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भविष्य के लिए इस्लाम का सैद्धांतिक संघर्ष कोई दो दशक पहले शुरू हुआ. एक ही वर्ष, 1703 में जन्मे दो धर्मॆशास्त्रियों, एक अरबी और दूसरा भारतीय, की दी हुई थीसिस आज तक के इस्लामिक सिद्धांत पर प्रभावी है — दिल्ली में पैदा हुए शाह वलीउल्लाह (1703-1760) और नज्द में जन्मे मुहम्मद-इब्न-अब्द वहाब (1703-1787).
1739 में मुगलों की अकर्मण्यता को देखने के बाद शाह वलीउस्साह ने एक खास नुस्खा सुझाया: क्योंकि शिया पहले से ही धर्मभ्रष्ट (मुर्तद) थे और इस्लाम को धोखा दे चुके थे, तो उन्होंने सुन्नी एकता की बात कही. उन्होंने वंशगत राजशाहियों में बटे सुन्नी सत्ताधारियों का पता लगाया, जो खलीफा चुनने की प्रक्रिया आम राय देना छोड़ चुके थे; जनहित के का्यों की जगह इमारतें बनवाने में पैसा खर्च करने वाले मुगलों की आलोचना की (ताजमहल महल तब नया ही बना था) और सबसे खास बात, कि उन्होंने हिंदू और शियाओं से मित्रता बढ़ाने वाले, हिंदू रीति रिवाजों के अपनाने वाले कुलीन मुगलों की भी आलोचना की. यह शिर्क था, यानी एक से ज्यादा खुदाओं को मानने का पाप था.
उनकी बनाई हुई पापों की सूचि सिर्फ मुसलमानों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी, जिसे औरंगजेब ने भी महत्व दिया.
शिर्क करने वालों के लिये उनके पास इस्लाम में यकीन रखने वालों और यकीन न रखने वालों के बीच भौतिक और सांस्कृतिक “थ्योरी ऑफ डिस्टेंस” थी. उनका मानना था कि मुसलमान जितना अरब के करीब होंगे उतने ही अल्लाह के भी करीब होंगे. राजनीति में उनका महत्वपूर्ण योगदान था.
1758 में जब मराठा दिल्ली पहुंच गए तो उन्होंने मुसलमान शासन की रक्षा के लिए अहमाद शाह अब्दाली को खैबर पार कर आ जाने का संदेश भेज दिया था. यह एक ऐसा “खतरा” था जो आगे भी कई पीढ़ियों को डराता रहा — देश के विभाजन से पहले सर सैयद अहमद व अन्य मुस्लिम नेता भी इस डर से नहीं बच सके.
फिर एक नई ताकत ने इस डर पर कब्जा कर लिया. 1803 में जब लॉर्ड लेक भारत आए तो शाह वलीउल्लाह के बेटे शाह अज़ीज़ ने एक मशहूर फतवा जारी किया. फतवे में भारत को दार-उल-हर्ब या ‘युद्ध का घर’ घोषित किया गया था. उनके अनुसार ब्रिटिश इस्लाम के लिए खतरा थे. अज़ीज़ के शागिर्द सय्यद अहमद बरेलवी (1786-1831) ने 1820 में अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद शुरू कर दिया था जिसे उनके उत्तराधिकारियों ने 1870 तक जारी रखा.
1818 में लिखा गया बरेलवी का घोषणापत्र वलीउल्लाह और अब्दुल वहाब के विचारों की समानताओं को दिखाता है. जबकि बरेलवी वहाबियों से 1822 और 1824 के बीच मिले जब वे हज के लिए गए. बरेलवी ने दरगाहों पर जाने वाले, और शादियों में नाचने गाने वाले मुसलमानों की काफी आलोचना की. यही वजह है कि दरगाहों की पूजा के खिलाफ होने के बावजूद तालिबान ने उनकी मजार का सम्मान किया था.
