन एक बड़ा बोझ बन गया है. दरअसल, मिजोरम में ईसाई न केवल आबादी का 87 प्रतिशत से अधिक हैं, बल्कि आठ में से आठ जिलों में भारी बहुमत में हैं.
इसलिए 79 वर्षीय मुख्यमंत्री अपने MNF और NJP के बीच एक फायरवॉल बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं - और प्रार्थना कर रहे हैं कि यह काम करे.
खुद को बीजेपी से दूर करने के लिए - एनडीए और एनईडीए पार्टनर होने के बावजूद - जोरमाथांगा ने कुकियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए आइजोल में मिजो ईसाइयों के साथ मार्च किया, और यहां तक कि कुकियों को मैतेई हिंदुओं से बचाने के लिए एक अलग प्रशासन की मांग की, जिससे मणिपुर के बीजेपी सीएम बीरेन सिंह नाराज हो गए.
माना जाता है कि उन्होंने मणिपुर के आंतरिक मामलों में जोरमाथागा के हस्तक्षेप के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से भी शिकायत की थी.
कुकी और मिजो एक ही जातीय समूह से हैं - और म्यांमार से विस्थापित चिन भी एक ही जातीय समूह से हैं. एमएनएफ सरकार न केवल कुकी और चिन शरणार्थियों को भोजन और छत प्रदान कर रही है, बल्कि चुनाव से पहले अपने ईसाई निर्वाचन क्षेत्र का निर्माण करने के लिए, चिन के बायोमेट्रिक डेटा एकत्र करने के केंद्र के आदेश को पूरा करने से इनकार कर दिया है.
ईसाई हितों का समर्थन करने के लिए, जोरमाथांगा ने एमएनएफ के लोकसभा सांसद सी लालरोसंगा और राज्यसभा सांसद के वनलालवेना को विशेष निर्देश जारी किए, ताकि वे संसद के पटल पर कुकियों के उत्पीड़न को उजागर करने का कोई भी अवसर न चूकें.
मानसून सत्र के दौरान, एमएनएफ मणिपुर की अव्यवस्था पर केंद्रित बीजेपी सरकार के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करने की हद तक चला गया था.
यह देखना बाकी है कि क्या यह सब इस बार मिजोरम के ईसाइयों को एमएनएफ को समर्थन देने के लिए पर्याप्त होगा, जिसने पांच साल पहले 40 में से 26 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस को केवल 5 और जोरम पीपुल्स मूवमेंट (ZPM) को केवल आठ सीटें मिली थीं.
रिटार्यड IPS लालदुहोमा के नेतृत्व में ZPM को अनिवार्य रूप से एमएनएफ के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है और उसने हाल ही में शहरी स्थानीय निकायों के चुनावों में आश्चर्यजनक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है.
इस बार त्रिकोणीय मुकाबला होने की संभावना है क्योंकि यह तिकड़ी (तीनों दल) एक बार फिर मैदान में उतरने के लिए उत्सुक है और उसने सभी 40 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं.
इसके विपरीत, 2018 में एक सीट जीतने वाली बीजोपी को अपनी संभावनाएं ज्यादा नहीं दिख रही हैं और उसने केवल 23 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं, जो पिछली बार से काफी कम हैं.
पड़ोसी राज्य मणिपुर में कुकियों को निशाना बनाए जाने के कारण अब तक बीजेपी का चुनावी अभियान बहुत छोटा रहा है, जिसे ईसाई नेता राज्य समर्थित नरसंहार के रूप में बताते हैं, जिसका मुद्दा यूरोपीय संसद में भी उठा है, जिससे नई दिल्ली को शर्मिंदगी उठानी पड़ी है.
बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा 25 अक्टूबर को और पीएम मोदी 30 अक्टूबर को मिजोरम का दौरा करेंगे, और मतदाताओं से वोट की अपील करेंगे. इससे पार्टी के स्पष्ट रूप से कम हुए मनोबल को उठने की उम्मीद है.
मिजोरम में राहुल गांधी का बयान राष्ट्रीय सुर्खियां बना क्योंकि उन्होंने पीएम मोदी पर मणिपुर से ज्यादा इजराइल को प्राथमिकता देने का आरोप लगाया.
इसके अलावा, कांग्रेस नेताओं ने एमएनएफ और जेडपीएम को बीजेपी-आरएसएस मोर्चों के रूप में बताया है और मतदाताओं को चेतावनी दी कि वे धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों की रक्षा के बारे में उनकी बयानबाजी और झूठी बातों से मूर्ख न बनें. उन्होंने शांति समझौते पर हस्ताक्षर करके मिजोरम के उत्थान में अपने पिता, पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी के योगदान का भी जिक्र किया.
कांग्रेस अपने सबसे बड़े मिजो नेता और पांच बार के सीएम थनहवला के बिना है, जिन्होंने राजनीति छोड़ दी. उनके स्थान पर आए नए कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष लालस्वाता में स्वाभाविक रूप से थनहवला के करिश्मे और मिजो भावनाओं के गहरे ज्ञान की कमी है.
वहीं, राहुल गांधी बिना घोषणा के ही बाइक से थनहवला के घर उन्हें सम्मान देने और मिजोरम पर फिर से जीत के लिए सलाह लेने पहुंच गए.ये राहुल का चुतराई भरा कदम था.
चूंकि मिजोरम चुनाव पड़ोसी राज्य मणिपुर में सांप्रदायिक महासंकट की छाया में हो रहे हैं, जो छठे महीने में भी जारी है, इसलिए मतदाताओं के दिमाग पर इसका भारी असर पड़ना तय है क्योंकि वे अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे और मैदान में सभी दलों की किस्मत का फैसला करेंगे. जो पार्टी पूर्वोत्तर में चल रही अंडरकरेंट और क्रॉस करंट को सबसे अच्छे से समझ लेगी, वही विजेता होगी.
(एसएनएम अबदी एक प्रतिष्ठित पत्रकार और आउटलुक के पूर्व डिप्टी एडिटर हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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