अरब में वहाबियों का प्रभुत्व कम जरूर हुआ पर नज्द के अमीर, मुहम्मद-इब्न-सऊद ने एक योग्य शिष्य की तरह 1804 में मक्का और मदीना पर अधिकार कर ऑटोमनों को चौंका दिया था. भारत में अंग्रेजों ने वलीउल्लाह के समर्थकों को वहाबी कहना शुरू कर दिया. वहाबियों की कट्टरता के कारण उनके अंग्रेजों से कई विवाद भी हुए.
1867 में वहाबी विचारधारा को मानने वाले कुछ उलेमाओं ने मौलाना नानोतवी और गंगोही के नेतृत्व में एक मदरसे की शुरुआत की जो आगे चल कर ‘देवबंद’ नाम की अंत्तराष्ट्रीय शक्ति के रूप में सामने आया. पर 1857 के कड़वे अनुभव से गुजर चुके देवबंदी मौलानाओं को अंग्रेजों का सामना करने के लिए हिंदुओं की जरूरत समझ आ चुकी थी. लेकिन उन्होंने सांस्क़तिक दूरी बनाए रखी जो आगे चल कर पहचान की राजनीति में बदल गई.
पर उसी समय सर सैयद के नेतृत्व में कुलीनों एक समूह ने यह महसूस किया कि अंग्रेज यहां लंबे रुकने वाले थे और इसीलिए उन्होंने नए शासकों के साथ संबंध सुधारने में ही भलाई समझी ताकि वे शिक्षा और शासन के अपने अधिकार सुरक्षित रख सकें.
इस तरह शाह वलीउल्लाह की धरोहर दो भागों में बंट गई: सांस्कृतिक हिस्सा देवबंद की ओर, राजनीतिक हिस्सा सर सैयद की ओर. इसी बंटवारे की रजनीति ने 1909 और 1947 के बंटवारे को जन्म दिया.
पार्टीशन के बाद सांस्कृतिक वहाबी विचारधारा से कुछ समय तक तो दूर रहने की कोशिश की गई, लेकिन बाद में जब पाकिस्तान को एक इस्लामिक स्टेट का दर्जा दिया गया तो राजनीतिक तर्क अपने आप ही खत्म हो गया. उत्तर प्रदेश से गए प्रधानमंत्री लियाकत अली को महसूस हुआ कि वे सिर्फ शब्दों के ही प्रधानमंत्री हैं, हकीकत में तो वे जनरल जिया उल हक के शरिया आधारित निज़ाम-ए-मुस्तफा के लिए ही रास्ता बना रहे थे. पाकिस्तान, औपनिवेशिक काल के बाद बना पहला इस्लामिक स्टेट है, और इस्लामवाद ने सिर्फ तरीका ही नहीं बदला है बल्कि इतिहास की किताबों और राज्य व्यवस्था को भी बदल दिया है.
1971 में पाकिस्तान को एक रखने में इस्लाम हार जरूर गया पर इस हार से पॉलिटिकल और सोशल इमेजिनेशन पर इस्लाम के प्रभाव में कोई कमी नहीं आई. जहां बांग्लादेश ने भाषा आधारित जातीयता में अपनी एकजुटता की संभावनाएं तलाशीं, वहीं पाकिस्तान यही मानता रहा कि एक धर्म ही उसे जोड़ कर रख सकता है — कि पाकिस्तान के बिखरने में इस्लाम का कोई दोष नहीं था बल्कि मुसलमानों का दोष था कि वे अपने धर्म को ठीक से समझ न सके.
इस्लाम और राष्ट्रीयता का मिश्रण अस्थिरता की गारंटी है, क्योंकि इस्लाम के इतिहास में भी कभी धर्म रजनीतिक एकता नहीं ला सका है. वरना अरब में 22 देशों की क्या जरूरत थी?
इस्लाम के शुरुआती दिनों में ही पैगंबर मुहम्मद के उत्तराधिकार को लेकर आंतरिक कलह शुरू हो गई थी, जो कि एक गृहयुद्ध में बदल गई. इसी कलह की परिणिति था शिया और सुन्नियों का बंटवारा.
चार शुरुआती खलीफाओं में से सिर्फ अबू बक्र की ही मृत्यु बिस्तर में हुई, जबकि उमर, उस्मान और अली की हत्या कर दी गई.
उमर को एक ईरानी नौकर ने 644 में मार दिया; गुटबंदी के झगड़े के चलते उस्मान की हत्या 656 में अबू बक्र के बेटे मुहम्मद ने कर दी; एक विद्रोही ने 660 में अली की हत्या कर दी. 657 में अली, जिन्होंने अपनी राजधानी कूफा में स्थानांतरित कर दी थी, का सामना सिफिन, सीरिया में मौविया से हुआ. इसे ऊंटों की लड़ाई भी कहा जाता है. मुआविया, जिनके पास पैगंबर की पत्नी आयशा का समर्थन था, ने अली पर उस्मान की हत्या के षड़्यंत्र का आरोप लगाया.
मुआविया ने अली के बेटे हसन को इस्तीफा देने पर मजबूर कर सत्ता हथिया ली और पहले राजवंश ‘उमैयाद के राजवंश’ की नींव रखी. जब 680 में मुआविया की मौत हुई तो हसन के भाई हुसैन ने मुआविया के बेटे यज़ीद को चुनौती दी. पर क्योंकि हुसैन के लोगों की संख्या बेहद कम थी तो 680 में ही कर्बला की लड़ाई में उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी. उन्हीं की शहादत पर शियाओं में शोक मनाया जाता है. अब्दाल मलिक के शासनकाल में थोड़ी शांति आने तक खून और अशांति का माहौल बना रहा.
खिलाफत भी वंशवाद के हाथ में चली गई. 14 उमैयाद, 37 अब्बासी, और 1517 से 1924 के बीच के आखिरी के 26 ऑटोमन खलीफा बने, उसके बाद अतातुर्कों ने खिलाफत को खत्म कर तुर्की को मॉडर्निटी की ओर मोड़ दिया. 1517 में सलीम I ने खिलाफत को अरबों से तलवार के दम पर छीना था.
खिलाफत को कुरान ने अधिकार दिए हैं. खिलाफत शब्द ‘ख़ल्फ’ से आया है, जिसका अर्थ है विरासत. शायद कुछ कट्टरपंतथियों को यह मानने में परेशानी हो कि कुरान के मुताबिक आदर्श खलीफा किंग डेविड था. आयत 2:30 में कहा गया है: “देखो, खुदा ने फरिश्तों से कहा, ‘मैं धरती पर एक खलीफा पैदा करता हूं’.” पहला आदम था और दूसरा डेविड. मुश्किल वक्त में खुदा पर यकीन रखने से ही जीत हासिल होती है, इस यकीन का सबसे बड़ा उदाहरण डेविड था, जिसने गोलिथ से लड़ाई लड़ी. आयत 2:249 कहती है: “अल्लाह की मर्जी के बिना एक छोटी ताकत एक बड़ी ताकत को कैसे जीतती? अल्लाह उन्हीं लोगों के साथ है जो लगातार कोशिशें करते हैं.”
इसी आयत ने भरोसा दिया कि लड़ाई के मैदान में संख्या नहीं, यकीन मायने रखता है. आज के परिदृश्य में आतंकवादियों के छोटे समूह भी यही मानते हैं कि अगर वे शहीद होने को तैयार हैं तो वे महाशक्तियों को भी हिला सकते हैं. क्योंकि जन्नत के रास्ते भी तलवार के साए के नीचे से गुजरते हैं तो अल्लाह के नाम पर मरना उनके लिए दोनों ही तरफ फायदे की स्थिति. यह ‘जिहाद फी सबी अल्लाह है’ — अल्लाह के लिए मरना (पाकिस्तानी सेना का आधिकारिक (मोटो) उद्देश्य भी यही है.).
(लेखक एमजे अकबर बीजेपी से संसद सद्सय हैं.)
Published: 04 Feb 2016,08:30 PM IST